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आनंद के इस्तीफे की खबर के साथ ईडी की जांच के तहत होना उतना ही महत्वपूर्ण है

कितने अखबारों ने उतनी ही प्रमुखता से बताया है? नवंबर में छापे पड़े थे यह नहीं हो सकता है कि जांच पूरी हो गई और वे दूध के धुले साबित हो चुके हैं; जो बताया गया उससे लगता है कि अगला नंबर उनका भी हो सकता था और इस्तीफे का कारण यह भी हो सकता है पर सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें छपी हैं

संजय कुमार सिंह

आम आदमी पार्टी की दिल्ली की सरकार के मंत्री राजकुमार आनंद के इस्तीफे की खबर दिल्ली के अखबारों के लिए निश्चित रूप से बड़ी है। विपक्ष को कुचलने की केंद्र सरकार की राजनीति का हिस्सा हो या नहीं, दिल्ली के लिये यह बड़ी खबर है और पूरे विवरण के साथ दी जानी चाहिये थी। निष्पक्षता का तकाजा है कि खबर से संबंधित सभी पहलुओं का जिक्र हो ताकि केंद्र सरकार की राजनीति के बारे में पाठक जानकार निर्णय ले सकें। यह तथ्य है कि मीडिया वाले प्रधानमंत्री से सवाल नहीं पूछ पाते हैं दूसरे मंत्री भी पूरक प्रश्नों का जवाब नहीं देते। लेकिन इस छूट या कमजोरी को सीमित करने की जरूरत है और जब केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी में ‘इस्तीफे नहीं होते हैं’ की घोषणा की जा चुकी है, हम देख भी रहे हैं तब राजकुमार आनंद जैसे लोग इस्तीफा दें तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि कारण वही है जो वे बता रहे हैं।

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मुझे लगता है कि आज अखबारों में जो छपा है वह कारण नहीं है और कम से कम संतोषजनक नहीं है। जो छपा है उस पर मेरे कई सवाल हैं और जवाब सात अखबारों में नहीं है तो कहां ढूंढ़ूं, आम आदमी सच कैसे जानेगा? नवोदय टाइम्स में आज यह खबर पहले पन्ने पर दो कॉलम में है। न तो शीर्षक में और न पहले पन्ने पर छपी पूरी खबर में बताया गया है कि राज कुमार आनंद पर भी ईडी का छापा पड़ा था। आप मानेंगे कि ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) जब केंद्र सरकार की शाखा के रूप में काम कर रहा है तब यह तथ्य पर्याप्त महत्वपूर्ण है। कायदे से तो इसे शीर्षक या उपशीर्षक में प्रमुखता से बताया जानाा चाहिये था और इस बात का कोई मतलब नहीं है कि यह पहले बताया जा चुका है या पहले छपी हुई खबर है। इसके बावजूद पूरी खबर में इस तथ्य का उल्लेख नहीं होना सामान्य चूक नहीं है।

दिलचस्प यह भी है कि राजकुमार आनंद ने ऐसे समय में पार्टी छोड़ी है जब पार्टी संकट में है, केंद्र सरकार के हमलों से जूझ रही है और तब उनका यह आरोप कि पार्टी में दलितों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है – शीर्ष नेताओं में कोई दलित नहीं है और पार्टी दलित विधायकों, पार्षदों और मंत्रियों का सम्मान नहीं करती है, बेमतलब है। यह बताने की जरूरत नहीं है कि सम्मान जाति से नहीं, काम से मिलता है और जब पार्टी के तमाम लोग जेल में हैं और आप पार्टी छोड़ देंगे तो सम्मान किस बात का मिलेगा। मुख्यमंत्री के जेल में रहते सरकार संभालते तो सम्मान मिलता। पार्टी में अगर संजय सिंह को सम्मान मिल रहा है या मनीष सिसोदिया को दिया गया है तो उसका कारण है। जो भी हो, पार्टी का साथ देने वाले ऊंची जाति के लोग ही होंगे तो महत्व छोड़ने वालों को कैसे दिया जा सकता है।

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जो भी हो, यह जानना दिलचस्प है कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद उन्हें लगा कि हमारी ओर से कुछ गड़बड़ है। मुझे लगता है कि यह मनीष सिसोदिया और सत्येन्द्र जैन की गिरफ्तारी के समय ही लगना चाहिये था या फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक इंतजार किया जाना चाहिये था। हाईकोर्ट के फैसले से राय नहीं बनाने का कारण यह लगता है कि हाईकोर्ट ने यह नहीं बताया है कि मुख्यमंत्री जेल में रहेंगे तो सरकार कैसे चलेगी। यही नहीं, मुख्यमंत्री को पद से हटाने की मांग करने वाली याचिकाएं न सिर्फ स्वीकार नहीं की गईं बल्कि एक पर जुर्माना भी लगा है। साफ है कि मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी का प्रावधान या व्यवस्था होती तो यह भी होता और नहीं है मतलब गिरफ्तारी सामान्य नहीं है। वैसे भी यह पहला है और संभव है कि केंद्र सरकार ने जो व्यवस्था बनाई है या जो स्थितियां हैं उसमें यह सही लग रहा हो और सुप्रीम कोर्ट से फैसला बदल जाये और यह वैसे ही हो जैसे राहुल गांधी के मामले में हुआ था।

