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पार्ट 2 : हेमंत शर्मा और अजीत अंजुम की जुगलबंदी के चर्चे हर जुबान पे!

Ajit Anjum

हेमंत जी को मजे लेने और मजेदार लिखने के लिए हमेशा कोई किरदार चाहिए. दीपावली की पूर्व संध्या पर उनके घर जमी जुए की महफ़िल में एक मात्र मैं ही था, जो इस विधा के बारे में उतना ही जानता था, जितना इतिहास का विद्यार्थी न्यूक्लिर साइंस के बारे में. क्या खेलते हैं? क्यों खेलते हैं और कैसे खेलते हैं? ऐसे हो सवालों के साथ दोस्तों की ऐसी महफिलों में मैं गाहे बगाहे अन्यमनस्क भाव से बैठा ज़रूर हूं लेकिन कभी न तो समझ पाया, न समझने की कोशिश की.

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बैठा इस बार भी लेकिन हेमंत जी की किस्सागोई का किरदार बनकर, जिसका अहसास उन्हें पढ़कर हुआ. मेरे हिस्से का जुआ खेला भी उन्होंने और जीता भी उन्होंने. मैं अबूझमाड़ महफ़िल में तमाशबीन बनकर बैठा ज़रूर रहा. जब कोई जीतता तब भी मुझे समझ नहीं आता कि क्यों जीता और हारता तब भी नहीं. हेमंत जी पक्के खिलाड़ी हैं सो दो का चार बनाकर मुझे अगले दिन थमा गए. पढ़िए उनका लिखा- आधी हकीकत, आधा फसाना. वैसे जुए के बहाने जुए का जो वर्णन उन्होंने किया है, वो उनके ज्ञान की अतल गहराइयों से निकला है, बाकी तो बहाना है. कलमकारी में तो उनका कोई जवाब नहीं है, ये हम जनसत्ता का दिनों से मानते /जानते रहे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम की एफबी वॉल से.

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Hemant Sharma

जुए के अंजुम

बचपन में सुना था कि दीपावली में अगर जुआ न खेला तो अगला जनम छछून्दर का होता है। तो छछून्दर के जन्म से बचने के लिए घर पर ही मित्रो के साथ जुए की फड़ जमी। मित्रवर अजीत अंजुम भी मौका ए वारदात पर थे। अजीत जी ने कहा मै दर्शक के तौर पर ही खेल में शामिल हो सकता हूँ। मुझे पत्तों की समझ नही है। सिर्फ़ बेगम और ग़ुलाम को पहचानता हूँ। मैंने कहा इसमें क्या बड़ी बात है। बेगम और ग़ुलाम का तो अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। ग़ुलाम के बग़ैर किसी बेगम का अस्तित्व ही नहीं है। मैंने जब उन्हें इस मान्यता के बारे में बताया कि जुआ न खेलने से अगला जन्म छछून्दर का होगा तो छछून्दर योनि से बचने के लिए अजीत खेलने को राज़ी हो गए।

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अब अजीत की शर्त थी कि मै खेलूंगा तो, पर सीधे नही। आपके पत्तों पर दांव लगाऊंगा। आज की व्यवस्था में दूसरों पर दांव लगाना शायद सबसे ज़्यादा आसान है। वैसे भी मेरे उपर अब तक दूसरे ही दाँव लगाते रहे है। मैंने अजीत जी को समझाया थोड़ी कोशिश करने से सीख जायेंगे। आख़िर बाबा रामदेव भी तो कहते है- ‘करोगे तभी तो होगा।’ मैंने कहा कि एक अच्छे जुआरी में जो गुण होने चाहिए वो आपमें है। मसलन चातुर्य, कौशल, सतर्कता, धैर्य, प्रत्युत्पन्नमति और छल से प्रतिपक्षी को परास्त करके उसका सर्वस्व हरण करना। इसमें छल वाला मामला आपका कमजोर है। पर बाक़ी के तो आप उस्ताद हो।

