Virendra Kumar-
बौद्धिक पत्रकार चंद्रभूषण की पुस्तक ‘ भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ जब फरवरी की 2 तारीख को अमेजॉन के मार्फ़त हासिल हुई तो मेरे जिज्ञासु मन को एक झटका-सा लगा। अव्वल तो इसलिए कि भारतीय इतिहास के सबसे बड़े सवाल से मुठभेड़ करने की घोषणा अपने शीर्षक में ही कर देनेवाली इस पुस्तक के बारे में कतिपय मित्रों से जान सुनकर मन में विराट-बोध की जो प्रत्याशा जगी थी, वह पुस्तक के रूपाकर को देखते ही दरक-सी गई। पूरी तरह कवर्ड पुस्तक हथेली पर चढ़कर तो और भी बेवज़न लगी।
दूसरी वजह यह थी कि मैं लेखक चंद्रभूषण का लिखा हुआ पढ़ता रहा हूं। मेरी नज़र में साहित्य, गणित, दर्शन, विज्ञान, राजनीति, संस्कृति सदृश ज्ञान की कई दूसरी विधाओं में लगातार सार्थक लेखन करनेवाले चंद्रभूषण बड़े विज़न और सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि के लेखक-पत्रकार हैं। उनके लेखन का कैनवस बहुत विराट है। मसलन, वे धरती के बारे में बताते हुए ब्रह्मांड को दर्पण बना लेते हैं; इतिहास को खंगालते हुए मिथक, गल्प व किंवदंतियों का सत्व निचोड़कर उन्हें जीवंत संदर्भ स्रोत बना लेते हैं, आदि आदि। नतीजतन, मन में उम्मीद बंधी थी कि बुद्ध के धर्म का भारत से ग़ायब हो जाने अथवा कर दिए जाने की चर्चा वे कम से कम हज़ार पृष्ठों में तो अवश्य ही करेंगे। खैर, इस निजी प्रलाप को यहीं विराम देता हूं और मूल विषय यानी किताब की चर्चा पर लौटता हूं।
शुरू में ही यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि चूंकि इतिहास, साहित्य और दर्शन की बारीकियों को समझ सकने की काबिलियत मुझमें नहीं है, इसलिए मेरी यह टिप्पणी समालोचना के प्रचलित और प्रतिष्ठित मानकों पर खरी नहीं उतरेगी। मेरी कोशिश यहां सिर्फ उन बौद्धिक / आध्यात्मिक प्रभावों को सूचीबद्ध कर देने की है जो पुस्तक पढ़ते समय मेरे मन में उथलपुथल मचाते रहे।
सबसे पहले इस पुस्तक के शिल्प और गठन पर एक संक्षिप्त व त्वरित प्रतिक्रिया। भारतीय इतिहास के सबसे बड़े सवाल के जवाब तलाशती यह पुस्तक जिस तरह अकादमिक इतिहास-लेखन की सुपरिचित परंपरा में इतिहास-लेखन नहीं है; वैसे ही यह कोई काल्पनिक साहित्यिक रचना या यात्रा-वृतांत भी नहीं है। क्या नाम दूं इस शिल्प को? छोड़िए नाम को, लेकिन इस पुस्तक का शिल्प देखकर मुझे दो अन्य पुस्तकों का बरबस स्मरण हो आया है: एक है मराठी लेखक काशीनाथ विश्वनाथ राजवाड़े जी की पुस्तक ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास’ तो दूसरी हिन्दी के मूर्धन्य लेखक हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की पुस्तक ‘कबीर’ है।
