सुशोभित-
द न्यूयॉर्क टाइम्स में पीटर सिंगर का एक महत्वपूर्ण लेख छपा है- फ़िक्स योर डाइट, सेव द प्लैनेट। यानी अगर पृथ्वी की रक्षा करनी है तो अपनी खान-पान की आदतें बदल लीजिए। पीटर सिंगर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं और वर्ष 1975 में उनके द्वारा लिखी गई किताब ‘एनिमल लिबरेशन’ एनिमल राइट्स मूवमेंट्स का प्रिंसिपल टेक्स्ट है। लेकिन ग़ौर करने वाली बात है कि पीटर का यह लेख द न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ है। इसके मायने आप समझते हैं?
द न्यूयॉर्क टाइम्स आज दुनिया में लिब्रलिज़्म का मुखपत्र है। पूरी दुनिया की लिबरल कम्युनिटी सुबह उठकर इस अख़बार का पारायण गीता-पुराण की तरह करती है और वहाँ से अपने ओपिनियन का निर्माण करती है। यह अख़बार अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के विपक्ष की भूमिका का निर्माण डैमोक्रेट्स से भी अधिक करता है। ट्रम्प को हटाने और बाइडन को बिठाने में उसकी केंद्रीय भूमिका रही। ब्लैक लाइव्ज़ मैटर का आंदोलन उसकी प्रेरणा से संचालित हुआ। वीमेन्स राइट्स, एलजीबीटीक्यू राइट्स, एबॉर्शन राइट्स, अश्वेतों, एशियाइयों और हिस्पैनिकों के अधिकार, मुसलमानों के अधिकार आदि पर यह अख़बार मुखरता से बात करता है। आज यह अख़बार अगर एनिमल राइट्स पर लीड आर्टिकल छाप रहा है तो इसके दो कारण हैं।
पहला कारण यह है कि अगर आप लिबरल हैं तो यह सम्भव ही नहीं है कि आप देर-सबेर एनिमल राइट्स की बात नहीं करेंगे। यह हरगिज़ मुमकिन नहीं है कि एक तरफ़ आप आज़ादी, न्याय, बराबरी की बात करें और दूसरी तरफ़ जानवरों को फ़ैक्टरियों में पैदा करके उन्हें मारकर खाते रहें। एक चीज़ होती है लॉजिकल कंसिस्टेंसी। दूसरी चीज़ होती है मोरल कंसिस्टेंसी। जब तक आप इसके बाहर हैं, तब तक कुछ बात नहीं। लेकिन एक बार आपने यह प्रिटेंड करना शुरू कर दिया कि आप बौद्धिक और नैतिक निरंतरता का पालन करने वाले एक स्वतंत्रचेता, उदार व्यक्ति हैं, तो आपको मनुष्येतर प्राणियों के हितों का चिंतन भी करना ही होगा, नहीं तो आप हिप्पाक्रेट माने जाएँगे। द न्यूयॉर्क टाइम्स ने यह किया है। और आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि आज अमेरिका में 5 प्रतिशत और ब्रिटेन में 2 प्रतिशत आबादी वीगन बन चुकी है।
दूसरा कारण और संगीन है। आज एनिमल फ़ार्मिंग क्लाइमेट चेंज की सबसे बड़ी वजह बन गया है। अमेरिका और यूरोप में वो लोग क्लाइमेट चेंज की बहुत फ़िक्र करने लगे हैं और क्लीन एनर्जी, ईवी, कार्बन फ़ुटप्रिंट्स को कम करना, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना, धरती के औसत तापमान को एक स्तर से आगे बढ़ने नहीं देना आदि को लेकर कटिबद्ध हो गए हैं। थॉमस फ्रीडमैन जैसे लेखक इधर लगातार क्लाइमेट चेंज पर लिख रहे हैं और जब थॉमस लिखते हैं तो वो जानते हैं कि प्रेसिडेंट बाइडन उनका लेख पढ़ते हैं और उसके आधार पर