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सियासत

मैंने मोदी को वोट दिया था पर अब लगता है देश की लुटिया डूबने वाली है!

वैसे तो किसी भी देश में एक साथ कई नाम ऐसे होते हैं जो चर्चित होते हैं लेकिन इस समय देश में यदि कोई नाम सबसे ज्यादा चर्चित है तो वह है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि टॉप टेन चर्चित नामों की लिस्ट बनाने के लिए कहा जाए तो एक से दस नंबर तक नरेंद्र मोदी का ही नाम लिखना पड़ेगा। दूसरा नाम वास्तव में ग्यारहवें नंबर पर आएगा। प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदा लोकप्रियता देश के लिए जितनी अच्छी है उतनी ही बुरी भी है।

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वैसे तो किसी भी देश में एक साथ कई नाम ऐसे होते हैं जो चर्चित होते हैं लेकिन इस समय देश में यदि कोई नाम सबसे ज्यादा चर्चित है तो वह है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि टॉप टेन चर्चित नामों की लिस्ट बनाने के लिए कहा जाए तो एक से दस नंबर तक नरेंद्र मोदी का ही नाम लिखना पड़ेगा। दूसरा नाम वास्तव में ग्यारहवें नंबर पर आएगा। प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदा लोकप्रियता देश के लिए जितनी अच्छी है उतनी ही बुरी भी है।

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अच्छी इसलिए कि मोदी अपनी मर्जी के हिसाब से काम कर सकते हैं और देश को बहुत आगे ले जा सकते हैं। वे देश के सबसे अधिक शक्ति प्राप्त प्रधानमंत्रियों में से एक हैं। बुरी इसलिए कि अत्यधिक लोकप्रियता उनमें तानाशाही प्रवृत्ति को जन्म दे सकती है और उनकी गलत नीतियाँ देश को उतना ही अधिक नुकसान भी पहुँचा सकती हैं। दुनिया में इसके तमाम उदाहरण मौजूद हैं। दुनिया में जितने भी तानाशाह हुए हैं वे शुरुआत में जनता में बेहद लोकप्रिय रहे थे।

70 साल से हम कर क्या रहे हैं?
पिछले सत्तर सालों के शासन पर नजर डालने पर एक बात साफ हो जाती है कि देश की जनता अंध भक्ति की शिकार रही है। यह अंध भक्ति पहले जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी के प्रति थी अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रति है। जरा सोचकर देखिए कि जनता की अंध भक्ति की यह प्रवृत्ति क्या किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए ठीक है? वास्तव में आजादी के बाद हर पीढ़ी ने जागरूक रहने के बजाय अंध भक्तिपन ही ज्यादा दिखाई है और इसी का परिणाम रहा है देश में घटिया शासन। इसका असर यह हुआ कि विकास करने के मामले में हम फिसड्डी साबित हुए जबकि इतने सालों में दूसरे देश कहाँ से कहाँ निकल गए।

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यह जरा कड़वा है मगर है सत्य कि जब तक हमारी यह अंध भक्ति की आदत नहीं छूटेगी बहुत बड़े बदलाव की उम्मीद करना बेमानी है। सत्ता में आनेवाला हर कोई जनता को बेवकूफ बना जाएगा और जब तक हमें होश आएगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। अंध भक्ति का आलम यह है कि आज नरेंद्र मोदी की आलोचना करना ही सबसे बड़ा अपराध हो गया है। कमोबेश क्या यही स्थिति कांग्रेस के लंबे शासन काल में नहीं थी? कांग्रेस ने लाख गलतियाँ की फिर भी लोग उसे सत्ता सौंपते रहे। जबकि आज कांग्रेस को गाली देने वालों की कोई कमी नहीं है, कल भाजपा के साथ भी ऐसा ही होनेवाला है। ऐसा न हो इसलिए आज जागरूक होना जरूरी है।

लोकतंत्र के लिए खतरनाक है अंध भक्ति
पिछले सत्तर साल से देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है। इस सत्य को नकारते हुए कि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली ही सबसे अच्छी शासन प्रणाली होती है बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो इस शासन प्रणाली को गाली देते रहते/रहे हैं। जबकि वे यह भूल जाते हैं कि इसके लिए वास्तव में जिम्मेदार तत्व क्या हैं। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के सफल होने की कुछ अनिवार्य शर्तें हैं जिसमें सबसे बड़ी शर्त है जनता का शिक्षित और राजनीतिक रूप से जागरूक होना।

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अंध भक्तिपन तो लोकतंत्र की गर्दन मरोड़ने जैसा है। किसी भी शासक को अंध भक्त जनता ही पसंद आती है। वैसे जनता को अंध भक्ति करना ही है तो पांच साल में सिर्फ एक दिन अर्थात चुनाव के दिन करना चाहिए। बाकी के चार साल तीन सौ चौसठ दिन जनता को सजग प्रहरी बनकर डंडा लेकर चौकस खड़ा रहना चाहिए। सरकार यदि अच्छा काम कर रही है तो जनता उसकी पीठ थपथपाए लेकिन यदि वह गलत करती है तो उसके सिर पर डंडा मारे। तभी लोकतंत्र सफल हो सकता है अन्यथा रोते रहने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। वैसे भी हमारे देश के नेता महाधूर्तों की श्रेणी के हैं। वे बड़े मजे से जनता को ठगते रहते हैं और जनता को इसका पता सालों बाद ही चल पाता है।

