पार्ट-5 : जाने-माने साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध के आख़िरी दिनों के बारे में बता रहे उनके पुत्र दिवाकर मुक्तिबोध!

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दिवाकर मुक्तिबोध-

नागपुर हो या राजनांदगांव , मेरी स्मृति में पिताजी कभी बीमार नहीं पडे। न कभी बुखार आया और न ही खांसी। लेकिन मैं ? गांव जैसे वसंतपुर के खुले वातावरण व ताजी हवा ने मुझे स्वस्थ रखा तो यहां कालेज के मकान में, विशेषकर गर्मी के दिनों में दोनों बडे तालाबों रानी सागर व बूढा सागर से उठती वाष्पीकृत हवाओं ने मुझे दमे का मरीज बना दिया। यह मेरा अनुमान है कि जलवायु का मुझ पर बुरा प्रभाव पडा। मुझे दमे के अटैक आने लगे। मां व पिताजी दोनों परेशान। जब अटैक आते तो दोनों रात भर मेरे पास बैठे रहते। जोर -जोर से धौंकनी की तरह चलती सांसें व उपर नीचे होती मेरी छाती उन्हें बेचैन करती। मां तरह-तरह के घरेलू उपाय करती थीं। छाती सेंकना, फिटकरी या कोई और चाटन खिलाना। डाक्टर तो खैर आते ही थे।

थोडा आराम लगता फिर वहीं स्थिति हो जाती थी। क्रिश्चियन हास्पीटल के डॉक्टर अब्राहम , आयुर्वेदिक डॉक्टर श्रीवास्तव, एलोपैथिक डॉक्टर महोबे से इलाज चलता रहा। बाद में तय किया गया कि मुझे इस वातावरण से दूर रखा जाए। सो पिताजी ने शहर से काफी दूर जैन हाईस्कूल में मेरे रहने की व्यवस्था की। चूंकि छुट्टियां चल रही थी लिहाजा स्कूल बंद था। अत: मेरे लिए एक क्लासरूम में फर्श पर बिस्तर लगा दिया गया। मां व मैं करीब दस दिन यहां रहे। घर से कभी बडे भाई तो कभी पिताजी भोजन का टिफिन लेकर आते थे।

धीरे-धीरे सांस की तकलीफ कम होती चली गई। इससे यह समझ में आया कि उमस भरा वातावरण मेरे लिए अनुकूल नहीं है लिहाजा बाद में मेरे लिए कालेज के निकटस्थ लेबर कालोनी में एक रूम, किचन वाला मकान किराए पर लिया गया जहां मैं व बडे भैया रहने लगे। पिताजी रोज शाम को अकेले या अपने किसी न किसी मित्र के साथ मुझे देखने आया करते थे। निरंजन महावर जी का स्मरण है। रायपुर से वे पिताजी से मिलने आते थे और फिर दोनों पैदल ही लेबर कालोनी आते और कुछ देर बैठकर चले जाते। समय मिलने पर शाम के समय मां भी आ जाती थी।

कहना न होगा कि वहां रहने से दमा करीब करीब खत्म हो गया। मैं व भैया घर आ गए। मैं ठीक हो गया लेकिन दुर्भाग्य से पिताजी बीमार पड गए। एकाएक उन्हें पैरेलिसिस ने जकड लिया। उनके शरीर का आधा भाग चपेट में आया, संवेदनाशून्य हुआ। पिताजी न तो घबराए और न विचलित हुए। पर उनकी पीडा थी वे लिख-पढ नहीं पा रहे थे। यह स्थिति अंंत तक बनी रही।

पलंग पर शिथिल पडे बाबू साहेब को देखकर मन उदास हो जाता था। भले ही हम छोटे थे पर पिता को बीमार देखकर चिंता स्वाभाविक थी। अनायास मुझे इतिहास का वह किस्सा याद आने लगा कि कैसे मुगल बादशाह बाबर ने अपने बीमार बेटे हुमायूं की जिंदगी बचाने के लिए अल्लाह से दुआ मांगी, प्रार्थना की जो अंततः कुबूल हुई। उन्होंने कहा होगा ईश्वर मेरे प्राण ले ले पर बेटे को जीवन बख्श दे। इतिहास गवाह है कि इस घटना के बाद हुमायूं धीरे धीरे ठीक हो गए लेकिन बादशाह बीमार पड़ गए और आखिरकार चल बसे।

क्या मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ घटित हुआ ? यह बात भले ही तर्कसंगत न लगे पर मेरे अवचेतन मन में यह बात बैठी हुई है। अतः इतिहास के इस किस्से को अपने साथ जोड़ ही सकता हूं। दरअसल एक दिन मैं घर की विशाल खिडकी के चबूतरे पर बैठा था। रात हो चली थी। पिताजी कही बाहर गए हुए थे। उसी समय लौटे। मुझे देखकर उन्होंने अपने जाकिट से फोटो निकाल और मुझे दिया। यह उनका अंतिम फोटो था जो पता नहीं क्यों और किसलिए बाहर किसी से खिंचवाया था। फोटो में वे प्रफुल्लित नजर आ रहे थे। मुझे खुश होना चाहिए था लेकिन पता नहीं क्यों मन भीग सा गया। क्या यह भविष्य की ओर कोई संकेत था ?

