अनिल भास्कर-
सम्पादक नामक संस्था का पिछले तीन दशकों में जिस तेजी से क्षरण हुआ है, वह पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ी चिंता का वायस रहा। आप यह मान सकते हैं कि मूलतः यह अवमूल्यन आर्थिक उदारीकरण और भौतिकवाद के नए दौर के आगाज़ के साथ ही शुरू हुआ।
मीडिया घरानों के मालिकानों की पिछली पीढ़ी तक ने पत्रकारीय मूल्यों के प्रति जो संवेदनशीलता दिखाई उससे सम्पादकों के लिए प्रतिबद्धता आसान बनी रही। लेकिन मालिकानों की नई अंग्रेजीदां पीढ़ी, जिनमें ज्यादातर विदेशों से मैनेजमेंट पढ़कर आए और उदारीकरण के दिनों में (90 के दशक के आसपास) मीडिया घरानों की कमान संभाली, ने इसे सिर्फ मुनाफे का व्यवसाय बनाने का लक्ष्य साधा। मीडिया मिशन से इंडस्ट्री बन गई और पत्रकार एक्टिविस्ट से कर्मचारी।
अब जरूरी था नई पीढ़ी के सम्पादकों का अनुकूलन। जैसा कि खुद राजेन्द्र माथुर कहते थे, समीर जैन के आने के बाद न सिर्फ अखबार समूह का व्यवसाय प्रबंधन बदला, बल्कि बाज़ार के अनुरूप सम्पादकीय बदलाव का भी दवाब शुरू हुआ। लगभग सभी मीडिया घरानों की कमोबेश यही नियति रही। राजेन्द्र माथुर ने इस बदलाव को सहजता से स्वीकार नहीं किया। पत्रकारीय मूल्यों के साथ अंत तक पूरी ताकत से खड़े रहे और यह पराभव देखने से पहले ही सब छोडछाडकर चल बसे।
उधर, प्रभाष जोशी ने जनसत्ता का तेवर जिस मुकाम तक पहुंचा दिया था, वहां उनसे लचीलेपन की उम्मीद उच्च प्रबंधन कर नहीं सकता था और निचले में इतना साहस नहीं था। एक बार तत्कालीन ब्यूरो चीफ आलोक तोमर ने मारुति के खिलाफ एक खबर लिखी। तब मारुति अकेले जनसत्ता को सालाना तीन करोड़ (आज के हिसाब से करीब 35-38 करोड़) का विज्ञापन देता था। आलोक जी यह बात जानते थे, सो प्रभाष जी से आग्रह किया कि एक नज़र देख लें।
प्रभाष जी ने पूछा कि जो लिखा है उसे प्रमाणित तो कर सकते हो न? आलोक जी ने सहमति में सिर हिलाया तो प्रभाष जी बोले- फिर क्यों पूछ रहे हो? छापो। अगली सुबह खबर जनसत्ता के पहले पन्ने पर छपी।
यह थी सच के उद्घाटन और जनहित की रक्षा का संकल्प जीती पत्रकारिता। प्रभाष जी अपने रिपोर्टरों से हमेशा कहते- सच लिखो और बेधड़क लिखो। चाहे वह किसी के बारे में हो। लेकिन राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी के बाद कितने सम्पादक अपने रिपोर्टरों को यह आज़ादी दे पाए? कितने सम्पादक संस्थान के व्यावसायिक हित और सम्पादकीय मूल्यों के बीच दीवार अक्षुण्ण रखने का साहस दिखा पाए? इस सवाल का जवाब खुद उन सम्पादकों को अपनेआप से पूछना चाहिए।
दरअसल यह साहस दिखा पाना भौतिकवादी व्यवस्था में रस पाने वाले सम्पादकों के वश में था भी नहीं। वे अब धोती-कुर्ता पहनने या खादी का झोला लेकर चलने वाले पत्रकार नहीं थे। पत्रकारिता उनके लिए सेवा से अधिक स्वउद्धार या उन्नयन का जरिया थी। नौकरी थी। जिसके जरिये वे वो हर सुख-सुविधा हासिल करना चाहते थे जो पैसों से अर्जित की जा सकती थी। लक्ज़रियस फ्लैट, बड़ी गाड़ी, महंगे आधुनिक गैजेट्स, बच्चों के लिए कान्वेंट स्कूलों की फीस- सब कुछ।
जाहिर है इसकी कीमत सिर्फ नौकरी से अदा नहीं हो सकती थी। इसके लिए सिद्धांतों-मूल्यों को भी बेचने की जरूरत थी। मालिकानों का आदेशपाल बनने की मंजूरी थी। तीन दशकों में मैंने जितने सम्पादकों के साथ काम किया, उनमें से एक हमेशा कहते- व्यावहारिक बनो। जब कभी विज्ञापन विभाग के साथियों को मदद करने की बात आती, वे कहते- अगर तुम्हें अच्छी सैलरी चाहिए, भत्ते चाहिए तो उसके जुगाड़ का हिस्सा बनना ही पड़ेगा। संस्थान आर्थिक दृष्टि से जितना मुनाफा कमाएगा, हम-तुम उसी अनुपात में आर्थिक तरक्की करेंगे।
यह फलसफा समझना मुश्किल नहीं था। बहुत ही सरल और व्यावहारिक बात थी। फिर भी कभी गले नहीं उतर पाई। लेकिन वह जानते थे कि मालिकानों को सम्पादकीय गुणवत्ता नहीं, सिर्फ मुनाफे से मतलब है। और शायद यही नौकरी में बने रहने के लिए सबसे जरूरी योग्यता भी थी।
क्रमशः