
संजय कुमार सिंह-
80-90 के दशक में पत्रकारिता में आए मेरे जैसे कई लोग मानते हैं कि जनता पार्टी के प्रयोग और जयप्रकाश आंदोलन में नाकाम और बेकार रह गए बहुत सारे लोगों को पत्रकारिता (खासकर हिन्दी की) में खपा दिया गया और वही अब संपादकी कर रहे हैं और मीडिया हैंडल कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है जो पढ़ने-लिखने में कमजोर थे वो राजनीति में चले गए। मैं अब उस समय के लोगों को और उनका काम देखता हूं तो बहुतों के मामले में यह धारणा सही लगती है। निश्चित रूप से यह अनुमान है और मैं गलत हो सकता हूं। पर जो हालात हैं इसकी पुष्टि करते हैं। आगे मैं खबर, शीर्षक और अखबार का नाम लेकर बात करूंगा लेकिन इसका मतलब नहीं है कि इसकी भी पुष्टि अभी के संपादकों से हो। मैं जानता हूं और बताना चाहता हूं कि अखबार में हर शीर्षक संपादक नहीं लगाता है और ना हर खबर संपादक पास करता है। किसी भी अखबार में हर विचारधारा के लोग होने चाहिए और जब मैं जनसत्ता में था तो यह बहुत स्पष्ट था और उन दिनों हमलोग अखबार देककर बता देते थे कि किसने बनाया होगा। इसका कारण सिर्फ और सिर्फ संपादकीय आजादी थी वरना संपादक अगर लाइन तय कर देते और सांचा बना देते तो सांचे से तैयार हर माल एक जैसा होता।
पत्रकारिता में हर विचारधारा के लोग होंगे तो उसका फायदा है और यह जरूरी है। ऐसे में संपादक भी किसी खास विचारधारा का हो ही सकता है लेकिन जरूरी है कि वह निष्पक्ष हो और सबों को निष्पक्ष रहने के लिए प्रेरित करे। खबरों में अपने झुकाव के अनुसार खेल न करे और करे तो उसपर ध्यान रखे। इस तरह जो अखबार निकले वह निष्पक्ष हो और इसीलिए पाठकों में पसंद किया जाए। पर अब ऐसा लगता है कि पाठक भी खास झुकाव वाले हो गए हैं और वे खास झुकाव वाले अखबार पसंद करते हैं निष्पक्ष अखबार की जरूरत निष्पक्ष लोगों को ही रह गई है। अखबार समाज की जरूरत के अनुसार हों और अच्छा समाज बनाने में योगदान करें – इसकी अपेक्षा होती है और संपादक इसकी आजादी ले तो बुरा नहीं है लेकिन संपादक इतना समझदार और परिवक्व तो हो कि वह अच्छा-बुरा जो समझे वह ठीक हो। मुझे भारत में मीडिया खासकर हिन्दी मीडिया का मामला बहुत ही उलझा हुआ लगता है और शक है कि यह कभी सामान्य हो पाएगा।
आइए आज सोमवार, 27 मार्च 2023 के अखबारों की खबरें और प्रस्तुति को देखें। इसके साथ यह ख्याल रखें कि आज कई पत्रकार दूसरी पीढ़ी के भाजपा समर्थक या कांग्रेस विरोधी हैं। मुझे नहीं लगता कि कंग्रेस समर्थक पत्रकारिता में हैं। इसका कारण नहीं है। निष्पक्ष लोगों को कामग्रेस समर्थक कह दिया जाए तो बात अलग है। ऐसा मानने का मेरा आधार यही है कि कांग्रेस समर्थक अच्छी जगह सेट हो जाते रहे हैं और पत्रकारिता में वही आया (ज्यादातर) जो और कहीं सेट नहीं हो पाया। ऐसे लोग कांग्रेस विरोधी हैं जो शौक से आए अपवाद है।
अब तो मीडिया की नौकरी ऐसी है ही नहीं कि कोई शौक से आए। जो हालात हैं उसमें प्रचारक ही आएंगे और अपनी सेवाओं के बदले बुढ़ापे में राज्यसभा की सदस्यता की तम्मन्ना हो तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।
जो पैदा ही 1975 के बाद हुए उनपर प्रचारकों का प्रभाव है और उनके लिए आरएसएस वाले अंकल की कहानी है। उम्र में मुझसे कुछ बड़े एक मित्र ने महात्मा गांधी के खिलाफ भड़काने वाले आरएसएस के अंकल की कहानी सोशल मीडिया पर लिखी थी।