फिर भी, चंद्रभूषण जी की पुस्तक ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ की चुनौती ज़्यादा बड़ी है। चूंकि राजवाड़े जी तथा द्विवेदी जी के पास संदर्भ ग्रंथों की कोई किल्लत नहीं थी, इसलिए उनका पूरा ज़ोर उपलब्ध सूचनाओं का नई दृष्टि से व्याख्या और पुनर्पाठ करने पर रहा। चंद्रभूषण जी को यह सहूलियत हासिल नहीं रही है। राजवाड़े जी और द्विवेदी जी के यहां साहित्य उपजीव्य है तो चंद्रभूषण जी के यहां इतिहास। जहां राजवाड़े जी और द्विवेदी जी का शिल्प उन्हें साहित्य में इतिहास रचने की छूट देता है तो चंद्रभूषण जी इतिहास में साहित्य का लालित्य बोध पैदा कर देते हैं।
अब आते हैं पुस्तक के कथ्य पर। भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ नाम की यह पुस्तक भारतीय इतिहास के सबसे बड़े सवाल की छानबीन तो करती ही है, उससे संबद्ध अनेक अन्य प्रश्नों के उत्तर भी तलाशती है। लेखक का प्रस्थान बिंदु सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की उस मान्यता से उद्भूत है जो मानती है कि हर बदलाव के पीछे आन्तरिक और बाह्य दोनों कारणों का हाथ होता है। सिर्फ़ बाहरी अथवा सिर्फ़ आन्तरिक कारणों पर आंख मूंदकर भरोसा कर लेना वास्तव में एक विकलांग बौद्धिक प्रयास है। यही मान्यता लेखक को लोक मानस में गहरे पैठी उस धारणा के प्रतिकार के लिए भी उकसाती है जो बुद्ध के धर्म के विलोप के लिए सिर्फ़ बाह्य कारणों को उत्तरदायी मानती है। कोई चीज़ जादू मंतर से पैदा होती न बिला जाती है। भारत में बुद्ध के धर्म के उदय और विलोप की भी यही कहानी है।
लेखक के सामने इस पुस्तक की रचना का उद्देश्य दो सवालों के उत्तर तलाशना रहा है: बुद्ध का धर्म अपनी निरंतरता में कैसा दीखता था? क्या इसकी बानगी आज भी कहीं मौजूद है? इन प्रश्नों के विश्वसनीय उत्तर तलाशने के क्रम में लेखक दर्शन, समाज, साहित्य, संस्कृति, इतिहास, नृशास्त्र, पुरातत्व, लोक संस्कृति सदृश ज्ञान के अन्य क्षेत्रों को तो खंगालता ही है, बुद्ध के धर्म से जुड़े महत्वपूर्ण स्थानों की यात्रा भी करता है ताकि पता किया जा सके कि बुद्ध का धर्म आज कहां ठोस रूप में सुरक्षित है और कहां सिर्फ उसकी परछाईयां बची हैं।
लेखक की नज़र में ‘बुद्ध का धर्म’ समझने की राह में सनातन शब्द सबसे बड़ा रोड़ा है। लेखक की सम्मति है कि सनातन शब्द प्राचीन भारतीय संस्कृति और धार्मिक रुझानों का सच्चा प्रतिनिधित्व नहीं करता। सच तो यह है कि पूरी प्राचीन भारतीय संस्कृति और उसके धार्मिक हलचलों को सनातन मानने /मनवाने की बौद्धिक पहल बमुश्किल दो सौ साल पुरानी है। अंग्रेज़ों द्वारा प्रस्तावित ओरिएंटल स्टडीज की पहल से पहले सनातन शब्द भारतीय संस्कृति का एकमात्र विशेषण नहीं था। इसका मतलब यह हुआ कि हम तथाकथित सनातन धर्म की पीठिका पर बैठकर बुद्ध काल की हलचल को नहीं देख / समझ सकते।
