चंद्रभूषण की एक कविता
| मुख्यधारा |
अभी तो लगता है,
पारसी सिर्फ अपने बैंक खातों में
दर्ज आंकड़ों से खेलते होंगे
लेकिन सौ साल भी नहीं गुजरे
देश में अंग्रेजों के जोड़ का
क्रिकेट खेलने वाले वे अकेले थे
बॉलीवुड की जन्मकुंडली में पड़ा
‘पारसी थियेटर’ वे ही चलाते थे
और पहली फुर्सत में भारत की
आजादी का आर्थिक सिद्धांत भी
लंदन से लिखकर भेज देते थे
फिर एक दिन आजादी आ गई
और पचास साल के अंदर ही
पारसी, यहूदी, आर्मीनियाई
एक हवाई किले में बंद हो गए
जिन भी चीजों से सत्ता बनती थी
सारी की सारी ऐसे लोगों के पास गईं
जो न रचना जानते थे, न कुछ खेलते थे
न आजादी में उनकी कोई दिलचस्पी थी
इस तरह उभरी हमारे देश की मुख्यधारा
जिसने देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति को
वेदमंत्रों के अनवरत पाठ के बीच एक शाम
वैचारिक वन से निकाल कर भवन में पहुंचाया
उसी भवन में, जहां से विदा होते हुए
पिछले वाले ‘दलित राष्ट्रपति’
ऐन सामने हाथ जोड़े ताकते रहे
प्रधानमंत्री ने उन्हें देखा तक नहीं
तीन दिन कैमरा उड़ीसा से दिल्ली तक नाचा
340 कमरे गिना दिए, ‘वनवासी’ नहीं बोला
बोलेगा, आदिवासी क्षेत्रों में चुनाव के वक्त
जैसे पिछले को कुछ दिन ‘कोली’ कहा था
यही है हमारी मटमैली मुख्यधारा
जिसकी कोई सहायक धारा नहीं है
जो बाढ़ के पानी की तरह बस्तियों में बहती है
और मैले के रंग में ही सारा कुछ रंग डालती है
यहां जैन भी त्रिशूलधारी दिखना चाहते हैं
बौद्ध-सिक्ख दलाल काम पर लग चुके हैं
कुक्कड़ चबा रहे हिंदू ‘हैं तो शाकाहारी’
और मुसलमान-ईसाई का तुक
भाई-भाई से ऊपर वाले ने ही जोड़ रखा है
इस तरह बनती जा रही है हमारी मुख्यधारा
जैसे बे-सरोसामान कोई ऐसी दुकान
जिसके टूटे शटर पर मोटे काले ब्रश से लिखा है-
नक्कालों से सावधान, हमारी कोई ब्रांच नहीं है