Arvind Mohan
अब यह समझना कुछ मुश्किल है कि नरेन्द्र मोदी व्यक्ति भर हैं या कोई परिघटना हैं. उनकी राजनीति, उनकी कार्यशैली, उनकी सोच और इन सबके बीच उनकी सफलताएं जरूर उन्हें सामान्यजन से ऊपर पहुंचाती हैं. और उनकी ही भाषा में कहें तो उन्हें इसका एहसास है कि उन्हें प्रधानमंत्री बनने के लिए ही बनाया गया है. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कमल के निशान पर पड़े वोट सीधे उनको मिलने (उम्मीदवार, पार्टी और ग्ठबन्धन नहीं) और ईश्वर द्वारा इस काम अर्थात प्रधानमंत्री बनने के लिए चुने जाने की बात खुले तौर पर कही.
कहना न होगा काफी कुछ उनकी इच्छा के अनुरूप ही हुआ. अब हम आप इसके अनेक कारण और उनके विरोधियों की कमजोरी या सीधापन को जिम्मेवार मानते रहें पर मोदी ने अपनी बड़ी इच्छा पूरी कर ली. हमें देवता के आशीर्वाद और आदेश की जगह उनकी तैयारियां, उनको उपलब्ध साधन, उनका अपूर्व प्रचार वगैरह-वगैरह नजर आता हो तो इसमें भी कोई हर्ज नहीं है.
पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि मोदी को चन्दा देने वालों ने चन्दे से ज्यादा हासिल किया होगा, उनका प्रचार करने वालों ने खर्च से ज्यादा पैसे निकाल लिए होंगे, उनका गुणगान करने वालों ने अपने-अपने यहां काफी कुछ हासिल कर लिया होगा- और यह सब इसी दरिद्रता के, इसी कमजोरी-बीमारी के, इसी पिछड़ेपन वाले भारत से निकाल लिया गया है. पर असली हिसाब यही है कि सबने छोटे-छोटे धन्धे करते हुए मोदी का मुख्य काम आसान कर दिया.
अगर इस परिघटना को ज्यादा अच्छी तरह समझना है तो हाल में मोदी पर और उनकी प्रकाशित किताबों के विशाल भंडार पर नजर डाल लीजिए तो आपको प्रकाशन जगत की दरिद्रता, पुस्तकों की उपलब्धता और लेखकों, शोधकर्ता, अनुवादक की कमी की जगह हर कहीं उफान, मारामारी और होड़ दिखाई देगी. और इस होड में कौन नहीं नजर आएगा. खुद मोदी बड़े लेखक, विचारक, कवि और इतिहासकार हैं, यह नया रूप आपको बोनस के तौर पर दिख जाएगा. यह सही है कि जब एक अबूझ पहेली की तरह के व्यक्तित्व का आदमी सीधे अपने दम पर बहुमत हासिल करके प्रधानमंत्री बन जाए तो उसके जीवन, सोच और काम को समझने-समझाने वाले अध्ययन होने ही चाहिए. पर जो किताबें छपी हैं उनमें शायद ही कोई इस पैमाने पर खरा उतरेगा.
अधिकतर किताबें एक दूसरे की नकल, सरकारी (गुजरात सरकार की) जनसम्पर्क विभाग की सामग्री, मोदी के करीबी होने का दावा करने वालों के विवरण और चापलूसी के लिए लिखे लगते हैं. और अगर आप यह समझते हों कि यह धन्धा सिर्फ चटुकारिता और मुनाफे की होड के लिए है तो मोदी को ठीक से न समझ पाने की तरह यहाँ फिर से भूल न कीजिए. इस पूरे उफान से लेखक, प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता और किताबों के और भी किस्म के धन्धेबाज (विभागीय रौब बढाने से लेकर प्रोमोशन और सामाजिक रुतबा बढाने की झूठी कोशिश करने वाले) जितना लाभ पाएंगे उससे कही ज्यादा फायदा मोदी को होने जा रहा है. अब तक किसी भी प्रधानमंत्री और नेता पर इतनी किताबें उसके कार्यकाल या सक्रिय जीवन में नहीं आई हैं.
