डॉ एमडी सिंह-
कवि
हैं आनंद कुमार सिंह, जिसने चुपके से न जाने कब अपना नाम बदलकर अथर्वा रख लिया है। शायद वह अपने और अपनी प्रेयसी को दुनिया की निगाहों से बचाए रखना चाहता था। तभी तो उसके इस अलौकिक प्रेम प्रसंग के चुनिंदा पात्र ही साक्षी बन सके हैं। एक अनिंद्य सुंदरी षोडशी कविता यौवन के प्रथम पड़ाव पर ही कब उससे आ चिपकी उसे पता ही नहीं चल सका। फिर तो कब 20 वर्ष बीत गए न कवि को पता चला न उसकी प्रेयसी कविता को। कविता भागती रही पृथ्वी के उद्भव से अंत तक, ग्रहों और आकाशगंगाओं का भ्रमण करती रही, कवि यायावर बना पीछे पीछे खिंचता रहा तंद्रागामी हो।
500 पृष्ठों में फैला यह कोई खंड काव्य नहीं अपितु दुनिया की संभवतः सबसे बड़ी एवं लौकिक-पारलौकिक सीमाओं को लांघती, अत्यंत रहस्यमयी एक ही कविता है। यदि ध्यान से इस कविता को पढ़े तो पाठक या तो सम्मोहित हो शब्दपाश में बंध जाएगा अथवा आखेटित हो धराशाई होते-होते बचेगा। सच पूछिए तो हजारों अबूझ शब्दों का पिटारा लिए यह कवितां प्रथम दृष्ट्या कवि के शब्द सामर्थ्य की प्रदर्शन प्रतीत होगी। किंतु जब हम उन शब्दों की अर्थवतता से गुजरेंगे तो चौकें बिना नहीं रह पाएंगे। कवि तो अपनी ओर से कुछ कर ही नहीं रहा है, वह तो कविता के सम्मोहन जाल में फंसा, प्रेम पगा, छेनी हथौड़ी लेकर जिधर कविता ले जा रही है पहाड़ तोड़ रास्ता बनाने में लगा है,बावरा। कविता को कवि ने खंंडो में नहीं बांटा बल्कि कविता ने ही कवि को आनंदित कर अपने 16 श्रृंगारों में बिखेर दिया है। वह बवला तो वही दुहरा रहा है जो कविता गा रही है।
अथर्वा ब्रह्मा का मानस पुत्र है जिसे ब्रह्मा ने नए मनुअस्तर के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी है। वही कविता का प्रथम जनक भी है। अपनी ही कृति पर मोहित कवि भी है और उसकी आत्मा भी। अथर्वा का ही मानस पुत्र है प्रोफेसर आनंद कुमार जो बहुत ही चतुराई से यह कहता हुआ कि ‘मैंने नहीं रचा इस कविता को’ स्वयं को न्योछावर कर देता है अपनी ही कविता पर। आनंदवल्ली आनंद की ही आत्मकथा है जिसमें उसने स्वयं को सजाया संवारा है अपनी प्रेयसी कविता के लिए बड़े ही सम्मोहक अंदाज में। अथर्वा अपनी मोहिनी कविता का बखान करने अपने शिष्यों के साथ उसे लेकर कविता के ग्रह तातीनियम पर जाता है और ब्राह्मडीय कवियों के बीच अपने को सर्वोपरि सिद्ध करता है।
मनुअस्तर की घटनाओं और इतिहास को 16 पांडुलिपियों में दर्ज कर 16 मंजूषाओं में सुरक्षित रखा गया है।इनमे से 15 को तो विद्वानों ने पा लिया है। जिनमें विराजती है आनंद की कविता सदेह किंतु उसे खोडषी की आत्मा तो 16वीं पांडुलिपि में है जो रहस्य में ढंग से गायब हो गई है। या सच कहा जाय तो स्वयं कवि ने अपनी रूपसी को चुरा कर एक रहस्य लोक का निर्माण किया है, जिसे ढूंढने और पाने की लालसा लिए विश्व भर के खोजी निकल पड़े हैं। कवि ने प्रत्येक पांडुलिपि का परिचय एक लघु कथा के रूप में बहुत ही सुगढ़ ढंग से प्रस्तुत किया है जिससे होकर उसकी कविता आगामी पांडुलिपि में प्रवेश करती है। किंतु मजे की बात यह है की कथा और कविता संयुक्त होते हुए भी अपना अलग अस्तित्व बनाए रखने में सफल रहते और एक वन का निर्माण करते हैं, जो सघन से सघनतर होता चला गया है। कवि हठात कह पड़ता है “मैं वही वन हूं”। मुझे यह कहने में थोड़ा भी संकोच नहीं हो रहा कि पाठक उस वन में खो जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
