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साहित्य

श्रद्धांजलि : बच्चन सिंह और खुरदरी चट्टानों की यादें

खुरदरी चट्टान से जीवन पर / आशा के बादल बरसे जरूर हैं। पर नहीं उगा सके / सुख की एक हरी कोपल भी। और… / मैं बांझ चट्टान की तरह / चुपचाप अड़ा रहा, खड़ा रहा। अपने से ही लड़ता रहा / जीत-हार का फैसला किए बिना / मजबूरी की राह चलता रहा…।

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खुरदरी चट्टान से जीवन पर / आशा के बादल बरसे जरूर हैं। पर नहीं उगा सके / सुख की एक हरी कोपल भी। और… / मैं बांझ चट्टान की तरह / चुपचाप अड़ा रहा, खड़ा रहा। अपने से ही लड़ता रहा / जीत-हार का फैसला किए बिना / मजबूरी की राह चलता रहा…।

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देश के मूर्धन्य पत्रकार और संपादक नरेंद्र मोहनजी की यह कविता दैनिक जागरण के साप्ताहिक परिशिष्ट में 18 अगस्त 1991 को छपी थी। तराई के सिख आतंकवाद को इंगित करते हुए लिखी गई इस कविता के साथ छपी थी मेरी लीड स्टोरी। शीर्षक था- ‘तराई में लहलहाई आतंक की फसल।’

नरेंद्र मोहनजी की कविता मजबूरी की राह नहीं, मेरी जिंदगी की राह बनी..। मेरे जीवन की प्रेरणा बनी…, आस्था बनी…, जिसमें हकीकत का रंग भरा हमारे गुरु, मार्गदर्शक, यशस्वी पत्रकार और संपादक बच्चन सिंहजी ने। यह बात उन दिनों की है जब मैं दैनिक जागरण के बरेली संस्करण में उनके सानिध्य में आतंकवाद के खिलाफ, भ्रष्टाचार के खिलाफ, तमाम बिद्रुपों के खिलाफ और समाज की पथरीली चट्टानों से फौलादी इरादों के साथ जंग लड़ने की तरकीब सीख रहा था…।

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बुलंद हौसले के पीछे मेरी प्रेरणा और ताकत थे बच्चन सिंहजी। विषय कोई भी हो, लिखने से न कभी रोका, न टोका, बल्कि हर समय खुरदरी चट्टानों पर पथरचट्टी घास उगाने की प्रेरणा देते रहे…। कभी मर्यादा के पहाड़ों पर चढ़ना सिखाया तो कभी जीवन की मजबूरियों का रंग-ढंग समझाया। उनके साथ काम करते हुए अंधेरे बहुत थोपे गए, लेकिन मन का उत्साह, हर स्थिति से मुकाबला करने का तेवर और आगे बढ़ने का हौसला कभी दफ्न नहीं हुआ। हमेशा उमंगों के निर्झर झरनों की तरह बहता रहा। ऊबड़-खाबड़ जिंदगी के बावजूद बारिश के बुलबुलों की तरह सपनों को फूटने नहीं दिया। जिंदगी की पथरीली ढलान पर आशा के बादलों को बरसाने की ताकत किसी और ने नहीं, बच्चन सिंहजी ने ही दी। 

यूं सीखा हौसले का जज्बाः उत्तर प्रदेश के तराई इलाके में हिंसा और सिख आतंकवाद का नया दौर शुरू हुआ तो बच्चन सिंह ने गोला-बारुदों, असाल्ट रायफलों और बमों से खून की होली खेलने वाले आतंकवादियों से लड़ने के लिए मुझे अपनी टीम का कमांडर चुना। यहां बताना चाहता हूं कि वाराणसी से दैनिक जागरण के लखनऊ संस्करण में इंट्री हमें बच्चन सिंहजी ने ही दिलाई थी। दैनिक जागरण के बरेली संस्करण के संपादक बने तो उन्होंने प्रधान संपादक नरेंद्र मोहनजी से सबसे पहले मुझे मांगा। लखनऊ के संपादक विनोद शुक्लाजी की नजर में मेरी इमेज काफी अच्छी थी। वह नहीं चाहते थे कि हम लखनऊ छोड़ें। मगर जब बरेली संस्करण को कामयाबी के शिखर पर पहुंचाने का जिम्मा खुद उन्हें सौंपा गया तो उन्होंने सबसे पहले मुझे ही बरेली बुलाया।

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एक अगस्त 1989 को बरेली पहुंचा। खुरदरी और विशाल चट्टानों को पिघलाने के लिए…। शिलाजीत बनाने के लिए…। ऐसा वटवृक्ष लगाने के लिए जो न कभी झुके, न कभी टूटे…। बरेली में बच्चन सिंहजी से जो पहला पाठ सीखा वह था काई जमी और फिसलनभरी चट्टानों की ढलानों पर जांबाज कमांडो की तरह डटे रहने की। कई मौके आए, कई मोड़ आए-हर बार मुझे ही आजमाया गया।