बुद्ध का काल वैदिक धर्म के मोहपाश में जकड़ा हुआ ज़रूर था, लेकिन समाज के समस्त समूहों पर उसका बंधनकारी असर नहीं था। यही दर्शन-चिंतन के स्तर पर भी सच था। कह सकते हैं कि वैदिक परंपरा भारत में कभी निर्द्वंद्व नहीं रही। फिर भी यह एक स्थापित सत्य है कि वैदिक परंपरा का असल antithesis बौद्ध धर्म ही साबित हुआ। वेद पोषित वर्ण-व्यवस्था और धार्मिक पाखंड के पूर्ण निषेध का संकल्प वास्तव में बौद्ध धर्म का लॉन्चिंग पैड रहा है; प्राणवायु रहा है। स्वतंत्रता और समता के सिद्धांतों पर खड़ा- अड़ा बौद्ध धर्म भारतीय समाज की वैदिक परंपरा के लिए एक ऐसी चुनौती बनकर नमूदार हुआ था जिसकी काट वर्णवादी पाखंडी व्यवस्था के पास नहीं थी।
यह अकारण नहीं था कि वैदिक-धर्म बुद्ध के धर्म के सामने अपनी चमक खो चुका था। उसे जीवित और सार्थक बने रहने के लिए पुनरूत्थान और ज्ञानोदय की जरूरत थी। आदि शंकराचार्य इसी पुनरुत्थानवादी धार्मिक चेतना के प्रबल नायक बनकर उपस्थित हुए थे। बाद में उनके मिशन को मजबूती देने के लिए रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैतवादी, माधवाचार्य द्वैतवादी तो वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैतवादी दर्शन लेकर अखाड़े में उपस्थित हुए थे। इनकी पूरी कोशिश थी कि दर्शन के स्तर पर वैदिक धर्म पोषित वर्णवादी सामाजिक व्यवस्था का उदारवादी चित्र उकेरा जाए और बहुत हद तक वे अपने इस मिशन में कामयाब भी हुए।
प्रायोजित दार्शनिक बहसों में हार जीत के आधार पर धार्मिक समुदायों की पहचान को प्रतिष्ठा / तिरस्कार व वंचना का हिस्सा बना देना भी एक तिकड़म से ज़्यादा नहीं था। उधर बुद्ध का धर्म भी कई कई शाखाओं में बंटता हुआ वैचारिक और स्थानिक स्तर पर तितर बितर होता रहा। अशोक के समय का थेरवादी बौद्ध-धर्म पुष्यमित्र शुंग के हाथों ही मटियामेट कर दिया गया था, जबकि उसके अन्य बचे रह गए रूप बख़्तियार ख़िलजी के आक्रमणों की भेंट चढ़ गए।
बुद्ध के धर्म का सांस्थनिक स्वरूप तब भारत से भले ही बिला गया हो, लेकिन उसकी अ-वैदिक परंपरा और समतावादी वैचारिकी की ग्राह्यता समाज में बनी रही। सिद्धों और नाथों की धार्मिक परंपरा भी बौद्ध धर्म की तरह ही एक अ-वैदिक परंपरा थी। संभव है, इन परंपराओं और बौद्ध धर्म की परंपरा के बीज-सूत्र एक हों।
चंद्रभूषण जी की यह पुस्तक बौद्ध धर्म के जीवित ग्राहकों की पहचान कश्मीर, नेपाल से लेकर तिब्बत तक फैले हिमालयी प्रक्षेत्र में रहनेवाले अनेक अ-वैदिक समूहों के रूप में करती है। इन समूहों की पहचान बनती-मिटती रही है। अलग अलग समय में, अलग अलग कारणों से इन्हें अपने पाले में ज़मा करने की कोशिशें वर्णाश्रमी वैदिक-धर्म की ओर से लगातार होती रही। यही कारण रहा कि समय समय पर उनमें से कुछ समूह वर्णाश्रमी परिधि में शामिल किये जाते रहे। इससे यह बात साफ हो जाती है कि वर्ण-व्यवस्था ईश्वरीय निर्मिति नहीं है; कि समय समय पर इसमें कुछ समूह जुड़ते रहे हैं तो कुछ समूह बहिष्कृत होते रहे हैं।