मगर फिर वही ढाक के तीन पात। अजीत करेंगे सब, पर परसेप्सन न बिगड़े इसकी चिन्ता उन्हे बहुत रहती है। वे सिर्फ इस बात से परेशान थे कि कोई देखेगा तो क्या सोचेगा। मैंने कहा इसमें क्यो परेशान होते हैं। यह कोई अपराध नहीं है। ये ढीले चरित्र का खेल भी नही है। इसे मानवजाति का प्राचीनतम खेल कह सकते हैं। अब भला इससे अधिक मनोरंजक और रोमांचकारी खेल क्या हो सकता है जो कुछ ही देर में राजा को रंक और रंक को राजा बना दे!

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बड़ी हील हुज्जत के बाद अजीत खेलने पर राज़ी हुए। पत्ते बँटने लगे पर अब माकूल पत्ते नही आ रहे थे। वे अधीर हो उठे। हालांकि वे अक्सर इसी अवस्था में रहते हैं। मैंने उन्हे बताया, अंग्रेज़ी की कहावत है कि जो लोग ताश के पत्तों में नाकाम रहते हैं, वे मोहबब्त में बड़े कामयाब रहते है। और जो मोहब्बत में नाकाम रहते है वे कार्डस् में कामयाब रहते हैं। अजीत का भी यही कहना था कि मोहब्बत में मैंने बड़े बड़े झन्डे गाड़े हैं इसीलिए ताश के पत्ते साथ नही दे रहे है। अजीत के जीवन का यह पक्ष बड़ा भड़कीला है। रेखिया उठान के दिनों से ही भाई साहब इश्क़ के दरिया में कूद गए थे। रेखिया उठान का मतलब जब जवानी की पहली दस्तक के तौर पर मूँछों की हल्की रेखा दिखलायी देनी शुरू हो जाए। बारहवी में पढ़ते थे। मुहल्ले में ही चक्कर चल गया। इसे आप लालटेन प्रेम कह सकते है। इसमे दोनों तरफ़ से छत पर चढ़कर लालटेन दिखायी जाती थी। फिर संकेतों के आदान प्रदान के बाद केले के खेत में मिलना होता था। मगर एक दिन दूसरे पक्ष की माता ने देख लिया। अब जैसा हर प्रेम कहानी में होता है, समाज प्रेम का दुश्मन बना। मिलना जुलना बन्द हुआ। इनके भी सब्र का बाँध टूटा। दुनाली बन्दूक़ लेकर उसके घर चढ़ गए। फिर हुआ बवाल। कहानी का दुखान्त हुआ। लड़की ग़ायब हो गयी। ऐसे दो तीन क़िस्से और हुए। कोई परवान नही चढ़ा। पर अन्तिम मुहब्बत शादी में तब्दील हो गयी और अजीत मुहब्बत के सिकन्दर निकले।

मै भी कहां भटक गया। द्यूतकथा बताने चला था और प्रेमकथा बता गया। आप चाहें तो इस पर भरोसा नही भी कर सकते है। बहरहाल ताश के खेल में अब अजीत के पत्ते आने लगे थे। मगर अब वो फिर से परेशान कि पत्ते आ रहे हैं। कही मैं अगली मुहब्बत में नाकाम न हो जाऊँ! मैंने कहा अब इस उम्र में क्या मुहब्बत, उल्टे “मी टू” हो जायगा, मियां। अब तो चला चली की बेला है। अजीत बोले, यह बेला होगी आपकी। अभी अपनी दुकान सजी हुई है। अब अजीत जीतने लगे थे। जुआ दीपावली का शगुन माना जाता है। अगर दीपावली में जीते तो साल भर जीतेंगे। यानी अंजुम जी का घोड़ा अगले एक बरस तक सरपट दौड़ेगा। ये अब तक तय हो चुका था।