मुझे लगता है कि अरविन्द केजरीवाल इस्तीफा नहीं देकर यही स्थिति लाना चाहते हैं। यह सही है कि ऐसा होगा या नहीं अभी नहीं कहा जा सकता है लेकिन कुछ कहने और करने से पहले उसका इंतजार किया जाना चाहिये। उम्मीद का कारण राहुल गांधी का मामला भी है। कल्पना कीजिये कि निचली अदालत से सजा होने और हाईकोर्ट से राहत नहीं मिलने पर राहुल गांधी ने नैतिक आधार पर इस्तीफा दे दिया होता। बाद में उन्हें राहत भले मिली इस्तीफा दे दिया होता तो उनकी सदस्यता बहाल नहीं होती भले सुप्रीम कोर्ट का फैसला नीचे की अदालतों के फैसले से अलग आया। टिप्पणी भी थी। ऐसा ही उद्धव ठाकरे के मामले में हुआ था। सुप्रीम कोर्ट से फैसला उनके पक्ष में आया था लेकिन वे पहले ही इस्तीफा दे चुके थे और उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। आप कह सकते हैं कि वह उनकी राजनीति थी पर मैं यह कह रहा हूं कि इस्तीफा नहीं देने के मायने हैं और हाईकोर्ट के फैसले के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार किया जाना चाहिये।

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ज्यादातर खबरों से ऐसा नहीं लगता है और इस्तीफा अगर भाजपा के दबाव में हुआ हो तो वह जो संदेश देना चाह रही थी वही गया है। यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है कि राज कुमार आनंद को या रिपोर्टर अथवा संपादक को समझ नहीं आया हो। चुनाव के समय इसका अलग महत्व है। इसे संपादकों को तो देखना समझना चाहिये ही उन्हें भी देखना चाहिये जो चुनाव के लिए लेवल प्लेइंग फील्ड सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार हैं। हिन्दी का मेरा अगला अखबार अमर उजाला है। यहां यह खबर लीड है। शीर्षक है, दिल्ली के मंत्री राजकुमार आनंद ने दिया इस्तीफा, पार्टी भी छोड़ी। उपशीर्षक है, आप सरकार को बताया भ्रष्ट, कहा – दलित नेताओं का सम्मान नहीं। इस खबर के पहले पैरे में ही लिखा है, शराब घोटाले में ईडी राजकुमार आनंद से भी पूछताछ कर चुका है। पिछले साल नवंबर में ईडी ने आनंद से जुड़े नौ ठिकानों की तलाशी ली थी। 

पहले पन्ने पर जो छपा है उसमें ईडी का पक्ष होता तो खबर पूरी होती, ईडी का पक्ष नहीं मिला तो लिखा जाना चाहिये था और वही सवाल मंत्री जी से भी पूछा जाना चाहिये था। वंबर में छापे पड़े थे का मतलब नहीं हो सकता है कि जांच पूरी हो गई और वे दूध के धुले साबित हो चुके हैं। जो बताया गया उससे लगता है कि अगला नंबर उनका भी हो सकता था और इस्तीफे का कारण यह भी हो सकता है। उन्होंने कहा भी है, …. मैं अपना नाम भ्रष्टाचारियों के साथ नहीं जोड़ना चाहता। मुझे नहीं लगता कि हमारे पास शासन करने की कोई नैतिक शक्ति बची है। आगे की स्थिति आगे जो होगा उससे तय होगी लेकिन यह तथ्य है कि भाजपा में शामिल होने वालों के खिलाफ जांच बंद हो जाती है या ठंडे बस्ते में रहती है। देखना है, राजकुमार सैनी के मामले में क्या होता है पर खबरों से यही लगता है कि उन्होंने बड़ा आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है जबकि दबाव भी हो सकता है।

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अगर ईडी और इस विषय पर इनसे पूछा गया होता तो दोनों के जवाब से यह समझने में सहायता मिल सकती थी कि उन्होंने आम आदमी पार्टी को गच्चा दिया है, अपनी जान बचाई है या आदर्श राजनीति का उदाहरण दिया है। मुझे लगता है कि पार्टी जब मुश्किल में है तब उसे छोड़ देना ही पर्याप्त नीचता है उसके खिलाफ बोलने का बहुत मतलब नहीं है खासकर तब जब लोग फिर वापस उसी पार्टी में जाते हैं और तब उनका स्वागत किया जाता है। आम आदमी पार्टी ऐसी है कि नहीं, अभी नहीं कहा जा सकता है लेकिन अभी वह मुद्दा भी नहीं है। अदाललों का फैसला कई बार केंद्र सरकार की राजनीति के अनुकूल होता है और यह इसी सरकार के साथ नहीं है। पहले भी हुए हैं। अभी यह ज्यादा खुला और बेशर्म है। इतना कि जज साब पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ तेले हैं। ऐसे में भले अदालत के फैसलों पर टिप्पणी नहीं हो पर खबर तो होगी ही और बताई जानी होगी वरना मंत्री लोग भी झांसे में पार्टी और पद छोड़ने लगेंगे।

