पहले थोड़ा आपातकाल की यादें ताजा कर दूं। आपातकाल के दौरान एक कविता लिखी गई, ठेठ अवधी में- माई आन्हर बाबू आन्हर, हमे छोड़ कुल भाई आन्हर, केके केके दिया देखाईं, बिजली एस भौजाई आन्हर…. यह कविता यदि आप नहीं समझ पा रहे हैं तो इसका अर्थ भी बता देता हूं। मां अंधी है, पिता अंधे हैं। भाई भी अंधे हैं। किसको किसको दीपक दिखाऊं, बिजली की तरह चमक दमक वाली भाभी भी तो अंधी हैं। आपातकाल के दौरान इस कविता में निहित लक्षणा, व्यंजना मोटी बुद्धि के लोगों की समझ में नहीं आई और कवि का कुछ बुरा नहीं हुआ।
खैर, एक दूसरा परिदृश्य देखें-आपातकाल समाप्त हो गया था और बाबू जयप्रकाश नारायण जेल से बाहर आ गए थे। आपातकाल के दौरान दूसरे बंदी भी जेल से रिहा हो गए थे और जनता पार्टी का गठन हो गया था। मेरे कस्बे लंभुआ में पार्टी की एक जनसभा का आयोजन किया जा रहा था, लेकिन इतना भय व्याप्त था कि जनसभा के नजदीक जाने से लोग भयभीत हो रहे थे और जनसभा के लिए भीड़ जुटाना कठिन हो गया था।
कुछ ऐसा ही हाल हो गया है मीडिया का। मेरे मित्र के एक मित्र हैं, जो एक नामी-गिरामी हिंदी न्यूज चैनल के हीरो कहे जाते हैं। उनसे जब मजीठिया पर बात करने के लिए समय मांगा तो वह कतराने लगे। पता नहीं वह मुझे टाल रहे थे या साफगोई दिखा रहे थे, लेकिन बात उन्होंने बड़े ही साफ शब्दों में कही। उन्होंने कहा- भाई मुझे नौकरी से निकाल दिया जाएगा तो आप क्या कर लेंगे और आपको निकाल दिया जाएगा तो मैं क्या कर लूंगा। मेरे मन में पंक्तियां गूंजने लगीं,…….हमें गैरों से कब फुर्सत, हम अपने गम से कब खाली, चलो बस हो चुका मिलना, न हम खाली न तुम खाली।
क्या यूं ही बनेगा भयमुक्त समाज। जब बड़े पत्रकार आपस में मुलाकात करने से डरते हों तो छोटे पत्रकारों का क्या हाल होगा, इसे आप आसानी से समझ सकते हैं। मैं भी कोई झींगुर पहलवान नहीं हूं। मेरा भी सीना हाड़ मास का ही है। मुझ पर कोई गोली चला देगा तो वह गोली रिश्तेदारी नहीं न निभाएगी। फिर भी खुल कर मजीठिया की लड़ाई लड़ रहा हूं तो उसके पीछे एक ही दर्शन काम कर रहा है- आए आम कि जाए लबेदा। अर्थात मिले मजीठिया या जाए नौकरी।
इतना बड़ा जोखिम हर पत्रकार नहीं उठा सकता। इसीलिए मुझे किसी पत्रकार से कोई शिकायत भी नहीं है। मेरे एक साथी ने तो सुप्रीम कोर्ट में अवमानना का मामला ही दर्ज कराने से इनकार कर दिया। उसने जो तर्क दिया, वह भी काबिलेगौर है-उसने कहा कि भाई साहब अगर हमने मामला दर्ज करा दिया तो मीडिया के क्षेत्र में मुझे नौकरी ही नहीं मिलेगी, क्योंकि मैं ब्लैकलिस्टेड कर दिया जाऊंगा। इतनी असुरक्षा के बीच परिवार के साथ जीवन बसर करने वाला पत्रकार आखिर समाज की सुरक्षा कैसे कर सकेगा। जब पत्रकार ही नहीं बचेगा तो समाज कैसे बचेगा। पत्रकारों ने ही बताया कि मैगी में जहर है। निर्भीक पत्रकार नहीं रहेंगे तो कौन आपको बताने आएगा कि मैगी न खाओ, उसमें जहर है। आज के जो कारपोरेट मीडिया घराने हैं, वे तो अपने लाभ के लोभ में आपको मैगी खाने से कभी नहीं रोकेंगे। अलबत्ता आपको यह जहर खाने के लिए प्रेरित ही करेंगे, भले ही आप मौत की नींद सो जाओ। बड़े खतरे हैं। उन्हें टालने का जोखिम आखिर कौन उठाएगा—आज के मीडियाकर्मी तो यही कहते हैं-भाई मैं तो चूं नहीं करूंगा, क्योंकि मुझे बच्चे पालने हैं। अरे भइया, बच्चे पलेंगे तब, जब वे जिंदा रहेंगे।
कारपोरेट मीडिया घराने के गुर्गे यदि किसी पत्रकार के पूरे परिवार को समाप्त भी कर दें तो मीडिया घरानों का कुछ नहीं बिगड़ने वाला है। उनके खिलाफ पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करेगी। कारण है उसका। उनके साथ कतारबद्ध होकर खड़े हैं-बड़े मोदी, छोटे मोदी, उससे छोटे मोदी फिर उससे छोटे मोदी फिर उससे छोटे मोदी आदि आदि—-मीडिया के इस आपातकाल में जब लोगों का अंतकाल आने लगेगा तो उनकी आत्मा मोदी में लीन हो जाएगी। तब आप गर्व से कहना-मोदीमय हो गई है मेरी आत्मा। जय हिंद। जय भारत।
श्रीकांत सिंह के एफबी वाल से