
मेरे लिए कानून कहा खड़ा है?
मेरे घर पर पिछले तीन महीने से भूमाफिया का ताला बंद है। पिछले तीन महीने से अपने ही घर से बाहर कर दी गई हूं। घर पर भूमाफिया का ताला बंद है, कानून का राज है, इसीलिए मैं अपनी 78 वर्ष की बूढ़ी मां के साथ अपने घर तक में नहीं घुस सकती और जिसने ताला बंद कर रखा है, वो शान से उसी घर में काबिज है… क्यों? इसीलिए कि उसके साथ सत्ता का हाथ है और इसीलिए प्रधानमंत्री जी के संसदीय क्षेत्र में मैं और मेरी मां के साथ हो रहे नाइंसाफी पर स्थानीय पुलिस प्रशासन मौनी बाबा की भूमिका में है…
मेरे दर्जनों प्रार्थना पत्र के साथ मेरी फरियाद, मिन्नतें, इल्तिजा , रोना-गिडगिडाना सब बेअसर है… शायद इसीलिए कि मैं और मेरी मां दोनो अकेले हैं। एक सामान्य नागरिक की क्या हैसियत और अधिकार है, मेरे साथ हुए घटना के बाद मुझे समझ में आ रहा है।
अभी कुछ दिनों पहले ही एक बार फिर जिले में आए नये पुलिस अधीक्षक को पांच गज की दूरी से अपना प्रार्थना पत्र देकर लौट आई हूं… उनका जवाब था आपकी शिकायत भेलूपुर थाने भेज रहा हूं… एक बार फिर मैं इतंजार कर रही हूं… न्याय के लिए… पर शायद ये कभी न खत्म होने वाला इंतजार है, जो मेरे जैसे लोग उम्र भर करते हैं।
लेकिन गलत करने वालों को कभी इतंजार नहीं करना पड़ता क्योंकि एक पूरी सत्ता और उसका तंत्र उनके साथ खड़ा दिखता है… सारे सवाल पीड़ित से पूछे जाते हैं… जैसे मेरे मामले में हो रहा है।
घर से जुड़े सारे कागजात पुलिस प्रशासन को सौंपने के बाद मुझसे ही पूछा जाता है कैसे मान लें आप उसी घर में रहती थीं? लेकिन क्या जबरन ताला बंद करने वाले मुझसे बदतमीजी करने वाले उस भूमाफिया से एक बार भी पुलिस प्रशासन ने पूछा कि तुम यहां कैसे और किस हैसियत से हो? या किस कानून के तहत तुमने ताला बंद किया?
इधर बीच मेरे बंद कमरे से मेरा सामान हटाया जा रहा है… मेरे घर के अंदर कुछ जलाया भी जा रहा है… मैंने इसकी सूचना भी पुलिस प्रशासन को दी लेकिन मौनी बाबा लोग मौन हैं… संभवत आने वाले दिनों में मेरे कमरे में कुछ भी न बचे… रातों-रात नहीं, दिन के उजाले में मेरे घर का अस्तित्व ही मिटा दिया जाए …
इतनी अराजकता और प्रशासन का इतना नकारात्मक रवैया किस के हित में है।
मैं अकेली महिला अपनी बूढ़ी मां के साथ खड़ी हूं लेकिन मेरे लिए न्याय कहां खड़ा है? कहां खड़ा है न्याय?
मेरी 78 साल की मां और मैं बस इतनी सी दुनिया है मेरी। सन 2014 में पापा दुनिया को अलविदा कह गए और उस दिन से हमारी जिंदगी में एक अधूरापन एक खालीपन है जिसे मां और मैं हम दोनों महसूस करते हैं।
पापा के जाने के बाद से ही मां बीमार रहने लगीं… इन दिनों बिस्तर पर है। मैं और मेरी मां अक्सर सोचते हैं। हम मां और बेटी ही नहीं, दो महिलाएं भी हैं, शायद इसीलिए इस पुरूष वर्चस्ववादी समाज में असुरक्षित महसूस करती हूं। मेरी बुर्जुग मां को मेरी चिंता रहती है कि वो लोग जिन्होंने मेरे स्मृतियों में रचे-बसे घर में ताला बंद कर रखा है, मुझे आफिस आते-जाते रास्ते में कुछ कर न दें… मुझे इस बात का डर है अगर मुझे कुछ हो गया तो मेरी मां को कौन देखेगा।
आपको पता है डर-डर कर जीना मरने से बदतर होता है।
सुमन द्बिवेदी
वरिष्ठ उपसंपादक
आज अखबार
वाराणसी
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