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सियासत

इस IPS ने गर्लफ्रेंड का साथ ना छोड़ा, दो करोड़ दहेज से मुंह फेर लिया

Amitabh Thakur

एक युवा आईपीएस अफसर की सोच ने हम सबका दिल जीत लिया : पिछले दिनों मेरी मुलाकात एक नए, अविवाहित आईपीएस अधिकारी से हुई. बातचीत के क्रम में उनसे पूछ बैठा- ‘शादी हो गयी?’ उत्तर मिला- ‘नहीं, अभी नहीं’. मैं यूँ ही आगे बढ़ा- ‘क्यों, कब तक शादी होनी है?’. उनका जवाब- ‘अभी तीन साल नहीं, वर्ष 2014 में शादी होगी.’

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इतना अधिक सटीक और नपा-तुला उत्तर सुन मेरा परेशान होना लाजमी था- ‘आखिर क्या बात है कि यह लड़का एकदम गिन कर साल बता रहा है?’. मैंने मन में सोचा, और फिर पूछ ही लिया- ‘क्यों, वर्ष 2014 में ही क्यों?’ वह अधिकारी झिझका नहीं, बोला- ‘सर, मेरी एक गर्लफ्रेंड है, जिससे ही मैं शादी करूँगा. अभी वह बाहर आर्किटेक्ट की पढाई कर रही है. इसमें तीन साल लगेंगे. तब तक मैं भी व्यवस्थित हो जाऊँगा.’ इस पर बगल में बैठी नूतन बोल पड़ीं- ‘अब आपको क्या व्यवस्थित होना है. आप तो आईपीएस हो ही गए हैं’.

मेरे दिमाग में समाजशास्त्रीय प्रश्न घुमड़ने लगे- ‘अच्छा यह बताएं, यदि आप की लव मैरेज नहीं हो रही होती तो आपकी जाति और आपके इलाके के हिसाब से आपको लगभग कितना दहेज मिलता?’ उस अफसर ने तुरंत जवाब दिया- ‘सर, मुझे जो आखिरी ऑफर मिला था वह ठीक दो करोड़ का था. पर मैंने वह ऑफर इसीलिए ठुकरा दिया क्योंकि मुझे अपनी गर्लफ्रेंड से ही शादी करनी थी.’ इसके आगे उसने कहा- ‘लेकिन सर, ऐसा बहुत लोग करते हैं कि आईपीएस और आईएएस बनने के पहले तो उनकी गर्लफ्रेंड रहा करती हैं पर इन नौकरियों में आ कर वे पहले का साफ़ भूल जाते हैं और उस गर्लफ्रेंड को पहचानने से इनकार कर देते हैं. मैं ऐसे लोगों में नहीं हूँ.’

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मुझे उसकी बात बहुत अच्छी लगी और साथ में खुशी भी हुई कि वह आदमी दो करोड़ का खुला ऑफर अपनी प्रेमिका के लिए ठुकरा रहा है. मैंने सोचा कि वास्तव में अब ऐसे लोगों की संख्या दिनोदिन घटती ही जा रही होगी, कम से कम उस युवा आईपीएस अधिकारी की बात से तो ऐसा ही लग रहा था.

मैंने उससे पूछा- “तो आज कल आईपीएस अधिकारियों का दहेज किस रेट पर चल रहा है?” युवा साथी का उत्तर था- “सर, वैसे तो हर जगह रेट बहुत हाई है पर सबसे अधिक दहेज आंध्र प्रदेश में चलता है. यहाँ तो कुछ मामलों में बीस-पच्चीस करोड़ तक बात चली जाती है.” इसके बाद उन्होंने आगे कहा- “पर अभी भी कई अरेंज मैरेज ऐसी होती हैं जिनमे दहेज नहीं चलता. यह खास कर मजबूत राजनैतिक परिवारों तथा बड़ी इंडस्ट्रियल फैमिली की लड़की के मामलों में होता है. शायद ऐसे संबंधों में यह भरोसा रहता है कि शादी से मिलने वाला लाभ एक बार में नहीं मिल कर पूरे जीवन भर लगातार मिलता रहेगा.”

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मैंने पूछा- “और लगभग कितने अफसर खुद से शादी करते होंगे?” युवा साथी का जवाब था- “दस में से एक समझ लीजिए. दरअसल जैसा मैंने पहले बताया बहुत सारे लड़के आईपीएस अफसर बनते ही पहले की सारी बातें भूल जाते हैं जिसमे गर्लफ्रेंड भी शामिल होती हैं और वे अरेंज मैरेज की बात सोचने लगते हैं.” मेरा आखिरी सवाल था- “और महिला अफसरों की शादी? क्या इसमें भी दहेज चलता है?” उस अफसर का उत्तर था- “नहीं, मेरी जानकारी में बिलकुल नहीं.”

जब यह युवा अफसर अपनी बात बता रहे थे तो मुझे लगभग बीस साल पहले का अपना ज़माना याद आ गया. मुझे लगा कि शायद इन बीस सालों में कुछ नहीं बदला है, बदला है तो सिर्फ दहेज का दर. शायद इसका एक कारण महंगाई हो क्योंकि इन बीस सालों में रुपये की कीमत भी तो बहुत कम हुई है. जब मैंने नौकरी शुरू की, मेरी शुरुआती तनख्वाह चार हज़ार रुपये थी, आज की शुरुआती तनख्वाह शायद बीस हज़ार हो.