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अजीत के घर पर इतिहास की किताबों की भरमार है। वे मुगलकाल से लेकर आधुनिक काल तक किसी भी तीसमारखाँ व्यक्ति का इतिहास ज़ुबान पर रखते हैं। किसी व्यक्ति विशेष के इतिहास के बारे में उनकी जानकारी का इम्तिहान यक्ष भी नही ले सकते। उस व्यक्ति को भी अपने बारे में इतना नही मालूम होगा जितना अजीत बता जाएंगे। वो भी उससे एक बार भी मिले बगैर। सो उनकी पसंद के इस राजमार्ग पर चलते हुए थोड़ा जुए के इतिहास में भी घूम लेते हैं। जुए की परम्परा सदियों पुरानी है। ईसा से तीन हज़ार साल पहले मेसोपोटामिया में छह फलक वाला पाँसा पाया गया। इसी के आसपास मिस्र के काहिरा से एक टैबलेट मिला, जिस पर यह कथा उत्कीर्ण है कि रात्रि के देवता थोथ ने चन्द्रमा के साथ जुआ खेल कर ५ दिन जीत लिए जिसके कारण ३६० दिनों के वर्ष में ५ दिन और जुड़ गए। चीनी सम्राट याओ के काल में भी १०० कौड़ियों का एक खेल होता था जिसमें दर्शक बाज़ी लगा कर जीतते हारते थे। यूनानी कवि और नाटककार सोफोक्लीज़ का दावा है कि पाँसे की खोज ट्रॉय के युद्ध के समय हुई थी। मुझे इस पर भरोसा नही है। मैं इस विद्या की जन्मस्थली भारत को मानता हूँ। हमारे यहां द्यूत-क्रीड़ा को ६४ कलाओं में आदरणीय स्थान दिया गया और इसका पूरा शास्त्र विकसित किया गया।

अजीत को जुए की परम्परा की ऐतिहासिकता और शास्त्रीयता से वाकिफ कराने के लिए मुझे काफी रिसर्च करनी पड़ी। ये अलग बात थी कि अजीत थोड़ी ही देर में “जुआ”लोजी की थ्योरी का पर्चा छोड़कर सीधे प्रैक्टिकल में तल्लीन हो गए। मैं जुए के इतिहास की किताबें उलट रहा था। वे जुए के पासे पलट रहे थे। शस्त्र अब शास्त्र पर हावी हो चुका था। बावजूद मेरी रिसर्च जारी थी।

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ऋग्वेद के १०वें मण्डल में भी जुए का ज़िक्र है। ‘जुआड़ी का प्रलाप’ के सूक्त ३४ के कुछ अंश इस प्रकार हैं- “मैं अनेक बार चाहता हूँ कि अब जुआ नहीं खेलूँगा। यह विचार करके मैं जुआरियों का साथ छोड़ देता हूँ परंतु चौसर पर फैले पाँसों को देखते ही मेरा मन ललच उठता है और मैं जुआरियों के स्थान की ओर खिंचा चला जाता हूँ।”

“जुआ खेलने वाले व्यक्ति की सास उसे कोसती है और उसकी सुन्दर भार्या भी उसे त्याग देती है। जुआरी का पुत्र भी मारा-मारा फिरता है जिसके कारण जुआरी की पत्नी और भी चिन्तातुर रहती है। जुआरी को कोई फूटी कौड़ी भी उधार नहीं देता। जैसे बूढ़े घोड़े को कोई लेना नहीं चाहता, वैसे ही जुआरी को कोई पास बैठाना नहीं चाहता।”

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“जो जुआरी प्रात:काल अश्वारूढ़ होकर आता है, सायंकाल उसके शरीर पर वस्त्र भी नहीं रहता।.”हे अक्षों (पाँसों)! हमको अपना मित्र मान कर हमारा कल्याण करो। हम पर अपना विपरीत प्रभाव मत डालो। तुम्हारा क्रोध हमारे शत्रुओं पर हो, वही तुम्हारे चंगुल में फँसे रहें!”

“हे जुआरी! जुआ खेलना छोड़ कर खेती करो और उससे जो लाभ हो, उसी से संतुष्ट रहो!”

