सुशोभित-
धर्म और अध्यात्म में बड़ा भेद है। सामान्यतया दोनों को एक समझने की भूल कर ली जाती है। यही कारण है कि धार्मिक व्यक्ति को आध्यात्मिक व्यक्ति कह दिया जाता है। पर दोनों के अंतर को समझ लेना आवश्यक है।
धर्म की रीति सामुदायिक है, अध्यात्म की रीति वैयक्तिक है। धर्म विन्यास बनाता है, अध्यात्म संन्यास दिलाता है। धर्म लोकप्रिय है, अध्यात्म दुष्कर है। इस महत्वपूर्ण भेद को ध्यान में रखना ज़रूरी है।
धर्म की यात्रा व्यक्ति से समूह की ओर जाती है। धर्म एकत्रीकरण करता है, संगठनों का निर्माण करता है। अंततोगत्वा धर्म जनसांख्यिकी के स्तर पर चला जाता है। इसी से वह सत्ता की राजनीति का प्रिय उपकरण भी बन जाता है। पहचान की राजनीति का हिस्सा बनकर उसमें सैन्यवाद तक चला आता है, वह युद्धों और संघर्षों को जन्म देता है।
इसके विपरीत, अध्यात्म की यात्रा व्यक्ति से शून्य की ओर जाती है। वह न केवल समूहों का त्याग करता है, व्यक्ति के भीतर भी जो समूह हैं, भीड़ हैं, उन्हें छाँटकर एकाग्रता का निर्माण करता है। एक चैतन्य तत्व की खोज करता है। और अलबत्ता अध्यात्म में भी संघ या संगठन बनते हैं, किन्तु वे व्यक्तियों के निरे संकलन भर हैं। वहाँ हर व्यक्ति एक निजी यात्रा में है और चेतना के निजी सोपान पर है। इस निजता का सम्बंध उसकी वृत्ति, संस्कार, चेतना और जाग्रति से है।
धर्म का प्राण ईश्वर है, अध्यात्म ईश्वर के बिना भी काम चला सकता है। ईश्वर के आलम्बन से अंतर्यात्रा में सहायता मिले तो ठीक, अन्यथा वह ज़रूरी नहीं। इसी से अनेक आध्यात्मिक पंथ निरीश्वरवादी हुए हैं, विशेषकर श्रमण। किन्तु ईश्वर के बिना आप धर्म को खड़ा नहीं कर सकते। एकेश्वरवाद में तो हरगिज़ नहीं और बहुदेववाद में भी ब्रह्म, अवतारों, देवी-देवताओं के अनेक उपास्य रूप रचे जावेंगे।
एक विग्रह की कल्पना धर्म के लिए आवश्यक है- साकार हो या निराकार। धर्म के अन्य आयाम हैं- तीर्थ, पर्व, व्रत, उत्सव और उपासना। नियमावली का आयाम धर्म में संगठन-निर्माण का कार्य करता है- पवित्र पुस्तक या रीति-नीति-संहिताओं को निर्दिष्ट करने वाले पौरुषेय-अपौरुषेय ग्रंथ। क्योंकि स्पष्ट निर्देशों के बिना धर्म संचालित नहीं हो सकता।
जबकि अध्यात्म में नए नियमों की खोज की जाती है। नए निर्देशों का अन्वेष किया जाता है। तीर्थ, पर्व, व्रत, उत्सव और उपासना की अध्यात्म में अनिवार्यता नहीं। आत्मप्रकाश ही उसका लक्ष्य है।
ईश्वर के स्वरूप को मानना- यह धर्म है।
स्वयं के स्वरूप को जानना- यह अध्यात्म है।
मैं कहूँगा, धर्म की तुलना में अध्यात्म एक कहीं परिष्कृत विचार है।
गीता के आठवें अध्याय में अध्यात्म की परिभाषा श्रीकृष्ण ने दी है- ‘स्वभावोऽध्यात्म्!’ वस्तु का स्वभाव ही अध्यात्म है। तब अध्यात्म का अर्थ हुआ- आत्म-स्वरूप का अध्ययन।
धर्म और अध्यात्म के भेद का एक स्थूल रूप वैदिक और औपनिषदिक के द्वैत में प्रकट हुआ है। प्रकारान्तर से यह मीमांसा और वेदान्त का द्वैत है। वेद विधि का प्रतिपादन करते हैं, उपनिषद स्वरूप का। वेद प्रतीकात्मक हैं, उपनिषद दार्शनिक। किन्तु आमजन को सर्वाधिक रुचिकर हैं पुराण। गीता पूज्य है, पर भागवत् प्रिय है। लोक को जीवन-विवेक सिखाने वाले महाआख्यानों में रस है। इसमें कुछ दोष नहीं, किन्तु जैसे ही प्रतीक संस्थागत रूप लेते हैं, संघर्ष उत्पन्न होते हैं। क्योंकि पहचान की अस्मिता उनसे जुड़ जाती है। फिर वो लौकिक प्रयोजन है। यही समूह की नियति भी है- मोह में पड़ना और संघर्ष करना। जबकि आत्म के अध्ययन की यात्रा यानी अध्यात्म इस झंझट से मुक्त रहता है।
ऊपर मैंने कहा है कि अध्यात्म की रीति वैयक्तिक है। ठीक यही बात डॉ. राधाकृष्णन् ने भी कही थी कि यह ब्रह्म की वह प्रावस्था है, जो वैयक्तिक बनती है। वैयक्तिक चेतना का विवेचन यानी अध्यात्म ही मूल तत्व तक पहुँचाएगा।
यह रीति लोकप्रिय कैसे हो सकती थी, क्योंकि इसमें परिश्रम है, अन्वेष है, साधना है। लोक को अन्वेष नहीं आस्था चाहिए। लोक को परिश्रम नहीं उत्सव चाहिए। लोक को साधना नहीं आश्वस्ति चाहिए।
लोक को इसीलिए- अध्यात्म नहीं धर्म चाहिए।
विवेकानंद की भली बात कही। आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि उनकी लोकप्रियता के मूल में धर्म ध्वजा है। हिन्दू गौरव का पुनर्जागरण। एक आध्यात्मिक व्यक्ति- जैसे रमण या कृष्णमूर्ति- कभी भी इतना लोकप्रिय नहीं हो सकता! रामकृष्ण आध्यात्मिक थे। विवेकानंद बहुत मेधावी और ओजस्वी थे, और धर्म के ध्वजवाही थे। पर क्या आध्यात्मिक भी थे? स्थितप्रज्ञ थे? पता नहीं। निर्णय करने वाला मैं कौन? पर मैंने उनके वक्तव्यों में राग, मोह और विषाद की अभिव्यक्ति पाई है। जातीय गौरव भी उनके यहां है।