अवनीश यादव-
बुधवार की सुबह करीब 5.30 बजे मेराज भाई जब तुम्हारे इंतकाल की खबर मिली। उस समय मैं गहरी नींद में था और कोई सपना देख रहा था। मोबाइल की घंटी ने ही एक झटके में शून्य की ओर धकेल दिया। एकाएक मन कई साल पीछे चला गया। जिसमें तुम्हारे साथ बिताई गई स्मृतियां एक-एक करके सामने आती गईं।
गुस्से में होने पर बाहर से भले ही तुम कभी-कभी कठोर दिखने लगते थे, लेकिन तुम्हारे भारी-भरकम शरीर के भीतर बहुत बड़ा दिल था। जिसमें हर गरीब और जरूरतमंद के लिए फिक्र थी। तुमने बचपन और किशोरावय बहुत अभाव में जिया था। शायद यही वजह है कि जब युवावस्था तुम्हारे हाथों में आई तो तुमने उसे बुलंद कर दिया। बमुश्किल इंटरमीडिएट तक की स्कूली तालीम होने के बावजूद न जाने किस स्कूल से तुमने सामाजिक तालीम हासिल की थी। जिसके बूते तुमने देखते ही देखते करोड़ों का व्यवसाय खड़ा कर दिया। और खुद के साथ ही साथ अपने भाईयों को भी स्थापित किया। शायद यही वजह रही कि तुम्हारी शादी कानपुर शहर के एक प्रतिष्ठित घराने में हुआ और तुम्हें पीएचडी तक पढ़ी-लिखी जीवन संगिनी मिली। इस्लाम धर्म की मान्यताओं के मुताबिक तुम अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा धर्म-कर्म के नाम पर खर्च करते रहे।
धर्म के नाम पर खर्च करने में भी तुमने खुद को कभी किसी घेरे में बांधकर नहीं रखा। यही वजह रही कि हिन्दू धर्म के कई बड़े आयोजनों में तुमने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। जिस पर हिन्दू धर्म के कुछ ठेकेदारों को तकलीफ भी हुई। और तुमने इस तरह के आयोजनों से एकाएक किनारा कर लिया। आज भले ही तुम असमय चले गए जिससे तुम्हारी अपने परिवार (पत्नी और बेटी) के प्रति जिम्मेदारियां अधूरी रह गईं। लेकिन जिस शिद्दत से तुमने सामाजिक सरोकारों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया, उससे तुमने खुद को सारे कर्जों से मुक्त कर लिया। लेकिन यह बिल्हौर और बिल्हौर की वह बेटियां जिनके हाथ पीले करने में तुमने अपना सहयोग दिया सदैव तुमारे कर्जदार रहेंगे।
शायद वर्ष 1998 रहा होगा जब तुम सैबसू वाले रतन चंद्र मिश्रा जी के अखबार प्रगतिशील भारत और चिन्नी मिन्नी का भारत से जुड़े थे। और अखबार को अच्छा-खासा व्यवसाय दिया था। जिससे मिश्रा जी तुम्हारे मुरीद हो गए थे। इसी दौर में तुमने साइकिल व्यवसाय भी मजबूती के साथ स्थापित किया। जिसकी बदौलत कंपनियों की ओर से तुम्हें कई देशों में घूमने का मौका मिला था। जिसने तुम्हारी समझ और जानकारी में इजाफा किया। तुम्हें पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था। इसलिए जहां कहीं मतलब की कोई किताब दिखती थी तुम उसे खरीद लाते थे। तुम्हारे भीतर पढ़ने की बहुत भूख थी। कई किताबें थीं जिन्हें तुम ढूंढा करते थे। जनवरी महीने में ही तुमने कई किताबें हमसे मंगाई थीं। जिन्हें हमने बृजेन्द्र स्वरूप पार्क में लगे पुस्तक मेले से लाकर दिया था। कई किताबें नहीं मिल पाई थीं, जिन्हें हमने लाकर देने का वायदा किया था, लेकिन वह वादा पूरा नहीं कर पाया, इसका अफसोस हमेशा रहेगा।
