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साहित्य

पार्ट-1 : जाने-माने साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी उनके बेटे की ज़ुबानी

दिवाकर मुक्तिबोध-

पिताजी की आज जयंती है जिन्हें हम बाबू साहेब कहते थे। यों उन्हें याद करने किसी खास दिन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उनकी व मां शांता जी की स्मृतियां इस जिंदगी में , इस जिंदगी तक ह्रदय में बसी हुई है, बसी रहेगी। फिर भी जन्मदिन अद्भुत तो होता ही है जो अपार खुशियां भी देता है और अपनों की यादें भी जीवंत करता है। बाबू साहेब के संदर्भ में आज ऐसा ही दिन हैं जिन्हें हमने 59 वर्ष पूर्व , 11 सितंबर 1964 में खो दिया था।

अपनी किशोरावस्था तक उनकी छत्रछाया में रहते हुए उनके साथ जितना भी समय बीता वह अब स्मृतियों के रूप में है और जिन्हें मै अलग-अलग अवसरों पर शब्दों के जरिए व्यक्त करने की कोशिश करता रहा हूं। शब्दों का यह मुकम्मल सफ़र पूरा हुआ मेरी किताब ‘ एक सफ़र मुकम्मल ‘ में। संभावना प्रकाशन हापुड़ से संस्मरणों की यह पुस्तक पिछले वर्ष के अंत में प्रकाशित हुई थी। चूंकि आज बाबू साहेब का जन्मदिन है लिहाज़ा मैंने बेहतर समझा इस किताब में संकलित पिताजी पर स्मृति लेख जो कि पांच किस्तों में है, पोस्ट किया जाए विशेषकर उनके लिए जो अपने युगदृष्टा कवि के व्यक्तित्व के बारे में, उनके पारिवारिक जीवन के बारे में कुछ जानना चाहते हैं। संस्मरण में मां का भी उल्लेख है अतः शीर्षक में पहले मां फिर पिताजी।

(5 किस्तों की पहली कड़ी)

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मां , पिताजी व मैं – 1

-दिवाकर मुक्तिबोध

स्थान – नागपुर। वर्ष संभवतः 1954-55

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नयी शुक्रवारी का कच्चा मकान। परछी। बैठक के नाम पर जमीन पर दरी बिछी हुई। पिताजी का लकडी का टेबल व मजबूत टीन की काली कुर्सी। भीतर के कमरे का भूगोल याद नहीं, गृहस्थी का सामान भी याद नहीं अलबत्ता पीछे कच्चा आंगन, शौचालय व नहानीघर। मेरी उम्र 5-6 बरस। घर में कुल पांच प्राणी। मैं, मां , पिताजी ,बडी बहन उषा व छोटी सरोज। बहुत प्यारे घुंघराले केश थे सरोज के। एकदम गुडिय़ा, प्यारी गुडिया। लेकिन हम क्या खेलते थे, कुछ भी याद नहीं। वो जल्दी चली गई पर आंखों के सामने से उसका चेहरा कभी ओझल नहीं होता।

प्रायः रोज का दृश्य। रात होने के पहले मां खाना वगैरह बनाकर , हमें खिलाकर, बाहरी दरवाजे के ऊंबरठे पर बैठे बैठे पिताजी की बाट जोहती। कभी घंटे, दो घंटे। हम सो जाते। पता नहीं पिताजी कब आते, कब खाना खाते। कब सोते। सुबह हम उठते तो देखते थे , वे कुर्सी या दरी पर पालथी मारकर बैठे हुए हैं। आगे-पीछे डोलते हुए कविताएं पढते या कुछ लिखते नजर आते। इस प्रक्रिया से मेरा कोई सरोकार नहीं था। बच्चा था। कोई समझ नहीं थी।