पुस्तक के अंतिम भाग में वर्णित ‘बौद्ध कहां गए’ अध्याय में लेखक की मुलाकात एक पुरातत्वेत्ता से होती है जो अपने शौकिया शोध का हवाला देते हुए बताता है कि मगध प्रक्षेत्र के जिन इलाकों में बौद्ध पुरावशेष ज़्यादा मिले हैं, देश विभाजन के समय तक उनके आसपास आधी से ज़्यादा आबादी मुसलमानों की थी। इसकी व्याख्या करते हुए लेखक कहता है कि मगध में बौद्ध स्थलों के करीब ज़्यादातर कारीगर या मज़दूर मुस्लिम आबादी के साथ साथ भूमिहार और कुर्मी जैसी जातियों की मौजूदगी के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना आसान है कि बौद्ध धर्म के संस्थागत क्षरण के दौर में भी सभी बौद्धों के लिए हिन्दू धर्म में घरवापसी करने का रास्ता खुला हुआ नहीं था।
बौद्ध समाज के शिष्ट व समृद्ध लोगों को ही हिन्दू धर्म में स-सम्मान वापसी करने का मौका मिला। बाकी लोगों के लिए घरवापसी की शर्तें कठिन रही होंगी, सो वे मुसलमान बन गए होंगे। कहने का मतलब यह कि भारत में बौद्ध धर्म और समाज के बारे में विचार करते समय शोधकर्ता को भूमिहार और कुर्मी सरीखी खेतिहर जातियों का संदर्भ-समूहों के रूप में ऐतिहासिक अध्ययन करना लाज़िमी होगा।
इस पुस्तक की प्रासंगिकता क्या है? मेरी नज़र में यह पुस्तक हमें सचेत करती है कि भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा कभी भी सिर्फ़ वैदिक परंपरा नहीं रही है; कि भारत में बौद्ध धर्म का सिर्फ़ संस्थागत रूप विलुप्त हुआ है, उसकी वैचारिकी विलुप्त नहीं हुई है और यह कि कल का बौद्ध-धर्म आज कहीं नाथपंथ, कहीं निर्गुण भक्ति तो कहीं सूफी इस्लाम में तब्दील हो चुका है।
इस पुस्तक का तात्कालिक महत्व एक उत्प्रेरक के रूप में है। प्राचीन भारतीय इतिहास की समझ बौद्ध धर्म के सम्यक अध्ययन के अभाव में मुकम्मल नहीं हो सकती। यह पुस्तक हमें बताती है कि भारत में बौद्ध धर्म का अध्ययन अंधेरे में कंकड़ भेंकने जैसा निरर्थक काम नहीं है। यह पुस्तक बौद्ध धर्म के अध्ययन की परिधि ही तय नहीं करती, अपितु अध्ययन हेतु पर्याप्त सामग्रियों की रूपरेखा भी निर्धारित करती है। भविष्य के शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक बीज-सूत्र का काम करेगी, यह स्वीकारने में मुझे कोई संकोच नहीं है। साथ ही, यह पुस्तक इतिहास-लेखन के क्षेत्र में भी मील का पत्थर साबित होगी। रही बात भाषा की तो मैं कहना चाहूंगा कि लेखक की यह पुस्तक हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण साबित होगी। अलबत्ता, कहीं कहीं वाक्य विन्यास लंबे और जटिल हो गए हैं; खासकर वहां जहां लेखक एक ही वाक्य में अनेक ऐतिहासिक कालखंडों में घटित घटनाओं का ज़िक्र करता है।
अपनी इस टिप्पणी के अंत में मैं अपने दो सुझाव साझा करना चाहूंगा। पहला यह कि भविष्य के शोधार्थियों की सुभीता के लिए लेखक को इस पुस्तक के आरंभ में बौद्ध साहित्य में उपलब्ध मानक शब्दों और उनके अर्थों की एक सूची प्रस्तुत कर देनी चाहिए थी। दूसरे, इस पुस्तक में दो चार मानचित्र भी नत्थी होते तो यह समझने में पाठकों को बहुत सहूलियत होती कि इतिहास के विभिन्न काल खंडों में विद्यमान भारत का भूगोल कैसा था।