इलाहाबाद। देखिये, इस तस्वीर को जरा गौर से देखिये। दहाड़ें मारकर रोते, माथा पीटते सामने दिख रहे हैं बुजुर्ग पत्रकार रामदेव मिश्र। उसके थोड़ी ही दूर सहमे और हतप्रभ दशा में खड़े थे उनके दो पोते और एक नातिन। रामदेव ने अपना इकलौता बेटा और बहू तो इन तीन मासूम बच्चों ने अपने माता पिता को हमेशा-हमेशा के लिए एक सड़क हादसे में खो दिया। बुजुर्ग पत्रकार रामदेव मिश्र और मासूम उम्र के रामदेव के दो पोते और एक पोती। इस परिवार के आगे अंधेरा ही अंधेरा।
आगे बढ़ने से पहले रामदेव और संजय मिश्र के बारे में जान लें। रामदेव मिश्र और इनका इकलौता बेटा संजय मिश्र उन आंचलिक अभागे पत्रकारों में हैं, जिनसे अखबार हाउस समाचार संकलन, अखबार वितरण से लेकर विज्ञापन तक के कार्य बारहों महीने लेते हैं पर इनको कायदे से पत्रकार की श्रेणी तक में शुमार नहीं करते। खुद करोड़ों अरबों का सालाना टर्न ओवर करने वाले अखबार हाउस में अखबार की रीढ़ कहे जाने वाले ये आंचलिक पत्रकार बगैर किसी साधन-सुविधा के रोजाना दस पंद्रह किमी रेंज में सभी बीट पर अकेले जूझते हैं, कोई खबर छूटने पर हंड्रेड फीसदी जवाबदेही भी।
बहरहाल, दो जनवरी 2016 की शाम करीब चार बजे सपत्नीक बाइक से घर आते कौशांबी जिले की सैनी रोड पर तेज रफ्तार ट्रक ने पत्रकार संजय और उनकी पत्नी रीता उर्फ राधा को कुचल दिया। घटनास्थल पर ही पत्रकार दंपती की मौत हो गई। घटना की जानकारी मिलते ही लालगोपालगंज के हिन्दुस्तान पत्रकार रिजवान उल्ला और अमृत प्रभात के पत्रकार राकेश शुक्ला मौके पर पहुंचकर रात में ही पोस्टमार्टम कराया।
दुखद यह कि इकलौते पुत्र और बहू की एकसाथ मौत ने बुजुर्ग पत्रकार रामदेव के बुढ़ापे की लाठी तो छीनी ही, माता पिता को असमय खोने वाले तीन मासूम बच्चों की जिंदगी में भी अंधेरा पैदा कर दिया। समूचे प्रकरण में शर्मनाक रही उन अखबारों की भूमिका जिसके लिए रामदेव मिश्र ने बेटे को साथ लेकर अपनी जिंदगी का अस्सी फीसदी हिस्सा खपा दिया।
करीब सातवें दशक से रामदेव मिश्र साइकिल से इलाके की खबरों का संकलन कर शाम को पैकेट से छपने के लिए उसे भेजते फिर अखबार छपने के बाद भोर से ही करीब पंद्रह किमी सुदूर गांव की रेंज में अखबार बांटने का कार्य करते। तब के प्रमुख समाचार पत्र देशदूत, भारत फिर उसके बाद दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान और अमर उजाला से लेकर कॉम्पैक्ट, आईनेक्स्ट तक के लिए कार्य कर रहे हैं। अखबारों ने काफी तरक्की की। संस्करण दर संस्करण बढ़ते गए। मालिकान कमा कमा कर मोटे होते गए। कारपोरेट कल्चर ने अखबारों के दफ्तर, फर्नीचर के कलेवर तक बदल डाले पर नहीं बदल सके तो साठ फीसदी उन आंचलिक पत्रकारों की दुर्दशा, जो अखबार के लिए नींव की ईंट बन उन अखबारी अट्टालिकाओं की शान बढ़ाने का कार्य दिन रात मिलकर किया करते हैं।
खैर, बात आंचलिक पत्रकार संजय मिश्र और रामदेव मिश्र की। बुढ़ापे में इकलौता बेटा और बहू को खोने वाले अखबारी परिवार के इस पुराने साथी के घोर दुख की घड़ी में हिन्दुस्तान के संपादकीय प्रभारी आशीष त्रिपाठी, चीफ रिपोर्टर बृजेंद्र प्रताप सिंह, अंचल डेस्क प्रभारी देवेंद्र देव शुक्ल, गुरूदीप तिवारी, पीयूष श्रीवास्तव अंत्येष्टि से लेकर रामदेव के घर आकर परिजनों को ढांढस बंधाया, मदद का भी आश्वासन दिया। अमर उजाला और दैनिक जागरण की इलाहाबाद यूनिट तो एकदम चिरकुट निकली। इन दोनों अखबार के लोग तो रामदेव के दरवाजे पहुंच ढांढस बंधाने तक की औपचारिकता से मुंह छिपाया। और वे नेताजी लोग जो खबरों में अपना नाम फोटो छपवाने के लिए मंचों से गला फाड़ते हैं-‘कलम के सिपाही अगर सो गए तो…। वे भी अपनी गोटी सेट करने में पता नहीं कहां जुटे रहे।