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पूरे संसार के प्राचीन साहित्य को खंगाल डालिए, द्यूत-क्रीड़ा का ऐसा सुन्दर काव्यात्मक वर्णन नहीं मिलेगा। यद्यपि वैदिक ऋषि ने पहले ही सावधान कर दिया कि जुए का दुष्परिणाम भयंकर है, लेकिन इसका नशा ऐसा है कि इसके आगे मदिरा का नशा भी तुच्छ है। अजित की शुरुआती ना नुकुर देखकर मुझे लगा था कि शायद ऋग्वेद का दसवां मण्डल उनको आगाह करने के लिए ही लिखा गया है। वैसे उनकी चिंताएं इतनी बेबुनियाद भी नही थीं। जुए के चलते ही महाभारत हो गयी।

जुए के खेल में जिस चालाकी और धोखेबाज़ी की जरूरत पड़ती है वैसी बुद्धि युधिष्ठिर के पास नही थी। जबकि शकुनि इस कला में अत्यंत निपुण था। यह जानते हुए भी वे दुर्योधन के निमंत्रण पर जुआ खेलने को तैयार हो गए और राजपाट व अपने भाइयों समेत खुद को तथा द्रौपदी को भी हार गए। उनकी इसी मूर्खता की वजह से द्वापर का सबसे विनाशकारी युद्ध हुआ। नल और दमयंती की कहानी भी इसी से मिलती जुलती है।

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संस्कृत व्याकरण की मूल किताब पाणिनि (५०० ई.पू.) के ‘अष्टाध्यायी’ में भी जुआ मौजूद है। पाणिनि ने जुए के पाँसों को अक्ष और शलाका कहा है। अक्ष वर्गाकार गोटी होती थी और शलाका आयताकार। तैत्तरीय ब्राह्मण और अष्टाध्यायी से अनुमान होता है कि इनकी संख्या पाँच होती थी जिनके नाम थे-अक्षराज, कृत, त्रेता, द्वापर और कलि। अष्टाध्यायी में इसी कारण इसे ‘पंचिका द्यूत’ के नाम से पुकारा गया है। कोटियों के चित्त और पट गिरने के विविध तरीक़ों के आधार पर हार और जीत का निर्णय कैसे होगा, पाणिनी ने इसे भी समझाया है।

पतंजलि ने भी जुआड़ियों का ज़िक्र किया है और उनके लिए ‘अक्ष कितव’ या ‘अक्ष-धूर्त’ शब्द का प्रयोग किया है। अग्नि पुराण में द्यूतकर्म का पूरा विवेचन है। स्मृतियों में भी हार-जीत के नियम बताए गए हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से यह मालूम पड़ता है कि उस ज़माने में राजा द्वारा नियुक्त द्यूताध्यक्ष यह सुनिश्चित करता था कि जुआ खेलने वालों के पाँसे शुद्ध हों और किसी प्रकार की कोई बेईमानी न हो। जुए में जीत का ५ प्रतिशत राज्य को कर के रूप में चुकाना पड़ता था। कौटिल्य ने जुए की निन्दा की है और उन्होंने राजा को परामर्श दिया है कि वह चार व्यसनों शिकार, मद्यपान, स्त्री-व्यसन तथा द्यूत से दूर रहे। पुराणों में शिव पार्वती और कृष्ण और श्री के बीच हुए जुएँ का वर्णन है। कथा के अनुसार पार्वती ने शिव को जुए में हरा दिया था।