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फिर मैं उन्हें पीतल की दो बाल्टियां लिए दूर कुएँ की ओर जाते देखता। उघडी छाती , चेहरे से टपकता व शरीर को भिगोता हुआ पसीना व तेज गति के कारण बाल्टियों से छलकता पानी घर तक पहुंचते पहुंचते कम हो जाता। कितने चक्कर होते होंगे, पता नहीं पर यह रोजमर्रा के कामों व पीने के पानी के लिए कसरत थी।

बबन काका यानी शरत्चन्द्र माधव मुक्तिबोध। पिताजी के छोटे भाई। परिवार सहित नागपुर मे ही थे। बाद में जाना वे भी कवि आलोचक थे। मराठी में लिखते थे। उनका निवास राम मंदिर गली मोहल्ले में था। हमारे घर से नजदीक ही। हमारा उनके यहां आना जाना था। पिताजी के एक मित्र थे। कामरेड मोटे। उनकी पत्नी वत्सला बाई मोटे। मां की एकमात्र नजदीकी मित्र। उनका घर भी पास में ही था। पैदल पांच मिनट का रास्ता। हम सभी उनके यहां जाया करते थे।

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नयी शुक्रवारी में जो व्यक्ति लगभग रोज , कभी सुबह कभी रात आया करते, वे थे शैलेंद्र कुमार किनारेवाले। दुबले पतले ,ऊंचे , एकदम सीधी लंबी नाकवाले। नागपुर नवभारत के संपादक। पिताजी के खास मित्र। उनका भी घर निकट ही था इसलिए पिताजी व शैलेन्द्र जी जुम्मा टैंक की सीढियों पर भी देखे जाते थे। बातचीत में मशगूल। हालांकि मैंने कभी कभार देखा होगा। पर कुछ याद नहीं। जब पिताजी को घर आने में देर होती तो मां कहती – दोनों वहीं होंगे।

जब मैं सात का हुआ तो स्कूल में दाखिले का चक्कर चला। श्री से शुरुआत। स्लेट पट्टी पर बडा सा श्री मां लिखकर देती थी। श्री को उसके भूगोल के अनुसार पैंसिल से घिसते रहो व जोर जोर से उच्चारण करते रहो श्री श्री श्री। उन दिनों श्री लिखना भी कितना कठिन था। वाकई बुद्धि के विकास की गति बहुत धीमी थी।

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अब बारी आई स्कूल जाने की। उसी स्कूल में जहां बहन ऊषा तीसरी कक्षा में थी। स्कूल जाने के नाम पर मैं खुश था। पिताजी ने हाथ पकड़ा, झोला उठाया जिसमें स्लेट पट्टी थी। मां दरवाजे तक आई। पहली बार बच्चा स्कूल जा रहा था। वह प्रसन्न थी या चिंतातुर, कहना मुश्किल है। मुझे लगता है दोनों का मिला-जुला भाव रहता होगा। बहरहाल आनंद से उडता मन स्कूल के नजदीक आते ही भयातुर हो गया। मैंने पिताजी का हाथ कसकर पकड़ा। पिताजी समझ गए। बोले कुछ नहीं। बोलते तो शायद मैं रोना शुरू कर देता।

फिर भी मैं रोया। हुआ यों कि स्कूल पहुंचने के बाद पिताजी जी ने मास्टर जी से कुछ बातचीत की। मास्टर साहब ने भरी-पूरी कक्षा में मुझे भी फर्श पर बैठा दिया। पिताजी बिना मुझपर नजर डाले , लंबे लंबे डग भरते चले गए। वे गए तो मैंने रोना शुरू कर दिया और उनके पीछे भाग लिया। सडक पर मैं रोता जा रहा था, उनकी पीठ दिख रही थी। पता नहीं कब मेरे रोने की आवाज उनके कानों में पडी । इसका जैसे ही उन्हें अहसास हुआ, उन्होंने पलटकर देखा। आश्चर्यचकित हुए। फिर उन्होंने मुझे कंधे पर उठा लिया। घर वापस। स्कूल का भूत मेरे सिर से उतर गया। सामान्यतः पहली बार स्कूल जाने वाले हर बच्चे के साथ यही होता है। रोना धोना व धीरे धीरे शांत हो जाना। व स्कूल का एक आदत बन जाना। वह बनी पर सशर्त।