आंचलिक पत्रकारों में कौशांबी मुख्यालय, सिराथू के पत्रकारों ने जुटकर रात में ही पोस्टमार्टम से लेकर सैनी कोतवाली में एफआईआर कराने तक मदद की। इस असहाय पत्रकार की आर्थिक मदद के लिए स्थानीय पत्रकार चंदा तक जुटा रहे हैं पर इलाकाई नेता लापता हैं। इलाके के विधायक अंसार अहमद, बसपा के पूर्व विधायक गुरूप्रसाद मौर्य तो अंत्येष्टि में गंगातट पर पहुंचे। अंसार अहमद ने उसी दिन स्मृति- द्वार बनवाने का ऐलान किया। कई दलों के थोक के थोक बनाए गए मीडिया ‘मैनेजर’ एक बार फिर नकारा साबित हुए।
लोकसभा चुनाव के पहले तक गला फाड़ फाड़कर चिल्लाने वाले क्षेत्रीय भाजपा सांसद केशव प्रसाद …‘नेता नहीं, बेटा चुनिए’ आखिर कहां है। हर हाल में चुनावी बैतरिणी पार कर लेने को आतुर दो बार विधायकी चुनाव लड़ने वाले नेता शिवप्रसाद मिश्र, पूर्व विधायक प्रभाशंकर पांडेय, पूर्व केंद्रीयमंत्री रामपूजन पटेल, पूर्व सांसद धर्मराज पटेल, सीमा क्षेत्र से लगे प्रतापगढ़ के राज्यसभा सदस्य प्रमोद तिवारी, पूर्व सांसद रत्ना सिंह, प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री राजा भैया समेत अन्य कई सो-काल्ड ‘जनता के सेवक’ अभी तक सांत्वना देने तक के लिए उनके घर नहीं पहुंचे।
और तो और, जगह जगह उग आए पत्रकारीय संगठनों के ‘क्रांतिकारी साथी’ भी चुप्पी साधे बैठे हैं। चर्चा के दौरान बुजुर्ग पत्रकार रामदेव मिश्र के आंखों में आंसू आ जाते हैं। दर्द बयां करते हैं-अखबार ने भी लिया, समाज ने भी चढ़ जा बेटा सूली पर कहकर लिया पर संकट की घड़ी में मिला क्या? नेता अफसर और समाज… सांत्वना के दो शब्द कहने तक में कंजूसी करेगा, कभी सोचा न था। …एक पत्रकार के जीवन का शायद यही अंतिम सच भी है।
हे देश के महाप्रभुओं! रामदेव मिश्र के चेहरे में कहीं अपना चेहरा नजर आ रहा हो या इन बच्चों में कहीं अपना कुछ दिख रहा हो तो इस परिवार को भरोसा दिलाइए कि हम सब उनके साथ हैं।
मूल खबर: हिंदुस्तान के पत्रकार संजय मिश्र और उनकी पत्नी की सड़क हादसे में मौत
इलाहाबाद से वरिष्ठ पत्रकार शिवाशंकर पांडेय की रिपोर्ट. संपर्क: [email protected]
rakesh kumar
January 15, 2016 at 12:35 am
सुनकर बहोत दुःख हुआ, मगर अफ़सोस साथ कोई नहीं देने वाला
इस बुढ़ापे में पता नहीं दिन बच्चो की जिम्मेदारिया पहले ही जज्जर हो चुकी कमर को तोड़ डालेगी
हिंदुस्तान के हर अख़बार का अब यही हाल लगता है
अपना सब कुछ देने के बाद भी, एक इमानदारी और मेहनती कर्मचारी मुसीबत आने पर फ़क़ीर की तरह खड़ा नज़र आता है
बड़ी बड़ी बाते करने वाले अख़बार के बड़े बड़े कर्मचारी भी आँखे बंद कर लेते है
शिवशंकर पाण्डेय जी खबर हम तक पहुचाने के लिए बहोत बहोत धन्यवाद्
मैं क्या मदद करू आपकी, मैं तो खुद अख़बार वालो की दरिंदगी का शिकार हूँ.. जिसने पहले ही घर से लेकर पिताजी तक सब कुछ खो दिया है…