https://www.youtube.com/watch?v=I1tgkDRhJUU
अब जरा हिन्दी और अंगरेजी में छपी कुछ मुख्य किताबों की सूची पर गौर कीजिए तो यह बात और साफ होगी. पर इस सूची की भी बहुत साफ सीमा है. रोज नई किताब आ रही है या एक भाषा की किताब दूसरी भाषा में अनुदित होकर आ रही है. कई कई किताबों के कवर बदलकर कई बार विमोचन हो रहा है तो बाजार में भी दनादन एडिशन आ रहे है. सबसे पहली बडी किताब ‘नरेन्द्र मोदी: द आर्किटेक्ट आफ माडर्न स्टेत’ एम. वी. कामथ और कालिन्दी राणाडे की है जो 2009 मेँ आई थी तब से इसके न सिर्फ कई संस्करण आए हैं बल्कि लगभग आधी दर्जन भाषाओं में अनुवाद भी आ चुके हैं.
नीलांजन मुखोपाध्याय की किताब सबसे मेहनत से तैयार हुई और आम चुनाव से ठीक पहले आने के चलते खूब चर्चित भी हुई और उसके भी कई भाषाओं के संस्करण आ गए हैं. कामथ और राणाडे की जोडी ने नई किताब ‘द मैन आफ द मोमेंट: नरेन्द्र मोदी’ (मूल्य-399 रु.) ला दी है. वरिष्ठ पत्रकार और टाइम्स आफ इंडिया के अहमदाबाद संस्करन के सम्पादक किंग्शुक नाग की किताब ‘द नमो स्टोरी: ए पोलिटिकल लाइफ’ (मूल्य-225 रु.) भी चुनाव के पूर्व गई थी. कई आने की पूर्व सूचना प्रकाशन जगत में तैर रही है.
अभी आई अन्य किताबें हैं- नरेन्द्र मोदी; द गेमचेंजर, लेखक- सुदेश वर्मा, (मूल्य 399 रु.), नरेन्द्र मोदी; ए पोलिटिकल बायोग्रफी, लेखक- एंडी मारियो (मूल्य-299 रु.), नरेन्द्र मोदी; ए विजनरी प्राइममिनिस्टर, लेखक- आशु पटेल ( मूल्य-2495), सेंटर स्टेज, इंसाइड नरेन्द्र मोदी माडल आफ गवर्नेंस, उदय माहूरकर ( मूल्य- 499 रु.), प्राइम मिनिस्टर नरेन्द्र मोदी; ए लाइफ विथ फुल आफ स्ट्रेंग्थ, मीनाक्षी सिन्ह (मूल्य- 500 रु.), सेफ्रन माडर्निटी इन इंडिया, लेखक- रोबिन जेफ्राले ( मूल्य-2690 रु.), सीएम टू पीएम, लेखक- विवेक गर्ग और नरेन्द्र देव, दिस इज नरेन्द्र मोदी, लेखक- उर्विश कंठारिया (मूल्य-399 रु.), नमो मंत्रा आफ नरेन्द्र मोदी, लेखक-पी. कुमार (मूल्य-125), नरेन्द्र मोदी; यस ही कैन, लेखक- डी. पी. सिन्ह ( मूल्य- 295 रु.), नरेन्द्र मोदी; द न्यू पीएम, लेखक- विप्लव (मूल्य- 1195 रु.), इंडिया नीड्स नरेन्द्र मोदी, लेखक- डा. एस.आर. शर्मा ( मूल्य-595 रु.), इमेजेज आफ ट्रांस्फार्मेशन-गुजरात एन्ड नरेन्द्र मोदी, लेखक- प्रो. प्रवीण शेठ ( मूल्य-300 रु.), नरेन्द्र मोदी और फासीवादी प्रचारक, लेखक- प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी (मूल्य-700 ऋ.), मोदी; मेकिंग आफ ए प्राइममिनिस्टर, लेखक- विवियन फर्नांडिस ( मूल्य-250 रु.), मोदी मंत्रा, लेखक- हरीश वर्णवाल, ( मूल्य-120 रु.), मोदीज आइडिया आफ इंडिया, लेखक- एल्गर चो और सरवानम थंगादुरै ( मूल्य-300 रु.), मोदीनोमिक्स; ए इंक्लुसिव इकोनामिक्स, इंक्लुसिव गवर्नेंस, लेखक- समीर कोचर, (मूल्य- 769 रु.), लीडिंग ए बिलियन; नरेन्द्र मोदी, लेखक- चैंटल एंड्रियो ( मूल्य- 417 रु.), मोदीत्व; द आइडिया बिहाइंड द मैन, लेखक- सिद्ध्स्स्र्थ मजूमदार ( मूल्य- 134 रु.), कामनमैन नरेन्द्र मोदी, लेखक- किशोर मकवाना ( मूल्य-400 रु.), द किंग आफ बिलियन हर्ट्स, लेखक- डा. रक्षित ( मूल्य- 160 रु.), नरेन्द्र मोदी- चेंज वि कैन बिलीव, लेखक-संजय गौर (मूल्य-295 रु.), मोदी, मुस्लिम्स एंड मीडिया; वायसेज फ्राम नरेद्र मोदीज गुजरात, सम्पादक- मधु किश्वर.