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दरअसल मेरी स्थिति कुछ विकट थी। स्कूल नहीं जाऊँगा, मतलब नहीं जाऊँगा। भयानक जिद्द। इसका हल यह निकाला गया कि मेरी बहन को तीसरी से निकालकर मेरे साथ पहली में बैठा दिया गया। बहन का साथ मिलने से मेरा मनोबल बढा। उसकी अवनीति मेरे कारण हुई फिर वह ताउम्र मेरे पीछे ही रही। जीवन में कुछ ज्यादा सुख नहीं मिला उसे।

एक दिन हम दोनों स्कूल जाने निकले पर गए नहीं। किराना दुकान जहां उधारी चलती थी, वहां से एक पाव फल्लीदाना खरीदा व मजे से खाते हुए सडक नापते रहे। यथा समय घर पहुंच गए। घर मे किसी को हवा नहीं लगी। लगी रहती तो मार पडती। जो नहीं पडी यानी फल्लीदाना हजम हो गया।

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एक दिन एक नया लडका घर में नजर आया। मां ने बताया तुम्हारा बडा भाई है – रमेश। मुझे आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई। कोई बडा भाई भी है ! मां ने कहा -उज्जैन में दादाजी के यहां रहता था। अब हमारे साथ नागपुर में ही रहेगा। पढेगा।

स्थान – नागपुर। मोहल्ला गणेश पेठ। वर्ष अंदाजन 1956-57

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नयी शुक्रवारी की तुलना में पक्का व सुघड़ मकान। बडा सा हाल व रसोईघर। बाडानुमा। आजूबाजू दो तीन किराएदार। साामने खुला मैदान और पास में ही मंदिर। बच्चे थे इसलिए पारिवारिक, आर्थिक तकलीफें क्या थीं, उसका अहसास नहीं हो सकता था। बचपन यानी दिनदुनिया से बेखबर। केवल अपने में मस्त। दो वक्त खाना मिल जाता था व खेलने के लिए भरपूर समय। हां शाम होने के पूर्व घर आओ। हाथ-पैर धोकर भगवान के सामने प्रार्थना के लिए बैठ जाओ। प्रार्थना के बाद पहाडों का जोर जोर से उच्चारण करो। सवा, अद्धा, पौना और पता नहीं क्या क्या। भोजन करने बैठो तो पहले ईश्वर की आराधना। खाना भरपूर नहीं मिलेगा। नपा-तुला। ओव्हर इटिंग नहीं होनी चाहिए। बहुत जिद्द की तो एकाध रोटी और। चलो उठो। हाथ मुंह धो व पढने बैठो। सोना नहीं। ये मां प्रायः कहा करती थीं।

अनुशासन में रहते थे, इसलिए मार-वार नहीं पडती थी। मां पिताजी कभी नहीं डांटते थे। पिटाई का तो प्रश्न ही नहीं। सिर्फ यह देखा जाता था पढने बैठे हैं कि नहीं। जब मैं कुछ बडा हुआ ,राजनांदगांव में कापी के भीतर जासूसी उपन्यास रखकर पढता था। शौचालय जाते समय हाफ पैंट में पेट में छिपाकर किताब ले जाता, पढता। जब देर हो जाती, मां चिल्लाती-जल्दी निकल। असल में पिताजी भी शौचालय में अंग्रेजी का अखबार ले जाते थे। उनकी देखादेखी मैं भी ऐसा करता था, ऐसा नहीं है। वस्तुतः जासूसी किताबें मुझे इस कदर प्रिय थी कि मैं कोई मौका छोडना नहीं चाहता था। नहीं छोडता था।