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स्कंद पुराण (२.४.१०) के अनुसार पार्वती ने यह ऐलान किया कि जो भी दीपावली में रातभर जुआ खेलेगा, उस पर वर्ष भर लक्ष्मी की कृपा रहेगी। दीपावली की अगली तिथि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा का नामकरण ही ‘द्यूत प्रतिपदा’ के रूप में कर दिया गया। याानि आज की तारीख। गीता के ‘विभूति-योग’ अध्याय में कृष्ण ने कहा है-“द्यूतं छलयतामस्मि” अर्थात “हे अर्जुन! मैं छल संबंधी समस्त कृत्यों में जुआ हूँ।” यानी जुआ भी कृष्णमय है। अजित अब तक जुए के खेल में गज़ब फुर्ती पकड़ चुके थे। मुझे लगा कि अगर वाकई बीते समय मे वापिस ले जाने वाली कोई टाइम मशीन होती तो अजित द्वापर काल मे लौटकर युधिष्ठिर के पाँसे भी ठीक कर देते। हालांकि वे दुर्योधन और शकुनि में झगड़ा भी लगवा सकते थे। ये काम वे बाखूबी करते आए हैं। एक टाइम मशीन के न होने से इतिहास एक भारी उलटफेर से वंचित रह गया। मुझे थोड़ा अफ़सोस हुआ।

मायावती ठीक ही मनु को गरियाती हैं। मनु महाराज ने ‘मनुस्मृति’ में यह लिख दिया कि जुए और बाज़ी लगाने वाले खेलों पर प्रतिबंध होना चाहिए। आपस्तंब धर्मसूत्र में जुए को केवल ‘अशुचिकर’ पापों की श्रेणी में रखा गया। ये पाप ऐसे हैं जिनसे आदमी जाति से बहिष्कृत नहीं होता। मज़ेदार बात यह है कि फलित ज्योतिष द्वारा जीविका साधन भी इसी श्रेणी का पाप है यानी ज्योतिष का धंधेबाज़ और जुआड़ी दोनों बराबर!! इसलिए मनु महाराज कुछ भी कहें, जुआडियो को घबराने की ज़रूरत नही है। शूद्रक के नाटक “मृच्छकटिकम्” में ‘संवाहक’ नामक जुआड़ी का बडा ही मनोरंजक वर्णन है। मृच्छकटिकम् के एक श्लोक से उस वक़्त के जुआड़ियों का चाल-चरित्र और जुए के प्रति उनके समर्पण का पता चलता है:-

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“द्रव्यं लब्धं द्यूतेनैव दारा मित्रं द्यूतेनैव,
दत्तं भुक्तं द्यूतेनैव सर्वं नष्टं द्यूतेनैव।”

(मैंने जुए से ही धन प्राप्त किया, मित्र और पत्नी जुए से ही मिले, दान दिया और भोजन किया जुए के ही धन से और मैंने सब कुछ गँवा दिया जुए में ही!)

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जुए का इतिहास तलाशते हुए मैं मुगलकाल तक आ पहुंचा था। अजीत जी जुए की कड़ी आलोचना करते हुए लगातार जुआ खेले जा रहे थे। मुझे वे एक दार्शनिक व्यक्ति लगे। उन्होंने जीवन के असली दर्शन को भीतर तक आत्मसात कर लिया था। मुग़ल काल में शतरंज, गंजीफा और चौपड़ खेला जाता था। राजाओं के यहाँ खूब जुआ खेला जाता था। लोग सब कुछ लुटा कर दरिद्र हो जाते थे। जुए में हारने वाले चोरी जैसे अपराधों में लिप्त हो जाते थे। यही सब देख कर कबीरदास जी ने कहा-“कहत कबीर अंत की बारी।हाथ झारि कै चलैं जुआरी।” इस्लाम में जुआ खेलना हराम कहा गया है, लेकिन इसके बावजूद अधिकांश मुस्लिम देशों में जुए पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लग सका।