नीति-निर्माण करते हैं। ऐसे में यह कैसे सम्भव है कि एक तरफ़ आप पर्यावरण की चिंता करें, जल-जंगल-ज़मीन की बात करें, आबोहवा की बेहतरी का नारा उछालें और जानवरों को भी मारकर खाते रहें? यह तो भारत में ही सम्भव है कि रामचंद्र गुहा पर्यावरणविद् भी हैं और बीफ़ भी खाते हैं। या आज़ादी का नारा लगाने वाले माँसभक्षी हैं। लेकिन यह बहुत दिनों तक चल नहीं सकेगा। एनिमल फ़ार्मिंग से मीथेन गैस उत्पन्न होती है, जो कि कार्बन डाइ ऑक्साइड की तुलना में कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है और धरती को तपा रही है। वह जलवायु-परिवर्तन की प्रक्रिया को गति दे रही है। उससे डी-फ़ॉरेस्टेशन हो रहा है सो अलग।
पीटर सिंगर ने अपने लेख में बहुत पते की बात कही है। उन्होंने कहा है कि 1970 में जब मैंने माँस का त्याग किया था, तो मेरे दिल में जानवरों के लिए लगाव की बात थी कि हम ख़ुद को एक तरफ़ सभ्य कहकर दूसरी तरफ़ जानवरों को माँस, दूध, अंडे, ऊन की मशीन की तरह ट्रीट नहीं कर सकते। लेकिन आज माँस खाने का सवाल प्लैनेट के भविष्य से जुड़ गया है। अगर मनुष्य इसी तरह माँस खाते रहे तो सर्वनाश सन्निकट है। यह अपेक्षा करना तो ख़ैर बहुत होगा कि मनुष्यजाति प्लांट-बेस्ड फ़ूड की ओर रातोंरात शिफ़्ट हो जाएगी, लेकिन यह उम्मीद करना पूरी तरह से जायज़ है कि लोग अपने एनिमल-प्रोडक्ट्स के कंज़म्पशन को घटाएँगे। पीटर सिंगर लिखते हैं, लाखों लोग वीगन बन जाएँ, उससे ज़्यादा प्रभावी यह है कि करोड़ों लोग अपने भोजन में पशु-उत्पादों की खपत आधी कर दें। केवल इतने भर से प्लैनेट की रक्षा करने के लिए हम एक बेहतर स्थिति में आ सकेंगे।
व्यक्तिगत रूप से मेरी पोज़िशन यह है कि अगर क्लाइमेट चेंज का कोण नहीं जुड़ा होता, तब भी मेरे लिए केवल नैतिक कारण ही पर्याप्त था यह कहने के लिए मैं पशु-उत्पादों का सेवन नहीं करूँगा। लेकिन वृहत्तर मनुष्यता के लिए यह काफ़ी नहीं। उसके लिए सर्वनाश का तर्क ही काम आएग। जब तक कोई नई महामारी नहीं फैलेगी (जैसी तीन साल पहले फैली थी) या क्लाइमेट-इमरजेंसी नहीं निर्मित होगी और तटवर्ती इलाक़े डूबने नहीं लगेंगे और फ़ूड-क्राइसिस नहीं आ जाएगा, तब तक सरकारें और लोग जागने नहीं वाले हैं। लेकिन विपदा से पहले अगर सम्भल जाएँ तो हर्ज़ नहीं।
आज भारत में कोई भी मुख्यधारा का बुद्धिजीवी पशुओं के अधिकारों पर बात नहीं कर रहा है, पर मैं आपसे पुरज़ोर तरीक़े से कहता हूँ कि जानवरों को जीने दो। अपनी खान-पान की आदतों को बदलो। यह धरती तुम्हारी जीभ से ज़्यादा क़ीमती है। करोड़ों जानवरों की जान तुम्हारे लंच और डिनर से ज़्यादा मूल्यवान है। सबकुछ दाँव पर लगा है। आँखें खोलो और देखो। इस पाप और सर्वनाश का अंत करो। कल नहीं, आज ही फ़ैसला लो। पशु-उत्पादों का त्याग करो। अगर सच में ही लिबरल हो, सजग मनुष्य हो, तो उसके लिए बलिदान दो, ख़ुद को बदलो। बिना कुछ किए बड़प्पन का ख़्वाब मत देखो।