डॉ. मुकेश कुमार उपाध्याय-
सामाजिक-राजनीतिक धरातल पर जब-जब वर्ण व्यवस्था, जातीयता, ढोंग, पाखंड और अंधविश्वासों का बोझ बढ़ने लगता है, तब तब लोगों को कबीर के समाजशास्त्रीय उद्बोधन याद आते हैं। कबीर की विचारधारा के पारखी गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर अनिल राय कहते हैं, ‘पिछले 10 सालों से ऐसा ही कठिन समय चल रहा है और इसका समाधान कबीर की वाणी में है।’ कबीर को जानने वालों में प्रोफेसर राय एक विख्यात नाम है। वह जोड़ते हैं, ‘कठिन समय पूरी दुनिया के लिए है।’
यह बात सही है कि कट्टरता दुनिया भर में लगातार बढ़ रही है। विभिन्न देशों में इसे साफ देखा जा सकता है, हालांकि भारत में कट्टरता और इसके परिणामों को लेकर व्यापक मतभेद हैं।
भारत प्रारंभ से ही मतों की शरण स्थली रहा है, इसलिए इसके आचरण में मतभेद का पक्का ठिकाना है। यहां की वैविध्यपूर्ण बहुलता मतभेदों के लिए जगह बनती रही है। दुनिया के समृद्धशाली भूभागों में से एक, इस धरती ने अनेक सभ्यताओं को प्रश्रय दिया और सब ने यहां अपने तरह से जीने की स्वतंत्रता प्राप्त की। मान्यताओं को स्थापित और पोषित- पल्लवित किया। जिसके फलस्वरूप सबको अंगीकार करना भारत की नियति बन गया। विचार, पंथ, जाति, और समुदायों के इस अभयारण्य जैसी मिसाल दुनिया में कहीं नहीं है। यहां कबीर के समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण को भी प्रचुर मात्रा में सम्मान मिला तो भक्ति और अध्यात्म के पक्के रंग वाले सूरदास और रसखान जैसों को भी!
सबको अपने पसंद की विचारधारा से अनुराग है। जो लोग मानते हैं कि सामाजिक-राजनीतिक धरातल पर वर्ण व्यवस्था, जातीयता, ढोंग, पाखंड और अंधविश्वासों का बोझ अधिक हो चला है, उनमें से कई लोग कबीर को याद करते हैं। कबीर की वाणी का वह 5% ऐसे लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है जो सामाजिक ताने-बाने को ठीक करने की कवायद का कीमती हिस्सा रहा है।
फिरोजाबाद के सिरसागंज स्थित राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय और संत कबीर अकादमी लखनऊ के संयुक्त तत्वाधान में हुई राष्ट्रीय संगोष्ठी में कबीर के इसी पांच प्रतिशत ने जोर मारा।
संगोष्ठी के मुख्य वक्ता प्रोफेसर अनिल राय का कहना था कि ‘कबीर की वाणी का 95% जो आत्मा और परमात्मा के बीच के संबंध को जानने और मोक्ष पाने का संदर्भ देता आध्यात्मिक भाव भूमि के रूप में केंद्रीय विषय वस्तु है, बाकी पांच प्रतिशत के आगे बहुत विशाल है लेकिन वर्तमान संदर्भ में अर्थवान नहीं है। वर्तमान संदर्भ में कबीर की कविता के पांच प्रतिशत सामाजिक संदर्भ को विचार प्रक्रिया में रखना अत्यंत प्रासंगिक है क्योंकि आज का समय बड़ा कठिन है, जिसका हल कबीर की समाजशास्त्रीय शिक्षा और उपदेश से ही संभव है।’
प्रो. राय ने कबीर के चिंतन के विविध आयामों पर बेबाकी से राय रखते हुए मुख्य सवाल, जो की बहुत पुराना भी है, कबीर की वाणी का मर्म क्या है! वह भक्त हैं अथवा कवि! उनका आध्यात्मिक विमर्श पहले है या उनका समाजशास्त्रीय विमर्श! पर विभिन्न मान्यताओं को रखा: ‘कबीर ने वर्ण व्यवस्था को लेकर जो सवाल उठाए हैं, पिछले एक दशक में यह कोशिश की गई है कि उनको कांग्रेस की परियोजना का हिस्सा बता दिया गया। यह राजनीति कहां-कहां तक नहीं हस्तक्षेप कर रही है!… कबीर के पुनरुद्धारक आचार्य हजारी प्रसाद को भी इसका ही औजार बता दिया गया…।’
‘… ये वे लोग हैं जो जाति और वर्ण व्यवस्था को लेकर कबीर द्वारा उठाए गए तेजाबी सवालों से आंख नहीं मिला पाते। उनके पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं होता है। कहा जाता है कबीर ने ऐसा कुछ नहीं कहा। लेकिन दुख तो तब होता है जब ‘मगहर मठ’ के मठाधीश विचारदास जैसे लोग भी बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं। मैं जब उनसे पूछता हूं कि कबीर की चर्चा में जाति और वर्ण व्यवस्था की चर्चाएं नहीं हो रही हैं, उसका क्या कारण है! तो वह एक टिप्पणी का उपयोग करते हैं, जो टिप्पणी काशी विश्वविद्यालय के आचार्य प्रोफेसर वासुदेव सिंह ने आगरा में हुई संगोष्ठी में की थी। संगोष्ठी में नामवर सिंह ने कबीर की वाणी के समाजशास्त्रीय पक्ष पर चर्चा की थी। इसके बाद वासुदेव सिंह ने कहा था कि नामवर ने कबीर को पढ़ा तो बहुत है लेकिन समझ नहीं है…।’
इस संबंध में गवर्नमेंट पीजी कॉलेज सिरसागंज की प्राचार्य डॉ. कांति शर्मा एवं हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. आशुतोष राय का कहना था कि भले ही कबीर समग्र का मात्र करीब 5% भाग ही सामाजिक, धार्मिक और जातीय विसंगतियों पर बोलता है लेकिन उतना ही काफी है। कबीर के जितना मुखर और निडर होकर कहने वाला उस दौर में तो कोई था ही नहीं…, बाद में भी ऐसा कहने वाला मुश्किल से ही कोई मिलता है। कबीर किन हालात में बोल रहे थे, ये अत्यंत महत्वपूर्ण है।
वे कहते हैं, जब-जब विसंगतियों का जाल मनुष्यता को उलझाने आएगा, तब-तब कबीर-समग्र का वही अल्पांश जनमानस को उबारने और नई चेतना के संचार के लिए आवश्यक होगा।
दो सत्र में कबीर को लेकर हुए तमाम विमर्श के बाद संगोष्ठी का असली उपसंहार तीसरे सत्र में भजन और पदों के गायन की प्रस्तुतियों ने किया। वाराणसी के ‘ताना-बाना’ समूह के कलाकारों ने नए पुराने वाद्य यंत्रों की संगत पर ‘झीनी झीनी चदरिया…’ और ‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास रे…’ आदि की आनंदपूर्ण प्रस्तुतियों से श्रोताओं को कबीर के सम्मुख ले जाकर खड़ा कर दिया।
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