तुमको जितनी इस्लाम धर्म की जानकारी थी। शायद उससे कहीं अधिक हिन्दू और दूसरे धर्मों का ज्ञान था तुम्हें। शायद इसी ज्ञान के बूते खुद से मिलने वाले हर शख्स को तुम पहली ही मुलाकात में अपना बना लेते थे। साइकिल के व्यवसाय की व्यस्तता के चलते तुमने अखबार की दुनियां से कई वर्षों पहले किनारा कर लिया था। लेकिन जहां तक मुझको याद आ रहा है बीते वर्ष अगस्त-सितम्बर महीने में ही तुम कानपुर से प्रकाशित लोक भारती अखबार से दोबारा जुड़े थे। यही वजह थी कि हमारा-तुम्हारा संवाद काफी बढ़ गया था। तुम समाज के लिए किसी भी प्रकार का योगदान करने वाले को खास अहमियत देते थे। और ऐसी सभी शख्सियतों को कलम के जरिए सामने लाने की कोशिश में जुटे थे। शायद यही खास मुद्दा लेकर चलने के कारण लोक भारती चंद समय में ही बिल्हौर के दिल की धड़कन बन गया। तुम बिल्हौर का इतिहास लिखना चाहते थे। इसके लिए तुम हमको लेकर फेयर कमेटी इंटर कालेज, मकनपुर के मैनेजर सलमान साहब के पास गए थे और उनसे बिल्हौर से जुड़ा तमाम पुराना साहित्य मांगा था। तुमने अमेरिका में बस चुके बिल्हौर निवासी एडवोकेट मर्शरत भाई से भी इस मुद्दे पर काफी चर्चा की थी और हमसे सहयोग करने को कहा था।
बड़े भाई के करीबी दोस्तों में होने के कारण हम लोगों के बीच में हमेशा एक दूरी रहती थी। लेकिन अखबार में तुम्हारी इस सक्रियता ने इस दूरी को काफी हद तक दूर करने का काम किया। हम लोग गंभीर से गंभीर मुद्दे पर चर्चा करके आपकी समझ बूझ के चलते उसका हल निकाल लेते थे। तुम्हारी इसी काबिलियत के चलते संगठन ने इसी दीवाली तुम्हें प्रेस क्लब अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी थी। तुम अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे थे।
अबकी जब तुम कोरोना की चपेट में आए तो खौफ के साये में जी रहा मैं खुद अस्पताल में तुमने मिलने नहीं पहुंच पाया। जब तक मिलने की कुछ हिम्मत जुटाई तो पंचायत चुनाव के दौरान खुद कोरोना की चपेट में आ गया। मैं तो ठीक हो गया। लेकिन तुम्हें दोबारा फिर झटका लगा और तुम कानपुर के अपोलो अस्पताल में भरती हो गए। तमाम लोगों की दुआओं से काफी हद तक ठीक होकर किसी तरह घर पहुंचे। घर में दो-तीन दिन रुकने के बाद तुम्हारी हालत फिर बिगड़ी और तुम्हें अस्पताल लाया गया। तुम्हारा शुगर और बीपी तुम्हें सही नहीं होने दे रहा था। करीब दो महीने से तुम अपनी बीमारी से लड़ रहे थे। आखिरकार बीमारी जीती और तुम हार गए। तुम भले ही बीमारी से हारे हो, लेकिन यह तुम्हारी हार नहीं है। यह हार है हमारी कोशिशों की। यह हार है हमारे जज्बातों की। हमेशा मलाल रहेगा कि ढेरों दुआओं के बावजूद आखिर हम तुम्हें बचा क्यों नहीं सके। ऊपर वाला तुम्हें जन्नत बख्शे बस यही इल्तजा है।
अवनीश यादव, बिल्हौर (कानपुर)