आरएसएस के अंकल के प्रभाव में रहे 1975 के बाद पैदा हुए लोग कांग्रेस से वैसे नाराज रहेंगे और जो इमरजेंसी की ज्यादाती जानते हैं और उनके शिकारों के करीबी रहे हैं उनकी क्या बात करूं। यही कारण है राहुल गांधी ने चोरों की बात की तो भाजपा ने उसे ओबीसी के खिलाफ बना दिया जबकि अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री निवास खाली करने के बाद भाजपाई मुख्यमंत्री के रहने के लिए उसे गंगा जल से साफ किया गया। भाजपा ने चोरों को ओबीसी के हथियार से बचाने की राजनीति शुरू की तो अखिलेश यादव ने इस मामले को याद दिलाया, ट्वीट किया पर उसे अखबारों में वो जगह नहीं मिली। किसी आधे घंटे की प्रेस कांफ्रेंस में तीन बार नहीं पूछा गया। पहले तो नहीं ही पूछा गया था।
अब कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भाजपा से पूछा है कि नीरव मोदी और ललित मोदी पर हमले को ओबीसी पर हमले के रूप में क्यों पेश किया जा रहा है? आप चोरों को ओबीसी से क्यों जोड़ रहे हैं। तो यह आपको किसी अखाबर में पहले पन्ने पर दिखा? यही नहीं कर्नाटक में विधानसभा चुनाव है। वहां भाजपा पिछला चुनाव हार गई थी। विधायक खरीदकर सरकार बनाई फिर उपचुनाव हुए उसमें जीत गई और अब जब फिर चुनाव होने हैं, प्रधानमंत्री बार-बार कर्नाटक के दौरे कर रहे हैं तो मुसलमानों के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण खत्म कर दिया गया है। टाइम्स ऑफ इंडिया में सिंगल कॉलम में छपी खबर के अनुसार इस बारे में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है, इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। उन्होंने इसे कांग्रेस की तुष्टीकरण नीति कहा है।
हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर लीड है। शीर्षक है, “मुस्लिम कोटा खत्म किया क्योंकि असंवैधानिक था : शाह”। अगर ऐसा था तो आपने पहले क्यों नहीं किया और ऐन चुनाव के पहले क्यों कर रहे हैं और प्रचारित किस लिए कर रहे हैं। और उसे भी सही मान लूं तो हिन्दुस्तान टाइम्स दिल्ली में किसलिए लीड बना रहा है। जहां तक कांग्रेस के तुष्टिकरण की बात है, भाजपा हिन्दुओं का तुष्टिकरण करती है और दावा करती है कि वही हिन्दुत्व की रक्षक है। चुनाव जीतने के लिए इस तरह के काम और प्रचार दोनों गलत हैं पर रोक कौन सकता है और जो विरोध करेगा उसे किसी और मामला में नहीं फंसा दिया जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है तो अखबारों को यह काम करना चाहिए पर वे भी स्वतंत्र नहीं हैं या इसका समर्थन करते हैं।
दूसरी ओर, द टेलीग्राफ ने प्रयंका गांधी के भाषण, कांग्रेस के आंदोलन और तस्वीर आदि को लीड बनाया है जो कई अखबारों में पहले पन्ने पर भी नहीं है।

Comments on “प्रचारकों की संपादकी और मीडिया की भक्ति”
बहुत खूब.
Sir, मैंने अखबारों की पुरानी कतरन देखी है, हर न्यूज आइटम पर या तो news agency का नाम होता था या फिर पत्रकार का. आज ऐसा देखने को नहीं मिलता.
आप दूसरों पर कीचड़ फेंकने से पहले अपने ऊपर लपेटे कीचड़ को देख लीजिए और अगर नहीं देख पा रहे है तो मैं मदद कर देता हूं।
आपने कितनी सफाई से कहा कि नीरव मोदी और ललित मोदी के खिलाफ कांग्रेसी हमले को बीजेपी ने ओबीसी पर हमले से जोड़ दिया, जबकि सच्चाई यह है कि राहुल गांधी ने बकायदा जानबूझकर मोदी सरनेम वालों को चोर कहा था। उसने कहा, “सारे चोर मोदी सरनेम वाले क्यों होते हैं। इससे क्या अभिप्राय है बंधु?
आप यहां पत्रकारों को प्रचारक होने का टैग बांट रहे है, जबकि आप खुद कांग्रेस के प्रचारक और समर्थक बने हुए है। अगर ऐसा नहीं है तो अपना कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के अर्धसत्य और रंगबिरंगे सवालों को आगे क्यों बढ़ाया। अपने गिरेहबाह में झांकिए और जबाव न मिले तो आईना झांक आइए।