https://www.youtube.com/watch?v=HyV9FscD1Dw
इनमें से कई किताबों के हिन्दी सस्करण और अन्य भाषाओं के संस्करण आ चुके हैं. कई किताबेँ और मोदी का अपना लेखन हिन्दी और अंगरेजी में ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में भी आ चुका है. हम सबकी चर्चा नहीं कर सकते, पर गुजराती में सबसे ज्यादा किताबें आई हैं. हिन्दी में भी महानायक नरेन्द्र मोदी, लेखक- कुमार पंकज (मूल्य-125 रु.), एक भारत, श्रेष्ठ भारत, लेखक- प्रदीप पंडित (मूल्य-250 रु.), निशाने पर नरेन्द्र मोदी, लेखक- सन्दीप देव (मूल्य- 225 रु.), भविष्य की आशा, नरेन्द्र मोदी और कहानी नरेन्द्र मोदी की, दोनों के लेखक- किशोर मकवाना, नरेन्द्र मोदी का राजनैतिक सफर, लेखक- तेजपाल सिन्ह धामा (मूल्य-150 रु.), नरेन्द्र मोदी, लेखक- संगीता शुक्ल (मूल्य-75 रु.) और, क्यों आखिर मोदी, लेखक- डीपी सिन्ह (मूल्य-295 रु.). जाहिर तौर पर अभी भी हिन्दी के प्रकाशक और लेखक अभी दरबारी संस्कृति और धन्धे के मामले में अंगरेजी वालों से पीछे हैं. ये अधिकांश किताबें जहां-तहां से सामग्री मार कर लिखी गई हैं और किसी में कुछ भी नया न होने का दावा मजे से किया जा सकता है. इसके लिए आवश्यक शोध, साक्षात्कार और यात्रा करने का न तो कष्ट किया गया है, न हिन्दीवालों को इसके लिए साधन ही उपलब्ध हो पाते हैं. जो अनुवाद भी हैं वे हड़बड़ी के मारे हुए हैं और उनसे अंगरेजी या गुजराती वाला आनन्द आना सम्भव नहीं लगता है.
किताबों की एक तीसरी श्रेणी भी बहुत बड़ी है. यह है कथित तौर पर खुद नरेन्द्र मोदी द्वारा लिखी किताबों की. यह हो भी सकता है कि उन्होंने कुछ लिखा हो. आपातकाल पर गुजराती में किताब लिखने का जिक्र बार-बार जीवनियों में आया है. पर आपातकाल के गुजरने के लगभग 37-38 साल बाद अगर किताब को हिन्दी या अंगरेजी में लाने की जरूरत लग रही हो तो इसे सामान्य नहीं मानना चाहिए. इसका सीधा रिश्ता मोदी के प्रधानमंत्री बनने के चलते इस किताब का व्यावसायिक लाभ लेना ही है. सम्भव है कुछ किताबें भाषणों से बनाई गई होंगी. यह भी लगता है कि उनकी कविताओं और उसके वाचन की सीडी भी अभी उनके व्यावसायिक लाभ के मद्देनजर ही आई है.