एक बार मैं फिर कहूंगा कि कवि इस कविता के कठोर शब्दावली एवं गूढ़ दर्शन के लिए स्वयं जिम्मेदार नहीं है। जिम्मेदार है उसकी सहज आत्मलीनता इस कविता की आत्मा के साथ। वह मात्र एक पतंग है जिसकी डोर बहुत चतुराई और पारंगतता के साथ इस कविता ने पकड़ रखी है। इस कविता के साथ कथाओं की संगत कवि को दम लेने के लिए बन पाई है। इस कविता को पढ़ने के लिए इसके साथ एकात्म होना पड़ेगा। फिर न गूढ़ता रह जाएगी ना शब्दों की कठोरता, तिलिस्म पर्त दर पर्त खुलता चला जाएगा और पाठक उसमें से निकलने को मना कर देगा। मैंने एक बार प्रोफेसर आनंद से कहा था शब्दों की चिंता ना करें वे स्वतः अवतरित हुए हैं वे स्वयं अपना रहस्य खोलेंगे। ज्ञान विज्ञान के अनेक सतहों पर कुलाचें भारती यह कविता साहित्य की अनेक रूपों को सहजता के साथ धारण करते हुए दिखती है। प्रागऐतिहासिक, प्राचीन, मध्ययुगीन और वर्तमान आधुनिक इतिहास को पन्ना दर पन्ना समेटे यह एक इतिहास कथा सी दिखती है, तो कभी दुनिया का भ्रमण करते किसी महा यायावर की संगिनी सी, या फिर किसी गहरे रहस्य को ढूंढने निकले दुनिया भर के खोजियों की रहस्यमय रोचक स्पर्धा प्रतीत होती है।
इस कविता को पढ़कर कम से कम एक बात तो पक्की हो जाती है कि कुछ कविताएं जनित नहीं अवतरित होती हैं। यह कविता भी उनमें से एक है जो अपना अस्तित्व स्वयं निर्मित करती हैं और अपना रचनाकार भी स्वयं चुनती हैं। तथा अपने अनंत जीवन काल में अनेकानेक कवियों को कृत-कृत करती चलती हैं। यही कारण है कि ये किसी एक अथर्वा अथवा आनंद कुमार की लगतीं ही नहीं। यह भाषा और भूमि से मुक्त हो ब्रह्मांडीय चेतस पुरुषों के मनो- भूमि को वेदों की ऋचाओं की तरह स्वयं चुनकर व्यास बनाते चलती हैं और उगाती जाती हैं उपनिषदों का वन। आनंद की अथर्वा भी वही वन है। कल को यह मुनि देवेंद्र की भी होगी, गोरसिया की भी और किसी काफ्का और पैटर्शन की भी। किंतु यह इस मनुअस्तर इस देश काल में मूलतः कही जाएगी आनंद कुमार की ही, वाल्मीकि के रामायण की तरह। हां यह जरूर कहूंगा की बाल्मीकि रामायण की तरह यह भी सबके लिए नहीं है, आनंद ने उछाल दिया है व्योम में इसे कोई ना कोई तुलसी भी मिल जाएगा सर्व सुलभ कराने के लिए।
अनेकानेक संस्कृतियों, द्वीपों, महाद्वीपों, पर्वत, पठारों, घास के मैदान, रेगिस्तानों, समुद्रों, नदियों, तालाब, कूओं,बावलियों, वनों, उपवनों, ग्रह, उपग्रह, आकाशगंगाओं, विचारों विचारकों, बहुधर्मी देवी-देवताओं, युद्ध एवं प्रेम कथाओं, मनुष्यों, गंधर्वों, राक्षसों की जीवन गाथाओं, ऋषि-मुनियों, महात्माओं की भूमि, कवियों की प्रथा, राजा-रजवाणों के महल और जनसाधारण के संघर्ष एवं व्यथाओं अणुओं- परमाणुओं, प्रकाश और अंधकारों, निर्माण और विस्फोटों इत्यादि घटित-अघटित सबको सहेजे 16 मंजूषाओं में बंद यह पांडुलिपि किस ग्रह की, किस जम्बूद्वीप की, किस देश की, किस बुद्ध, किस अरविंद, किस ह्वेेसांग, किस वास्कोडिगामा की है इस बात की चर्चा चलती रहेगी। अनेकानेक तक्षशिलाएं इसको पढ़ती-पढ़ाती रहेंगी।
नहीं-नहीं मैं इसका महिमामंडन नहीं कर रहा। इसी ने मुझे फंसा लिया है अपने रूप जाल में। कल यह मुझसे अपना भोजपुरी पोशाक बनवाकर लौट जाएगी आनंद कुमार के पास। जिसने इसकी आत्मा को चुरा लिया है। कल मैं यदि इस सुदर्शनी के लिए दर-दर यह विरह-गीत गाता फिरूं कि-
बोलै ना मोसे देखि मुह बिचकावै
जबुन भइल काजानी लगे ना आवै
डॉ एम डी सिंह ग़ाज़ीपुर ज़िले के जाने माने होमियोपैथिक डाक्टर हैं.