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सियासत

अल्लामा शायर बड़े रहे होंगे पर आदमी कट्टर ही थे

-विवेक सिंह-

आज अल्लामा इकबाल की यौम-ए-पैदाइश है। हम लोग अल्लामा इकबार को सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा से जानते हैं.. ये लाइन ही सारा कन्फ्यूजन पैदा करती है। लगता है कोई भारत से बहुत प्यार करने वाले शख्स ने इसे लिखा है। मैं हमेशा कहता हूं कि कोई अच्छा लिखने वाला आदमी भी अच्छा हो ये जरूरी नहीं। पाकिस्तान बनने में इकबाल का वैचारिक योगदान कितना है ये सब जानते हैं.. उस पर बात करने की जरूरत नहीं.. अल्लामा पर भड़ास पर छपा एक लेख पड़ रहा था जिसमें कहा गया कि अगर अल्लामा आज होते तो मुसलमान उनके खून के प्यासे होते.. जिन जनाब ने ये लिखा उन्होंने अल्लामा के कुछ शेर पेश किए और कहा कि इन शेर को देखकर कोई नहीं कहेगा कि इकबाल कट्टर थे… लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता..

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जरा खुद ही देखिए..

“ज़ाहिदे तंग नज़र ने मुझे काफिर जाना, और काफिर ये समझता है मुसलमान हूं मैं”

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अब इस शेर में कहा गया कि कट्टर मुसलमानों ने उन्हें काफिर कहा और अल्लामा ने अपने शेर में यही दर्द बयान किया। लेकिन जरा इस शेर की दूसरी लाइन देखिए जिसमें अल्लामा कह रहे हैं कि काफिर ये समझता है कि मुसलमान हूं मैं.. आखिर ये बताना चाहिए कि अल्लामा किसे काफिर समझ रहे हैं.. फिर कुफ्र पर उनका नजरिया क्या था।

एक और शेर देखिए- “मस्जिद तो बना ली पल भर में, ईमां की हरारत वालों ने, दिल अपना पुराना पापी था, बरसों में नमाज़ी बन ना सका”

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अब अल्लामा को सिर्फ मस्जिद में जाने वाला मुसलमान नहीं चाहिए.. ईमान के लिए उसे कुछ और भी करना होगा.. नमाजी बनना ज्यादा जरूरी है.. फिर आगे पाकिस्तान का ख्वाब भी पूरा करना है।

असली अल्लामा की सोच तो इसमें है.. “है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़, अहले नजर समझते हैं उसको इमाम-ए-हिन्द”

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जिस राम को हिन्दुस्तान में भगवान माना जाता है उसे इकबाल ने इमाम बना दिया। इमाम तो समझते ही हैं आप। यहां अगर देखें तो अल्लामा इस्लाम के नजरिए से भी तंगी करते नजर आ रहे हैं। इस्लाम में मोहम्मद साहब धरती पर आखिरी पैगंबर हैं लेकिन इकलौते नहीं हैं। कुल 1 लाख 24 हजार पैगंबर उतारे जाने की बात कही गई है.. (एक दो कम ज्यादा हो तो माफ करिएगा) जीसस, मूसा, अब्राहम इन सभी को पैगंबर माना गया है.. चलिए राम को भगवान न मानते लेकिन नबी तो कह ही सकते थे.. इसमें कोई इस्लाम के हिसाब से भी बुनियादी लोचा नहीं था लेकिन इकबाल खेल गये यहां.. नहीं… पैगंबर वो भी राम.. हम तो इमाम ही कहेंगे.. जो भगवान माना जाता है उसे मौलवी बना दिया

“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा”

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इस रचना के बहाने इकबाल को हिंदोस्तां का प्रेमी बताना दरअसल शातिरपना है। हिंदी हैं हम वतन हैं इकबाल ने 1904 में लिखा था जिसका नाम था तराना-ए-हिंद। लेकिन लेख लिखने वाले ये नहीं बताते कि तराना-ए-हिंद के बस 6 साल बाद 1910 में ही इकबाल का मन इस तरह बदल गया था कि वह तराना-ए-मिल्ली लिख डालते हैं.. जिसमें पूरी लाइन ही बदल जाती है-

चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा
मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहां हमारा

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दुनिया के बुत-कदों में पहला वो घर ख़ुदा का
हम इस के पासबाँ हैं वो पासबाँ हमारा (पासबां- रक्षक)

तेग़ों के साए में हम पल कर जवाँ हुए हैं
ख़ंजर हिलाल का है क़ौमी निशाँ हमारा (हिलाल- चांद)

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देखिए सिर्फ 6 साल में चीन और अरब, हिंदुस्तान सबको अपना बनाने लगे हैं.. खुद को खुदा की फौज का सिपाही बता रहे.. इकबाल जिस वतन की बात कर रहे हैं उसका कौमी निशां देखिए क्या बना रहे हैं.. इकबार के इस वतन में दूसरे लोग कहां हैं.. क्या 1910 में ऐसा लिखने वाले इकबाल आपको कहीं से सबको साथ लेकर चलने वाले लगते हैं.. ध्यान रहे कि इकबाल ने 1930 में इलाहाबाद में मुस्लिम लीग की बैठक में मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग की थी लेकिन उनके मन में ये ख्याल 1910 में भी था.. वो भी तब जब पूरे देश में खिलाफत के समर्थन में गांधी जी खुद बोल रहे थे.. पूरे देश में मुसलमान खिलाफत के समर्थन में रैलियां हो रही थीं लेकिन इकबाल को अलग मुल्क चाहिए था।

मतलब इन लाइनों में इकबार कहां कट्टरपन के विरोधी नजर आ रहे हैं। ये सब तब नहीं समझ आ रहा जब इकबाल के विचार को इस्लाम के नजरिए से देखा जाए। दूसरे धर्म के नजरिए से देखा जाए तो इकबाल का कौन सा रूप दिखेगा आप खुद सोचिए।

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मूल पोस्ट-

अल्लामा इकबाल जो आज होते तो मुसलमान उनके खून के प्यासे होते!

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