मीडिया मुट्ठी में!
वर्तमान दौर में जनता को इसलिए भी जागरूक होना ज्यादा जरूरी है क्योंकि आज मीडिया सरकार की कठपुतली बना हुआ है। इससे पहले कभी ऐसा देखने को नहीं मिला कि पूरा मीडिया जगत सरकार की मुट्ठी में कैद हो। तब मीडिया सरकार के गलत फैसलों पर सवाल उठाता था जबकि आज का मीडिया सरकार की चाटुकारिता में लगा हुआ है और उसका इस्तेमाल सरकार की छवि चमकाने के लिए हो रहा है।

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मीडिया मालिक पूरी तरह धंधेबाज हो गए हैं उन्हें पत्रकारिता के उसूलों से कोई सरोकार नहीं है। उन्हें तो बस पैसे से मतलब है। अखबार-टीवी चैनल मीडिया मालिकों के लिए शानदार हथियार और ढाल हैं। वे इनका इस्तेमाल अपने सारे गलत कामों से बचने के लिए करते हैं। सरकार को भी तो ऐसे ही मीडिया मालिक चाहिए जो चोर हों क्योंकि सरकार इन्हें आसानी से अपनी मुट्ठी में कर सकती है। दूसरी ओर मीडिया मालिकों को इस देश की जनता से कोई लेना-देना नहीं है, उन्हें तो सिर्फ अपना धंधा बढ़ाना है।
 
आज जागने की ज्यादा जरूरत…
किसी भी देश का मीडिया जब सरकार के हाथों बिक जाए तो लोकतंत्र के लिए खतरा बढ़ जाता है। अब सवाल यह है कि ऐेसे में जनता सजग प्रहरी कैसे रह पाएगी क्योंकि जनता तो वही जानती है जो मीडिया उसे बताता है। अब जनता को पर्दे के पीछे चलने वाले खेल को समझना होगा और अंध भक्ति करनी छोड़नी होगी। सरकार के अच्छे कामों को अच्छा और गलत कामों को गलत कहने की आदत डालनी होगी। अंध भक्ति छोड़े बगैर यह नहीं हो सकता क्योंकि जब आप किसी के अंध भक्त होते हैं तो उसका गलत कदम भी आपको गलत नहीं लगता।

बेवजह बचाव करना छोड़ना होगा
अब बदलाव तेज गति से होना चाहिए और यह कहकर हमें किसी का भी बचाव करने की आदत छोड़नी पड़ेगी कि एक आदमी क्या-क्या करेगा, कहाँ-कहाँ ध्यान देगा क्योंकि सरकार कोई एक व्यक्ति होती ही नहीं है। हाँ, शीर्ष पर बैठा एक व्यक्ति बहुत बड़ा फर्क जरूर ला सकता है। पूरी दुनिया में इसके अनेक उदाहरण हैं जब एक नेता ने ही अपनी नीतियों से इतना बड़ा फर्क लाया कि उस देश के भाग्य का सितारा चमक गया।

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मैं आपको यह बता देना चाहता हूँ कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मैंने भी नरेंद्र मोदी को वोट दिया था और उनमें एक ऐसे नेता की छवि को देखा था जो देश की तकदीर को बदल कर रख देने की ताकत रखता है। अब भी मैं ऐसा मानता हूँ कि देश को नरेंद्र मोदी जैसे ही मजबूत नेता की जरूरत है और देश को इस नेता का बखूबी इस्तेमाल कर लेना चाहिए लेकिन अंध भक्ति करने से ऐसा बिल्कुल नहीं होने वाला। 2014 के चुनाव में मोदी का नारा था ‘सबका साथ, सबका विकास’। यह नारा सभी को खूब भाया था और परिणाम था मोदी को पूर्ण बहुमत वाली सरकार मिलना। मोदी को इस नारे से जरा सा भी डिगना नहीं चाहिए था परंतु तीन साल के शासनकाल में ऐसा दिखाई नहीं दिया फिर भी अंध भक्ति में कोई कमी नहीं आई।

निश्चित रूप से हम सबको एक मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश चाहिए। अमन-चैन वाला मुल्क चाहिए। स्वच्छ और मजबूत प्रशासन वाला देश चाहिए लेकिन सरकार इस दिशा में बहुत बेहतर काम करती दिखाई नहीं देती। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने जो वादे किए थे वे अब भी पूरे होने बाकी हैं और सरकार लगातार इस कोशिश में है कि जनता का ध्यान इन मुद्दों की ओर न जाए। विचार कीजिए, क्या ऐसा नहीं हो रहा…।

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लेखक व्यासमुनि प्रजापति पिछले 22 वर्षों से पत्रकारिता में हैं. साढ़े तीन साल पहले लोकमत ने साजिश के तहत एक साथ 61 कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया था, उसमें से एक व्यास मुनि जी भी हैं. इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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