अनिल भास्कर-
मुख्यधारा की मीडिया इन दिनों आलोचनाओं के गहरे घेरे में है। पक्षधरता से लेकर जनसरोकारों की उपेक्षा और सामाजिक विकृतियों के विस्तार तक के आरोपों से जूझती हुई। साख के अभूतपूर्व संकट से पस्त। ऐसे में यह सवाल आम है कि उसकी सही भूमिका क्या होनी चाहिए? जब हम मौजूदा दौर की पत्रकारिता की तुलना कुछेक दशक पहले की स्थिति से करते हैं तो दो क्षरण साफतौर पर दिखते हैं।
मैंने अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में संजीदगी से अखबार पढ़ना शुरू किया। तब भिन्न राजनीतिक पारिस्थितिकी के बीच भी पत्रकारिता तटस्थता और निष्पक्षता के अपने प्राथमिक सिद्धांत से विचलित नहीं दिखती थी। आज राजनीतिक शक्तियां पत्रकारिता की दशा और दिशा दोनों को नियंत्रित करती नजर आती है।
दूसरे, तब मीडिया संस्थान अपनी व्यावसायिक जरूरतों और पत्रकारीय मूल्यों के बीच किसी हद तक संतुलन साधते नजर आते थे। आज इन संस्थानों को व्यावसायिक हितों के लिए जनपक्षधरता या समाजहित से समझौते में कोई गुरेज नहीं। कुछेक अखबारों या न्यूज चैनलों को अपवादस्वरूप छोड़ दें तो व्यापकता में जो तस्वीर उभरती है वह इन दोनों तथ्यों की तस्दीक करती है।
यह परिवर्तन इस सदी के पहले दशक में ही अंकुरित होने लगा था। इसकी पुष्टि स्वयं हिंदी पत्रकारिता के पितामह कहे जाने वाले राजेन्द्र माथुर करते हैं। अरसे तक उनके करीबी सहयोगी रहे वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने इसे इस तरह बयां किया है- “राजेंद्र माथुर ने बड़े ही जीवट से मूल्यपरक पत्रकारिता की थी, परंतु एक वक्त ऐसा भी आया जब वे बाजार के झंझावतों से निराश हुए। उन्होंने नवभारत टाइम्स को पूर्ण अखबार बनाने का स्वप्न देखा था।
उनका यह स्वप्न तब तक रूप लेता रहा जब तक प्रबंधन अशोक जैन के हाथ था, किंतु जब प्रबंधन का जिम्मा समीर जैन पर आया तो यह स्वप्न बिखरने लगा था। समीर जैन नवभारत टाइम्स को ब्रांड बनाना चाहते थे जो बाजार से पूंजी खींचने में सक्षम हो। माथुर साहब ने अखबार को मुकम्मल बनाया था, लेकिन बाजार की अपेक्षाएं शायद कुछ और ही थीं। यही उनकी निराशा का कारण था। जब उन्हें लगा कि संपादक को संपादकीय के अलावा प्रबंधन के क्षेत्र का काम भी करना होगा, तो वह द्वंद में पड़ गए। इससे उन्हें शारीरिक कष्ट हुआ। अपने सपने को टूटते बिखरते हुए वे नहीं देख पाए।
मृत्यु के कुछ दिनों पहले मेरी उनसे लंबी बातचीत हुई थी। एक दिन उन्हें फोन कर मैं उनके घर गया। माथुर साहब अकेले ही थे। वह मेरे लिए चाय बनाने किचन की ओर गए तो मैं भी गया। मैंने महसूस किया था कि वे परेशान हैं। मैंने पूछा क्या अड़चन है? उन्होंने कहा- देखो, अशोक जैन नवभारत टाइम्स पढ़ते थे। उनको मैं बता सकता हूं कि अखबार कैसे बेहतर बनाया जाए। समीर जैन अखबार पढ़ता ही नहीं है। वह टाइम्स आफ इंडिया और इकानामिक टाइम्स को प्रायरिटी पर रखता है। उससे संवाद नहीं होता। उसका हुकुम मानने की स्थिति हो गई है। यही माथुर साहब का द्वंद था और शायद उनके असमय निधन का कारण भी।”
क्रमशः