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वैसे भी तनख्वाह का कोई मायने तो होता नहीं, कोई भी लड़की का पिता अपनी लड़की के लिए आईपीएस लड़का खोजते समय उसके सैलेरी को ध्यान में नहीं रखता. क्योंकि यदि सिर्फ किसी आईपीएस अफसर का वेतन ध्यान में रखा जाए और उसकी संभावित उपरी आमदनी की ओर ध्यान नहीं दिया जाए तो आज बीस साल की नौकरी के बाद मेरी जो अस्सी हज़ार के करीब तनख्वाह है उसके हिसाब से पूरे पैंतीस साल की औसत सैलेरी हुई करीब साढे तीन से चार करोड़. क्या दुनिया में कोई भी जुआरी जिंदगी भर के साढे तीन करोड़ की कमाई के लिए एक मुश्त दो करोड़ का दांव लगायेगा, बीस-पच्चीस करोड़ तो बहुत बड़ी बात है?

हाँ, मुझे अच्छी तरह याद है कि जब हम नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद में थे तब भी मोटे-मोटे अंकल मोटी-मोटी थैलियाँ खोले वहाँ शिकार की तलाश में आते थे. एक दूसरे के बहाने हम लोगों को भी अच्छे रेस्तरां में बढ़िया खाना खाने का मौका मिलता रहता. यदि उस समय से कोई चीज़ बदली हुई दिखती है तो यह कि जहां उस समय मुफ्त में अपनी लड़कियों की शादियों का हक सिर्फ वरिष्ठ आईएएस और आईपीएस अफसरों को होता था, इस उम्मीद में कि वे जीवन भर अपने दामाद का कैरियर देखते रहेंगे, वहीँ अब शायद यह अधिकार राजनेताओं और इंडस्ट्रियल लोगों को भी हो गया है. शायद यह समाज में आ रहे किसी व्यापक बदलाव का सूचक हो.

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“अति सर्वत्र वर्जयेत” ऐसा हमारे शास्त्रों में कहा गया है और यद्यपि मैं शास्त्रों की ज्यादातर बातों से दूर ही रहता हूँ पर यहाँ यह शब्द अपने फायदे का देखते हुए इसका अनुपालन करूँगा और अपनी स्वयं की शादी के विषय में अधिक सत्यतापूर्वक बखान नहीं करूँगा, क्योंकि हिंदी में भी एक चर्चित कहावत है- “आ बैल, मुझे मार.”  मैं किसी भी बैल को आ कर मुझे मारने का कत्तई कोई अवसर नहीं देना चाहता. अतः इस सन्दर्भ में बस इतना ही कहूँगा कि मेरी भी अरेंज मैरेज थी.

शायद एक कारण यह रहा हो कि शादी के समय मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं थी, दूसरा यह कि बहुत सारे नवयुवकों की तरह मैं भी अपने परिजनों के इतने अधिक प्रभाव में था कि उनकी बातों की अवहेलना की बात सोच भी नहीं सकता था. यह भी कहूँगा कि नूतन का परिवार मेरे परिवार से काफी संपन्न था किन्तु यह मेरा सौभाग्य रहा कि वह ऐसी पत्नी मिली जो बिलकुल जमीन से जुडी हुई थी. तभी तो जो औरत शादी के पहले कभी कार के नीचे नहीं चली थी वह मेरे साथ स्कूटर से लेकर बस तक का सफर करने को सहर्ष तैयार रही. पर जो मूल प्रश्न है वह तो अपनी जगह यथावत है कि उस अवस्था में मुझसे जिस प्रकार की दृढ़ता अथवा व्यक्तित्व की आभा की आवश्यकता थी, मैं उसमे पूर्णतया असफल रहा.

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इस लिहाज से मुझे अधिक भाषण देने का अधिकार तो नहीं है पर कहते हैं कि यदि सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहा जाता. मैंने तमाम अनुभवों से यह महसूस किया कि शायद दहेज भारतीय समाज के सबसे बड़े रोगों में से एक है. यह ना सिर्फ भ्रष्टाचार के प्रमुख कारकों में है बल्कि कई सारे परिवारों को बड़े रोग की तरह जकड़े रहता है. मैंने अपने आप को जाति प्रथा से बाहर होने और “कास्टलेस” होने का जो कार्य किया उसके पीछे यह भी एक महत्वपूर्ण कारक था क्योंकि मैं यह मानता हूँ कि जाति का बंधन दहेज के कीटाणुओं के लिए एक बहुत मुफीद माहौल का सृजन करता है.

मैंने और नूतन ने इसी के दृष्टिगत यह भी निर्णय लिया कि भले ही मेरी पुत्री तनया और मेरा पुत्र आदित्य जीवनपर्यंत कुंवारे रह जाएँ पर मैं उनका अरेंज मैरेज नहीं खोजूंगा, ना करूँगा. दहेज लेने अथवा देने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं मानता हूँ कि इस श्रृंखला और इस विचार-परम्परा को लगातार आगे बढाने की जरूरत है ताकि बीस हज़ार पाने वाले को बीस करोड़ रुपये दहेज में देने की स्थिति से समाज को छुटकारा मिल सके.

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लेखक अमिताभ ठाकुर उत्तर प्रदेश के जाने माने और वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हैं.

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