लखनऊ से बरेली पहुंचते ही बदायूं के दंगे की कवरेज का जिम्मा मुझे सौंपा गया। पास हुआ तो बरेली के दंगे में लगा दिया गया। तराई में पंजाब का आतंकवाद छलका तो यथार्थ के कब्रिस्तान में मर्यादा के पहाड़ के बीच से रास्ता निकालने का दायित्व मुझे ही मिला। पत्रकारिता के आसमां में उन्मुक्त पंक्षी की तरह मैं भी उड़ना चाहता था। बुलंद हौसले के साथ जीवन की मजबूरियों को…, अंधेरे के घटाटोप को… छलनी करते हुए आगे बढ़ाता गया। इस दौरान न कभी मर्यादा के पहाड़ को लांघा और न ही पथरीले रास्तों पर फिसला। सपने मन को भाते रहे। बच्चन सिंहजी सिखाते रहे। तरक्की की कोपलें फूंटती रहीं। सिर्फ दिलेरी ही नहीं, हौसला ही नहीं, बोल-चाल की भाषा भी उनसे ही सीखी। पत्रकारिता में बेहद कठिन और संस्कृतनिष्ठ शब्दों की मठाधीशी से परहेज करने का गुर उनसे ही सीखा।

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अंगारों पर चलने की सिखाई कलाः तराई का सिख आतंकवाद यथार्थ का कब्रिस्तान था। इस कब्रिस्तान में हमने अनगिनत रिपोटर्स लिखी। इस दरम्यान बच्चन सिंहजी ने मुझे दो ऐसे टास्क दिए, जिसे मैं कभी नहीं भुला पाया।

16 अक्टूबर 1991 की रात रुद्रपुर (तब नैनीताल जिले की नगर पालिका थी) में आतंकवादियों ने रात 11.10 बजे रम्पुरा रोड स्थित रामलीला मैदान में ब्लास्ट किया। दर्जनों दर्शक मौके पर मारे गए और सैकड़ों घायल हो गए। तमाम लोगों के शरीर के क्षत-विक्षत अंग सौ-सौ मीटर दूर जा गिरे। घायलों को हल्द्वानी, किच्छा, बाजपुर और बरेली भेजा गया। मुसीबत में फंसे वे लोग जिन्हें रुद्रपुर अस्पताल ले जाया गया। आतंकवादियों ने वहां भी शक्तिशाली बम लगा रखा था। लोगों का हुजूम घायलों को लेकर पहुंचा तो वहां भी ब्लास्ट हो गया। दर्जनों लोग मौके मारे गए।

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रात करीब 11.20 बजे खबर बरेली पहुंची तो बच्चन सिंह ने फौरन गाड़ी बुलाई और मुझे फोटोग्राफर के साथ मौके पर रवाना कर दिया। उन दिनों न तो मोबाइल का साधन था, न तार वाला फोन सामान्य रूप से उपलब्ध था। हम रात में ही करीब 72 किमी दूर ऊबड़-खाबड़ रास्ते से रुद्रपुर पहुंचे। घटना की कवरेज की। वहां से लौटे और सिटी संस्करण में हमारी रपटें छपीं। रुद्रपुर कांड में तब तक 70 लोगों की मौत हो चुकी थी। खबरों के अलावा दो पेज तो घटना की तस्वीरें ही छपीं।

अगले दिन 17 अक्टूबर की सुबह नाश्ता भी नहीं कर पाया था, तभी संपादक बच्चन सिंहजी का आदेश मिला- फोटोग्राफर के साथ तत्काल रुद्रपुर पहुंचो। 24 घंटे से जगे थे। भूख से बेहाल थे। बगैर समय गंवाए निकल पड़े टास्क पर। दोबारा साथ में थे हमारे वरिष्ठ साथी शिव प्रसाद सिंहजी (मौजूदा समय में हिन्दुस्तान के गोरखपुर संस्करण में वरिष्ठ समाचार संपादक)। नेकदिल, बेहद संजीदा, दूसरों के दुख-दर्द पर आंसू बहाने वाले। हम रुद्रपुर पहुंचे तो लोगों के अंग-भंग शवों को देख हम सभी की आंखें छलछला उठीं। शाम को हम कवरेज करके लौटे। मेरी रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने उस महिला को गिरफ्तार कर लिया, जिसने आतंकवादियों को अपने घर में पनाह दी थी। 

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लड़ गए मौत सेः दूसरी घटना एक अगस्त 1992 की है। पीलीभीत जिले के सुदूरवर्ती गढ़ा रेंज के घनघोर जंगल में आतंकवादियों ने 29 ग्रामीणों का अपहरण कर लिया था। ये ग्रामीण उन इलाकों में पहुंच गए थे, जहां आतंकवादियों ने किसी भी हालत में उस तरफ न आने का फतवा जारी कर रखा था। कटरुआ (एक पेड़ की जड़ में निकलने वाला फल) निकालने के चक्कर में भोले-भाले ग्रामीण खौफनाक इलाके की ओर चले गए। गढ़ा रेंज के जंगल से होकर गुजरने वाली सकरिया नदी के पास भिंडरवाला टाइगर फोर्स का मुखिया सुखदेव सिंह उर्फ छोटा छीना ट्रेनिंग कैंप चलाता था। इस जंगल में पीलीभीत जिला पुलिस जाने के बारे में सोचती तक नहीं थी। पीलीभीत के इस जंगल में पुलिस का नहीं, कुख्यात आतंकवादी सुखदेव की समानांतर सरकार चलती थी। उसका राज चलता था और हुक्म (फतवा) भी चलता था।