अंग्रेजी अखबारों ने शीर्षक में ही ईडी के छापे की जानकारी दी है। इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक ही है, ईडी की जांच का सामना कर रहे दिल्ली के मंत्री ने इस्तीफा दिया, कहा आप रिश्वत में फंसी है, शासन का कोई अधिकार नहीं। एक नागरिक के रूप में इनके दिमाग में यह नहीं आया कि आम आदमी पार्टी को या उन्हें सत्ता में रहने का अधिकार नहीं है तो इलेक्टोरल बांड लाने वाली पार्टी को सत्ता में रहने का अधिकार कैसे हो सकता है। वे उसके खिलाफ कुछ बोलें, उसपर सवाल करें आदि। पर वह सब आज की खबरों में नहीं है। उल्टे उन्होंने कहा है और इंडियन एक्सप्रेस में मुख्य खबर के साथ छपा है कि आम आदमी पार्टी जब सड़कों पर तो उसके ज्यादातर सांसद नहीं दिख रहे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने दिल्ली के मंत्री के इस्तीफे की खबर को पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर लीड बनाया है। आप भ्रष्ट है, पद पर बना नहीं रह सकता : दिल्ली के मंत्री आनंद ने इस्तीफा दिया। इंट्रो है, ईडी के केस का सामना कर रहे हैं, गये साल नवंबर में छापा पड़ा था। द हिन्दू ने भी खबर के साथ ईडी की जांच के तहत होने की सूचना बोल्ड उपशीर्षक से दी है।

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हिन्दुस्तान टाइम्स ने दिल्ली के मंत्री के इस्तीफे की खबर को केजरीवाल के सुप्रीम कोर्ट जाने की खबर के साथ छापा है। इसका शीर्षक है, “नई समस्या : मंत्री आनंद ने इस्तीफा दिया आप के ‘भ्रष्टाचार’ का मुद्दा उठाया”। पहले पन्ने पर जो खबर है उसमें ईडी की जांच में होने की सूचना नहीं है। केजरीवाल के सुप्रीम कोर्ट जाने की खबर का शीर्षक भी अलग अखबारों में दिलचस्प है। उदाहरण के लिए इसका शीर्षक है, केजरीवाल शीर्ष अदालत पहुंचे, लेकिन गिरफ्तारी की चुनौती पर अरजेन्ट सुनवाई नहीं। टाइम्स ऑफ इंडिया में इसी खबर का शीर्षक है, गिरफ्तारी के खिलाफ केजरीवाल सुप्रीम कोर्ट पहुंचे लेकिन सोमवार से पहले सुनवाई नहीं।  द हिन्दू में शीर्षक है, आबकारी नीति मामले में गिरफ्तारी के खिलाफ केजरीवाल की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ‘तत्काल’ सुनवाई करेगी। अंदर खबर में बताया गया है कि मुख्यमंत्री के वकीलों ने कहा कि बहुत संभावना है कि मामले को सुनवाई के लिए सोमवार 15 अप्रैल को सूचीबद्ध किया जाये।

कोलकाता के अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ की लीड आज इसीलिए सभी अखबारों से अलग है। मुख्य शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होता, अदालत में राज्य के लिए दोहरी मार। दोनों मार फ्लैग शीर्षक में है, सीबीआई को संदेशखली की जांच का काम मिला और एनआईए के अफसरों को सुरक्षा मिली। आप जानते हैं कि पश्चिम बंगाल सरकार ने सीबीआई और एनआईए पर केंद्र सरकार के लिए उसके साथ मिलकर काम करने का आरोप लगाया था। एनआईए के एक अधिकारी को पैसे देने और उसे दिल्ली बुला लिये जाने का भी आरोप है। ऐसे में हाईकोर्ट का आदेश अगर राज्य सरकार के खिलाफ है तो वह खबर है और उसे प्रमुखता मिलनी ही चाहिये और खबर यही है।

कहने की जरूरत नहीं है पतंजलि के बाबा रामदेव और बालकृष्ण सुप्रीम कोर्ट में बुरे फंसे हैं और आज की खबर यह भी थी और बाबा के बचाव में सोशल मीडिया में जो चल रहा है वह कम नहीं है। अब लोग कह रहे हैं कि पहले भी विज्ञापनों में गलत दावे किये जाते रहे हैं। पर लोग यह भूल जा रहे हैं कि अगर तब गलत हुआ तो मतलब यह नहीं है कि अब भी गलत होने दिया जाये। यही नहीं, लंबाई बढ़ाने या मुंहासे ठीक करने या रंग गोरा करने के दावे वाले विज्ञापन तथा पतंजलि के विज्ञापनों और दावों में फर्क है, उपयोग के नुकसान हैं जबकि यहां सिर्फ फायदा नहीं हुआ। कार्रवाई उसके खिलाफ भी होनी चाहिये थी पर किसी कारण से नहीं हुई तो बाबा को छूट नहीं दी जा सकती है।

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