खैर उनकी बीमारी की खबर लगते ही उनके मित्र गण उनके बेहतर इलाज की व्यवस्था करने में जुट गए। प्रारंभ में राजनांदगांव में ही इलाज चला पर उनकी स्थिति में कोई फर्क नहीं पडा। उस समय द्वारका प्रसाद मिश्र मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। सर्वश्री हरिशंकर परसाई, शरद जोशी , शरद कोठारी तथा अन्य साहित्यिक मित्रो की मदद के फलस्वरूप सरकारी खर्चे पर हमीदिया हास्पीटल में इलाज की व्यवस्था हुई तथा प्रायवेट वार्ड में पिताजी को शिफ्ट कर दिया गया। साथ में मां थी ही। बाद में बडे भैया के साथ हम लोग भी भोपाल पहुंच गए। एक दिन दादी भी पहुंची। कुछ दिन रहने के बाद वे नागपुर चली गईं।

पिताजी की स्थिति गंभीर है, इसका हमें अहसास नहीं था। दरअसल प्रारंभ में उन्हें दवाओं से फायदा हो रहा था। हमने देखा था बिस्तर से उठकर वे लोगों का सहारा लेकर दो चार कदम चलने लगे थे। लेकिन फिर बिस्तर से लग गए। उनकी स्थिति दिन ब दिन बिगडती चली गयी। अतः यह तय हुआ कि उन्हें दिल्ली ले जाना चाहिए। दिल्ली में श्रीकांत वर्मा ,अशोक वाजपेयी व अन्य मित्रो ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी से बातचीत की लिहाजा पिताजी को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान एम्स में भर्ती करने हरि झंडी मिल गई। पिताजी को भोपाल से दिल्ली शिफ्ट करने की तैयारी शुरू हो गई। करीब आठ-नौ महीने तक पिताजी की बीमारी के दौरान तमाम मित्रो व प्रेमी साहित्यिकों ने उनकी जिस तरह मदद की , जिस तरह साथ दिया , वह अद्भुत है, बेमिसाल है।

भोपाल के हमीदिया अस्पताल में वे जब तक रहे दोस्तों का आना जाना सतत चलता रहा। किसी दोस्त ने उन्हें अकेला नहीं छोडा। परसाई जी ने एक तरह से तो भोपाल में ही डेरा डाल दिया। वे काफी दिन रहे। महत्वपूर्ण बात यह है कि मित्र की सलामती के लिए, बेहतर से बेहतर इलाज के लिए जो सामूहिक प्रयत्न उनके दोस्तों व आत्मीयजनों ने उस दौर में किए , मुझे नहीं लगता कि इस दौर में कोई मित्र मंडली भरपूर आत्मीयता के साथ ऐसा कर सकती है। अब तो कन्नी काटकर पतली गली से निकल जाने का जमाना है, हालांकि अपवाद तो हर जगह होते ही हैं।

बहरहाल भोपाल रेलवे स्टेशन का वह अंतिम दृश्य आंखों के सामने है। जब पिताजी को ट्रेन की बर्थ पर लिटाया गया तो वे अर्द्ध बेहोशी की हालत में थे। बहुत दुबले हो गए थे। गाल पिचक गए थे। हम उनके पास बैठ गए थे। चुपचाप उन्हें देखते रहे। मन कुछ भरा हुआ था पर जरा भी ख्याल नहीं आया कि आगे हम उन्हें कभी नही देख पाएंगे। पर यही सच था। सच। यह उनका अंतिम जीवित दर्शन ही था।

पिताजी के साथ मां और बडे भैया दिल्ली गए। हमारी जिम्मेदारी पिताजी के अनन्य मित्र प्रमोद वर्मा जी ने उठा ली थी। वे हमें ट्रेन से भोपाल से भिलाई ले आए। वे दुर्ग के सरकारी महाविद्यालय में प्रोफेसर थे। उनके छोटे भाई भिलाई स्टील प्लांट में अफसर थे। उइस नाते उन्हें बडा सा क्वार्टर मिला हुआ था। उनका संयुक्त परिवार था जिसमें हम भी शामिल हो गए।

11 सितंबर 1964। रेडियो पर खबर चली। हमने नहीं सुनी। बस प्रमोद जी ने हमें पास बुला लिया। एकदम पास। बोले कुछ नहीं। हम समझ गए, पिताजी नहीं रहे।

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