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बहरहाल गणेश पेठ वाले मकान में ज्यादा मौज थी। खेलने के लिए रमेश भैया का साथ था। पतंगबाजी व कंच्चियां खेलने में आनंद ही आनंद था। नाली में कंच्ची गई तो हाथ डालकर कीचड से निकालते थे। तरह तरह की गंदगी से सनी हथेली देखकर जिसमें मैला भी लगा हुआ रहता था, कोई घिन नहीं आती थी , ऐसा कुछ भी महसूस नहीं होता था बल्कि कंच्ची ढूंढकर निकलने का आनंद अलग था। भैया भी ऐसा ही करते थे। दिन ढलने के बाद शाम को हम कंच्चियां गिनने बैठ जाते थे व जीतीं हुई कंच्चियों को गिनकर खुश होते। कांच की कंच्चियों के साथ ही हमारे खेलों में शुमार थे लपा छिपी , गिल्ली डंडा व पतंगबाजी। सबसे अधिक मजा व रोमांच पतंग उडाने, पेंच लडाने व कटी पतंगों को लूटने में आता था। मेरा काम था चक्री पकडना और भैया का पतंग उडाना, पेंच लडाना। जब पतंग न होती तो हम अपनी गच्ची पर पहुंच जाते व घंटों आकाश की ओर ताकते रहते , इस उम्मीद के साथ कि कोई पतंग कटकर हमारी छत पर आ जाए या धागे सहित छत से गुजरे और हम उसे पकड़ लें या नहीं तो मांझा ही लूट लें। ऐसे ही एक बार हमने छत से गुजर रही पतंग को पकडने की कोशिश की। नीचे हल्ला सुनाई दिया। गालियों की बौछार हुई। घबराकर पतंग छोड़ दी। कुछ लडके धमकियां देकर चले गए थे। एक दो घर के सामने रूके हुए थे। उनकी चिल्लाहट हमारे कानों में पड रही थी – ‘ नीचे आओ , देखते हैं, तुम दोनों को। ‘ दरअसल यह पूरा गैंग था जो अपनी कटी पतंगों व मांझे को लूटने से रोकने के लिए मारपीट पर उतारू हो जाता था। उनकी आवाजें सुनकर मां बाहर आई। जैसे तैसे उन लडकों को शांत कर दिया गया। मैं आतंकित था। नीचे आया। मेरी रोनी सूरत देखकर मां कुछ नहीं बोली। कुछ देर बाद भाई साहब मुझे गार्डन ले गये। भय कुछ कम हुआ और बाद में मैने छत से गुजरती कटी पतंगों व मांझे को लूटना छोड दिया।

1 नवंबर 1956 में नया मध्यप्रदेश बनने के बाद पिताजी का तबादला आकाशवाणी नागपुर से भोपाल हो गया। उनके भोपाल जाने की तैयारी हुई। फिलहाल हम लोग नहीं जा रहे थे। बिस्तर बंधकर तैयार हो गया। टिन की पेटी भी तैयार। रेल्वे स्टेशन के लिए निकलने ही वाले थे कि स्वामी कृष्णानंद सोख्ता आ गए। उस दौर के तेजस्वी साप्ताहिक अखबार ‘ नया खून ‘के मालिक स्वामी जी घर आया करते थे। ऊंचे पूरे व खूब मोटे स्वामी कृष्णानंद सोख्ता जी के सिर पर केश नहीं थे। खोपड़ी एकदम सफाचट। आते ही सबसे पहले वे अनुज दिलीप जो उस समय करीब तीन साल का था, अपने कंधे या सिर पर बैठा लेते व मस्ती चलती रहती। जब वे आए तो पिताजी को रूकना पडा। पता नहीं दोनों के बीच क्या बातचीत हुई पर थोड़ी देर बाद मैंने देखा, रस्सी से बंधा बिस्तर खुल गया था और पेटी भीतर कमरे में पहुंचा दी गई थी। बाद में मां ने बताया पिता आकाशवाणी की नौकरी छोड़ देंगे व स्वामी कृष्णानंद सोख्ता जी के साथ नया खून में काम करेंगे।

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