जिन किताबों की चर्चा है और अच्छी बिक्री है वे हैं; साक्षी मन ( सीडी समेत मूल्य-750 रु.), सामाजिक समरसता ( मूल्य- 300 रु.), आइडिया आफ वन रिलीजन (मूल्य-199 रु.), कंवेनिएंट एक्शन: गुजरात रेस्पांस टू क्लाइमेट चेंज (मूल्य-695 रु.), प्रेम तीर्थ ( मूल्य-165 रु.), भविष्य की आशा (मूल्य-50 रु.), एनर्जी; पोएम्स बाइ नरेन्द्र मोदी (मूल्य- 295 रु.), नरेन्द्र मोदी के सपनोँ का भारत ( मूल्य- 50 रु.), आपातकाल मेँ गुजरात (मूल्य-250 रु.), ज्योतिपुंज ( मूल्य-400रु.), क्रिप्लिंग इमेजिनेशन टू कैन डू एटिच्युड ( मूल्य-195 रु.), वक्त की मांग ( मूल्य-300 रु.), सेतुबन्ध (मूल्य-145 रु. ). अगर सीडी के कारोबार को स्टिकर और 3डी लेजर इंग्रेव्ड क्रिस्टल क्यूब वाली तस्वीर या मूरत को भी जोडा जा सकता है तो यह सूचना भी है कि यह 1049 रुपए में उपलब्ध है- खास जोर उपहार के रूप में इसे देने-लेने का है. जाहिर है कि मोदी की रचनात्मक ऊर्जा और प्रतिभा का पता अगर उनके प्रधान मंत्री बनने के बाद ही चले तो यह चिह्नित करने वाली बात तो है ही. खैर.
इतनी सारी किताबोँ और प्रचार सामग्री मेँ से इस समीक्षक ने तीन बडे पत्रकारोँ की किताबोँ- नरेन्द्र मोदी; द मैन, द टाइम्स, नरेन्द्र मोदी; द गेमचेंजर और द नमो स्टोरी पर ही ध्यान केन्द्रित किया है. पहली किताब नीलांजन भट्टाचर्य की है जो गम्भीर और समझदार पत्रकार माने जाते हैँ. उन्होने काफी लम्बा शोध करके यह किताब लिखी है और चुनाव के ठीक पहले आकर यही किताब सबसे ज्यादा चर्चित हुई. चुनाव के समय मोदी को लेकर जो कई किस्से चले और बढे उनकी शुरुआत इसी किताब से हुई थी. नीलांजन कभी शुद्ध वामपंथी विचारोँ के हुआ करते थे पर मन्दिर आन्दोलन और अयोध्या की घटनाओँ को कवर करने एक दौरान उनके विचारोँ मेँ बदलाव आया. 1992 मेम हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस पर भी उनकी एक किताब है और वह भी पर्याप्त चर्चित हुई है. किंग्शुक नाग की किताब मुख्यत: उनके गुजरात दंगे के कवरेज के अनुभवोँ और मोदी के उभरने के मौके पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के खयाल से लिखी लगती है. दंगोँ वाले मामले मेँ वे इन तीनोँ किताबोँ मेँ बेहतर ब्यौरा दे पाए हैँ. सुदेश वर्मा की किताब नरेन्द्र मोदी; द गेमचेंजर कई बार कवर बदलकर विमोचन कराने के लिए पढे जाने से पहले ही चर्चित हो चुकी है और इसका शुद्ध उद्देश्य मोदी की हवा मेँ अपनी कमाई करना और अपनी गुड्डी चढाना लगता है क्योंकि ज्यादातर मामलोँ मेँ यह तथ्य रखने की जगर मोदी की वकालत और उनके हर काम को सही बताने का प्रयास करती है.