इंग्लैण्ड में कभी जुए पर पूरा प्रतिबंध लगा रहा और अचानक १६६० ई. में चार्ल्स द्वितीय ने सभी को जुआ खेलने की अनुमति दे दी। चार साल बाद १६६४ ई. में क़ानून पास हुआ कि केवल धोखाधड़ी और बेईमानी से खेले जाने वाले जुए पर रोक रहेगी तथा कोई आदमी जुए का धन्धा नहीं कर सकेगा।बाद में तो ब्रिटिश सरकार ने लाटरी शुरू की जिसकी आय फ्रांस से हुए युद्ध में ख़र्च हुई। फ्रांस ने भी पेरिस में सीन नदी पर पत्थर के पुल-निर्माण का ख़र्च लाटरी से ही निकाला। भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल में “पब्लिक गैंब्लिंग एक्ट १८६७” लागू हुआ और कई राज्यों ने अपने क़ानून बना कर जुए पर रोक लगाई। स्वतंत्र भारत में भी जुआ खेलना दण्डनीय अपराध है लेकिन इसके क्रियान्वयन की स्थिति से सभी लोग परिचित हैं। भारत में सरकारी और निजी लाटरी का धंधा कई बार चला और बन्द हुआ। यह समझ के परे है कि सरकार प्रायोजित जुए में कोई बुराई नहीं और आम जनता खेले तो जेल की हवा खाए!

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“इस बार ब्लाइंड खेलते हैं”- अजीत ने ताश के पत्ते फेंटते हुए कहा। ताश के पत्तों का भी दिलचस्प इतिहास है। ताश के पत्तों के चलन से जुए की दुनियाँ में क्रान्ति आ गई। चीन में जुए का इतिहास कम-से-कम २५०० ई.पू. पुराना है। वहाँ तांग राजवंश (६१८-९०७ ई.) के दौरान ताश के पत्ते पाए गए। चौदहवीं सदी के अंत में मिस्र से ताश के पत्तों ने यूरोपीय देशों में प्रवेश किया। हुकुम, पान, ईंट और चिड़ी के ५२ पत्तों वाले ताश का इस्तेमाल सर्वप्रथम सन् १४८० में हुआ तबसे इन पत्तों की सज-धज और आकार-प्रकार में अनेक परिवर्तन हुए। ताश के तरह-तरह के खेल जैसे पोकर, ब्रिज, रमी आदि बहुत लोकप्रिय हुए। ख़ूबी यह है कि कई खेलों में रुपए-पैसे की बाज़ी लगाने की जरूरत नहीं है, इसलिए उन्हें जुए की कोटि में नहीं रखा जाता। जुए को लोग संयोग का खेल कहते है पर मेरे हिसाब से यह दक्षता का खेल है।

नतीजा कितना भी दु:खदायी हो, जुए के खेल का रोमांच और नशा ऐसा है कि वह आज दुनियाँ का सर्वाधिक पसंद किया जाने वाला खेल है। अमेरिका का शहर लॉस वेगास जुआ खेलने वालों का स्वर्ग है। वहाँ की यूनिवर्सिटी ऑफ नेवादा में जुए से संबंधित शोध केन्द्र के अलावा इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ गैंबलिंग एंड कॉमर्शियल गेमिंग की स्थापना हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद जुए का खेल पश्चिमी देशों की सांस्कृतिक विरासत का अंग नहीं बन सका। धरती पर केवल भारत ही ऐसा देश है जहाँ ऋग्वैदिक काल से लेकर आज तक द्यूत-क्रीड़ा की अविच्छिन्न परंपरा चलती आई। जुए को लेकर यहाँ जैसा उच्च कोटि का शास्त्र रचा गया, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।

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मेरी रिसर्च और अजीत के पर्स के बीच छिड़ी ये लड़ाई बड़ी एकतरफा तरीके से समाप्त हुई। मेरी रिसर्च अब खाली हो चुकी थी। अजीत की पर्स भारी हो चली थी। वे अब भी अड़े हुए थे कि जुआं बहुत खराब चीज़ होती है। व्यक्ति को बिखेर देती है। समाज को नष्ट कर देती है। यह कहते हुए उन्होंने पर्स में बिखरे हुए नोटों को व्यवस्थित तरीके से लगाया और उठ गए। अजीत जीत कर गए।

वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा की एफबी वॉल से.

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इसके पहले और बाद का पार्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें…

हेमंत शर्मा और अजीत अंजुम की जुगलबंदी के चर्चे हर जुबान पे…. पार्ट वन

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पार्ट 3 : हेमंत शर्मा और अजीत अंजुम की जुगलबंदी के चर्चे हर जुबान पे!

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