29 ग्रामीणों के गायब होनों की खबर पुलिस के लिए अबूझ पहेली की तरह थी। तीन अगस्त 1992 को संपादक बच्चन सिंहजी ने मुझे गढ़ा रेंज जाने का निर्देश दिया। मेरे साथ था मेरा सहयोगी अनिल गौरव (अब दुनिया में नहीं)। क्राइम रिपोर्टिंग वही करता था। पगडंडियों के सहारे घंटों हिचकोले खाते हुए हम जंगल में पहुंचे। तक तक रात हो चुकी थी। हर तरफ घुप अंधेरा था। जंगल में अगर कुछ था तो सिर्फ पेड़-पौधे और झाड़ियां। हम गढ़ा रेंज के जंगल में घुस तो गए, लेकिन वापस आने का रास्ता ही नहीं सूझा। रुक-रुककर हो रही बारिश के बीच भूखे-प्यासे जंगल में पड़े रहे। हमारा कोई लोकेशन नहीं मिला तो बच्चन सिंहजी ने वायरलेस से सूचना प्रसारित करा दी कि आतंकवादियों ने हम सभी का अपहरण कर लिया है। मामला पत्रकारों का था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हड़कंप मच गया। समूचे तराई इलाके में चप्पे-चप्पे पर वाहनों की तलाशी शुरू हो गई। बच्चन सिंह और हमारे साथी चिंता में डूब गए।

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उधर, जंगल में भूख से हम सभी की अतड़ियां सूखती जा रही थीं। लाचारी में पेड़ों की पत्तियां खानी पड़ी। गड्ढे में इकट्ठा बारिश के पानी से प्यास बुझानी पड़ी। जंगल में सांपों का जमघट था। जंगली जानवर थे। रुह कंपा देने वाली कीट-पतंगों की डरावनी आवाजें थीं। जंगल में हम सभी गाड़ी में पड़े रहे। सिकुड़े हुए और बेदम। आधी रात में बारिश थमी और आसमां से चांद भी बाहर निकला। हमने हिम्मत की और करीब आधे घंटे की मेहनत के बाद सीताफल का एक पेड़ ढूंढने में सफल हो गए। सीताफल के फलों ने हमें थोड़ी ताजगी दी।

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तड़के आसमान में चील और गिद्धों को मंडराते हुए पाया तो उन्हें देखते हुए आगे बढ़े।  सकरिया नदी के पास पहुंचे तो देखा कि ग्रामीणों की लाशें पानी में फूलकर उतरा रही हैं। दूर-दूर तक बदबू फैली थी। पास में आतंकवादियों के बंकर और वाच टावर थे। शायद घटना के बाद आतंकवादी अपना ट्रेनिंग कैंप छोड़कर जा चुके थे। काफी जद्दोजहद के बाद सुबह करीब दस बजे भटकते हुए जंगल से बाहर निकले। हम समीप के एक पुलिस बूथ पर पहुंचे। सुरक्षाकर्मियों को मारे गए ग्रामीणों के बारे में जानकारी दी। साथ ही वायरलेस से अपने कुशलक्षेम के बारे में बरेली सूचना पहुंचाई।

करीब आठ घंटे बाद हजारों जवानों के साथ पुलिस और प्रशासनिक अफसर हमारी मदद से सकरिया नदी के पास पहुंच सके। बाद में सभी 29 शवों को ट्रैक्टर पर भूसे की तरह लादकर पीलीभीत लाया गया। अगले दिन लाशों को कफन नसीब हुआ।

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दोनों घटनाओं ने मुझे खुरदरी चट्टानों से टकराने की ताकत दी। यह ताकत, यह हौसला, जीवन की कठोर सच्चाइयों की पटकथा लिखने का हुनर सबकुछ संपादक बच्चन सिंहजी से ही सीखा। मुझे गर्व है कि वे मेरे ऐसे मार्गदर्शक बने, जिन्होंने मुझे खतरों से लड़ने और निडर होकर सच लिखने की ताकत दी, हौसला दिया। उनके दिखाए पथ पर मैं अनवरत आगे बढ़ता जा रहा हूं। मेरी कोशिश है कि उनके सपनों को…, उनकी उम्मीदों को…, उनके आदर्शों को… कभी दाग न लगे। संपादक बच्चन सिंहजी मेरे प्रेरणा पहले भी थे और कल भी रहेंगे।

लेखक विजय विनीत जनसंदेश टाइम्स के वाराणसी संस्करण में समाचार संपादक हैं।

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मूल खबर…

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