https://www.youtube.com/watch?v=YFKNwbLoTxg
किताब का आखिरी अध्याय जितनी तारीफ तो भाजपा और मोदी का कोई घोषित सिपाही भी नहीँ कर सकता. सुदेश इस किताब को लिखने के पहले आप पार्टी मेँ भी थे और उसका संस्थापक सदस्य होने का दावा फ्लैप पर भी करते हैँ. उन्होने लम्बे समय तक, खासकर मोदी के उभार वाले दौर मेँ भाजपा कवर किया है सो मोदी के उभार और तारीफ वाले विवरणोँ मेँ भी कई बार उन घटनाओँ की याद दिला देते हैँ जो मोदी के दांवपेंच और चालाकियोँ को बताती हैँ. उस हिसाब से किताब का शुरुआती आधा हिस्सा ज्यादा दिलचस्प है, बाद मेम गुजरात और मोदी एक विकास की गाथा सीधे राज्य सरकार के प्रचार विभाग से ली गई लगती है.
मोदी पर लिखी अधिकांश किताबोँ की तरह ये तीनोँ भी उनके गुणगान मेँ ही जुटी लगती है. अब किसी एक जगदीश्वर चतुर्वेदी या गुजरात दंगोँ पर लिखी मनोज मिट्टा की किताब जैसे अपवादोँ को छोद देँ तो यह बात प्रय: सब पर लागू होती हैँ. सामान्य ढंग से यह स्वाभाविक भी है- जो व्यक्ति चाय बेचने और संघ दफ्तर मेँ झाडू लगाने से शुरुआत करके न सिर्फ प्रधानमंत्री बने बल्कि पूरी राजनीति की धारा को पलटे ( गठबन्धन राजनीति का अंत, भाजपा को अपूर्व ऊंचाइयोँ पर ले जाना और संघ की तरफ से पिछडा प्रधान मंत्री बनना) उसके लिए ऐसा लोखा जा सकता है. पर हम जानते हैँ कि मोदी सामान्यजन नहीँ हैँ. गुजरात दंगोँ का दाग उन पर है ही, इस चक्कर मेँ उनके अठरह आईएएस और आईपीएस अधिकारी जेल की हवा खा रहे हैँ, उनकी साथी मंत्री जेल मेँ पडी है, उनके सबसे विश्वस्त सहयोगी अमित शाह हत्या के चार-चार मामलोँ मेँ अभियुक्त हैँ और सुप्रीम कोर्ट को मामलोँ की सुनवाइइ गुजरात से बाहर करने का निर्देश देना पडा पर मोदी का बाल बांका नहीँ हुआ.
हर चीज इस शक को पुष्ट करती है कि सब कुछ उनके इशारोँ पर हुआ लेकिन वे इस चीज को भी अपने आगे बढने का उपकरण बना लेते है. वे अपने किसी विरोधी को नहीँ बख्शते ( नीलांजन बताते हैँ कि एकमात्र अपवाद स्मृति इरानी हैँ) और कई की हत्या कराने के आरोप भी उन पर लगते रहे हैँ, पर मोदी शान से मूंछ फहराते अपना छप्पन इंच का सीना दिखाते ( यहाँ भी नीलांजन दरजी से जानकारी लेकर बताते हैँ कि उनके सीने का माप छप्पन इंच नहीँ है) लोकतत्र के रक्षक और दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का एकमात्र प्रतिनिधि बने घूम रहे हैँ. किताबोँ का उद्देश्य अगर मोदी के विकास या सफलताओँ को बताने-समझने, उनकी कार्यशैली को समझना-समझाना और उनकी सोच को पकडना होता तो किताबेँ इतना एकतरफा नहीँ होतीँ. मोदी अलग हैँ, उन्होने ने अलग तरह से सफलता पाई है इस बुनियादी बात को कोई भी किताब रेखांकित नहीँ करती. इस अलग होने के चलते उनपर मीडिया और लेखकोँ का ज्यादा ध्यान जाए, ज्यादा किताबेँ आए यह तो स्वाभाविक है पर वे उनके इसी अभियान मेँ सहायक बन जाएँ यह तो बहुत अजीब बात है.
