भोपाल : वरिष्ठ पत्रकार चंदा बारगल का हार्ट अटैक के कारण निधन हो गया। चंदा बारगल उन पत्रकारों में शामिल थे जिन्होंने अपनी लेखनी के दम पर कई अखबारों में अपना स्थान बनाया। भोपाल में रहकर इन दिनों वे खबरची डॉट कॉम नामक वेबसाइट चला रहे थे। वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल ने चंदा जी को कुछ यूं याद किया है…
Rajesh Badal : पुष्पेंद्र की तरह तुम भी चले गए चंदा… यक़ीन नही आता। चंदा बारगल ने इस जहाँ से विदाई ले ली। मध्यप्रदेश में साल भर के भीतर यह दूसरी विदाई कचोटने वाली है। दिल में दर्द का समंदर लिए पहले बेहद विनम्र पुष्पेंद्र सोलंकी का जाना और अब वैसा ही नरमदिल, पत्रकारिता के प्रपंचों से दूर चंदा बारगल का कॅरियर की तड़प और कसक को पीते हुए, जीते हुए चला जाना। मुझे याद है। नई दुनिया इंदौर में उप संपादक के तौर पर जॉइन किया था। अस्सी का साल था। नई दुनिया की परंपरा के मुताबिक़ प्रत्येक पत्रकार की शुरुआत प्रूफ रीडिंग डेस्क से ही होती थी।
चंदा उन दिनों प्रूफ रीडिंग विभाग में थे। उमर में सालेक भर छोटे थे। इसलिए परिचय दोस्ती में बदल गया। इसी डेस्क पर नवीन जैन, पवन गंगवाल, मीना राणा, मीना त्रिवेदी, जयंत कोपरगांवकर भी होते थे। हम लोगों का समूह दफ़्तर में चर्चाओं का केंद्र रहता था। चंदा बेहद आत्मीय, विनम्र, हमेशा मुस्कुराने वाला, अच्छी पढ़ाई लिखाई वाला था। इसलिए घण्टों बहसें भी होतीं। अक्सर रात दो बजे अख़बार निकालने के बाद साइकलों से राजबाड़ा जाते, पोहे खाते, चाय पीते और सुबह होते होते घर लौटते।
चंदा ने हमेशा मुझे भाई साब ही संबोधित किया। कभी कभी मैं या नवीन जैन भड़क जाते कि हम लोग बराबरी के ही हैं। सीधे नाम लो मगर चंदा पर कोई असर नहीं पड़ा। एक तो उन दिनों नईदुनिया की भाषा का प्रशिक्षण ज़बरदस्त होता था। कॉमा, फुलस्टॉप से लेकर नुक़्ता और चंद्र बिंदु लगाने के मामले में शुद्धता की पूरी गारंटी याने चंदा बारगल। अख़बार की स्टाइलशीट से कोई भी विचलित हुआ तो चंदा भाई सीधे भिड़ने के लिए भी तैयार रहते थे। चाहे राहुल बारपुते याने बाबा का लिखा हुआ हो या राजेन्द्र माथुर जी का- अपने चंदा भाई को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था।
चंदा के गोलाई लिए शब्द और हैंडराइटिंग आज भी चित्र की तरह चल रही है। जब राजेन्द्र माथुर जी ने मुझे परिवेश स्तंभ का प्रभारी बनाया तो चंदा के अनेक आलेख मैंने प्रकाशित किए। उसके लिखे पर कलम चलाने का कम ही अवसर आता था। हाँ ,शीर्षक वो कभी नहीं देता था। हमेशा कहता था, ‘शीर्षक तो आप ही दें’। उसके लेखन से प्रूफरीडिंग विभाग के प्रभारी किशोर शर्मा नाराज़ रहते थे। उन्हें लगता था कि आलेख लिखने से चंदा काम पर ध्यान नही दे पाता। पर यह सच नहीं था।
चंदा के क़रीब 30-40 आलेख मैंने छापे। उससे पहले वह संपादक के नाम पत्र भी लिखता था। उन दिनों एक एक पत्र पर भी पाठकों में बहस होती थी। यह बहस कभी कभी बड़ा मुद्दा बनकर उभरती थी। आजकल अख़बार इस तरह का मानसिक व्यायाम अपने पाठकों का नहीं कराते। ऐसे कई पाठक चंदा के नाम से उसे लड़की समझते थे और सीधे पत्र लिखते थे। हम लोग ऐसे पाठकों का बड़ा मज़ा लेते। कुछ पाठकों को तो चंदा ने उत्तर भी दिए। बाद में भेद खुला तो पाठक शर्मिंदा हो गए। शाहिद मिर्ज़ा पहले यह स्तंभ देखते थे। फिर प्रकाश हिंदुस्तानी जी ने ज़िम्मेदारी सँभाली।
प्रकाश हिंदुस्तानी धर्मयुग चले गए तो मुझ पर इस स्तंभ का भार आन पड़ा। चंदा खुश रहता था कि मैं उसके लिखे पत्रों में अधिक काट छाँट नहीं करता। पर मैं उसे यह कोई अतिरिक्त सुविधा नहीं दे रहा था। वह लिखता ही ऐसा था। अक्सर हम लोग चोरल चले जाते। चोरल नदी में नहाते और घने जंगलों में ऐश करते। ऐसे ऐसे न जाने कितने किस्से आज वेदना के साथ याद आ रहे हैं। कल ही तो कॅरियर शुरू किया था और आज इस लोक से विदाई का सिलसिला भी शुरू हो गया।
इधर चंदा भोपालवासी हुए और कुछ समय बाद मैं दिल्ली जा बसा। बीच बीच में कभी फ़ोन पर तो कभी मिलने पर हम लोग उन दिनों की याद करते। फिर उसका वह लंबा खिंचने वाला ठहाका। उफ्फ़ …….। इस कमबख़्त ज़िंदगी ने काल के पहिए में ऐसा फँसाया है कि दोस्तों और अपनों से मिलना भी दुर्लभ होता जा रहा है। जब वे अचानक इस तरह विदा हो जाते हैं तो कलेजे में एक फाँस की तरह कुछ अटका रह जाता है। सच, बहुत याद आओगे चंदा।