सिर्फ धनात्मक बातेँ करने और ऋणात्मक बातोँ की चर्चा न करना, या सुदेश वर्मा की तरह हर आरोप को सीधे खारिज करते चलने भर का मामला इन किताबोँ को गुनाहगार नहीँ बनाता. बहुत साफ लगता है कि मोदी की बढी ताकत और सत्ता का खौफ भी लेखकोँ पर गहराता गया है. शायद दंगोँ के समय और उसके बाद भी ज्यादा खुलकर बातेँ अखबारोँ-पत्रिकाओँ या मनोज मिट्टा जैसोँ की किताब मेँ आई हैँ. लेखकोँ ने न सिर्फ मोदी को प्रोजेक्ट करने का जिम्मा उठाया है बल्कि एक किस्म का सेल्फ- सेंसरशिप भी लगा लिया है. किसी भी मोदी विरोधी से बात करके उनके काम, व्यक्तित्व और सोच के किसी अज्ञात पक्ष को सामने लाने की कोशिश नहीँ की गई है.
मोदी से मिलने और इंटर्व्यू करने न करने की चर्चा तो सबने की है पर जाकिया जाफरी या दूसरे पीडितोँ, तीस्ता और अन्य संघर्ष करने वालोँ से मिलने का प्रयास भी नहीँ किया गया है. हद तो तब हो गई है जब मोदी या उनके किसी प्रशंसक को जरा भी अप्रिय लगने वाली बात या तथ्य आए हैँ तो नाग और नीलांजन समेत सभी लेखकोँ ने स्रोत का नाम छुपा लिया है. कई बार पत्रकार अपना झूठ चलाने या अपुष्ट बातोँ का उल्लेख करते हुए ये सब हथकंडे अपनाते हैँ. पर इन किताबोँ के मामले मेँ साफ लगता है कि मोदी के खौफ से लेखकोँ ने सेल्फ सेंसरशिप लागू कर लिया है.
यह चीज सबसे ज्यादा नीलांजन की किताब मेँ अखरी क्योंकि उन्होने शायद सबसे ज्यादा तैयारी से किताब लिखी है. खुद नरेन्द्र मोदी ने उन्हे लम्बा वक्त दिया जिसमेँ वे सारे सवाल पूछ सकेँ और पुस्तक से जुडी सामग्री सम्बन्धी तथ्योँ की पुष्टि या खंडन करा लेँ. पर नीलंजन ने दंगोँ को लेकर एक भी सवाल नहीम किया और ना ही यह बताया है कि ऐसी किसी पूर्व शर्त पर ही मोदी उनसे मिलने को तैयार हुए थे. इसका मतलब यह है कि मोदी खुद तैयार होकर बैठे थे और लेखक ने अपने मन से वे सवाल नहीँ पूछे जो मोदी को अप्रिय लग सकते थे. इस बात का एक और प्रमाण है मोदी से उनकी शादी और इस तथ्य को संघ समेत सबसे छुपाए रखने के बारे मेँ कुछ भी न पूछना.
इस किताब के लिखे जाने तक उनकी शादी और पत्नी के काफी ब्यौरे आ चुके थे. खुद इस किताब मेँ भी काफी बातोँ का जिक्र है पर जब मोदी सामने बैठे तो प्रेम से या सख्ती से, किसी भी तरह का सवाल न पूछना सेल्फ सेंसरशिप नहीँ तो और क्या है. और हद तब हो गई है जब पुस्तक मेँ हर बात विस्तार से और पूरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मेँ देने के बावजूद लेखक ने गुजरात के कत्लेआम का कोई भी जिक्र नहीँ किया है. वे न तो दंगा पीडितोँ से मिले हैँ और उनका पक्ष लिया है न दंगे से प्रभावित बस्तियोँ और राहत शिविरोँ मेँ गए हैँ. इतना ही नहीँ है वे गुजरात दंगोँ को पोस्ट गोधरा इंसिडेंट्स या रायट्स कहते हैँ. संघ वाले बाबरी मस्जिद गिराने को जिस तरह विवादास्पद ढांचा गिराना कहते हैँ, यह चीज कुछ उसी तरह की लगती है.
नीलांजन की किताब कई मायनोँ मेँ अच्छी भी है. मोदी के व्यक्तित्व के ऊपरी तत्वोँ को वे ठीक से पकडते हैँ. उनका कुर्ता, उनके रंगोँ का चुनाव, उनका भोजन या खाने-पीने की पसन्द, उनकी यारी-दोस्ती के किस्से काफी हैँ. गुजरात के विकास माडल पर भी उन्होने अच्छे आंकडोँ के साथ बात रखी है. इतिहास की बुनियादी पढाई करने वाले नीलांजन ने घटनाओँ को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मेँ भी रखा है- जब मोदी आगे बढ रहे थे तो देश-राजनीति मेँ और क्या कुछ हो रहा था. पर वे कई चीजोँ को जडकर नहीँ देखते या एक ही पक्ष बताते हैँ. जैसे यह विवरण तो काफी है कि संघ के तपे-तपाए वकील साहब, देशमुख जी, झांगडा साहब, एकनाथ रानाडे और दत्तोपंत ठेंगडी ने मोदी के प्रशिक्षण और उनको आगे बढाने मेँ सबसे बडी भूमिका निभाई. पर क्या संघ के सबसे तपस्वी जैसे स्वयंसेवक रानाडे और ठेगडी से मोदी ने कोई भी गुण सीखा या इनकी संगति का लाभ अपने स्वार्थ के लिए किया. जैसे ठेगडी स्वदेशी के सबसे बडे वकील थे. उन्होंने ही भारतीय मजदूर संघ को देश का सबसे बडा मजदूर संगठन बनाया. और स्वदेशी के सवाल पर जब वे अटल सरकार से लडने के मूड मेँ आए तो सारा संघ परिवार उन्हे कुंठित बताने लगा कि वे वाजपेयी से सीनीयर हैँ यही कुंठा स्वदेशी के नाम पर निकाल रहे हैँ.
अब अगर मोदी ने ठेंगडी जी से कुछ भी सीखा होता तो गुजरात और देश की वही आर्थिक नीतियाँ नहीँ चलाते जो हमेँ दिख रही है. सीधा मतलब है कि उन्होने ठेंगडी और रानाडे जैसे तपस्वी लोगोँ की तप का, नाम का और कामोँ का फायदा अपनी महत्वाकान्क्षा पूरी करने के लिए उठाया. नीलांजन को संजय जोशी के खिलाफ सीडी जारी करना, तहलका कांड के बाद तरुण तेजपाल के खिलाफ झूठे आरोपोँ की पुस्तिका बांटना और महामंत्री रहते हुए गुजरात के भाजपाई मुख्यमंत्रियोँ के खिलाफ चले उन अभियानोँ वगैरह की याद भी नहीँ आई जिनके साथ मोदी का ना जुडा होने की चर्चा आम थी. बल्कि उसके बाद तो मोदी को गजरात से बाहर कर दिया गया था. पर इस किताब मेँ अपने पक्ष मेम न लिखने वाले पत्रकार दर्शन देसाई समेत कई को परेशान करने, तबाह करने समेत कई ब्यौरे ऐसे भी हैँ जो मोदी के व्यक्तित्व के काले पक्ष को उजागर करते हैँ.
नीलांजन से उलट किंगशुक नाग की किताब की दिक्कत यह है कि वह गुजरात दंगोँ पर ही सारा जोर देती है जिसे नाग ने टाइम्स मेँ रहते हुए ठीक से देखा और कवर किया कराया था. इसके चलते वे मोदी के निशाने पर भी आए. उन्होने मोदी की तरफ से आए दबाव और टाइम्स प्रबन्धन द्वारा उसके आगे न झुकने का हवाला भी दिया है. शायद इसी चलते मोदी ने उनको किताब के सिलसिले मेँ इंटरव्यू का वक्त नहीँ दिया होगा. यह भी सम्भव है कि जल्दी किताब लाने के चक्कर मेँ उन्होने ज्यादा इंतजार नहीँ किया. पर यह कहने मेँ हर्ज नहीँ है कि उन्होने दंगोँ वाला हिस्सा सबसे अच्छा लिखा है और पूरी किताब भी ज्यादा चुस्त-चौकस ढंग से लिखी गई है. पर वे भी अनअम स्रोत्ओँ के सहारे ही मुख्य कथा आगे बढाते हैँ जो बताता है कि दंगोँ के बाद अब वे भी मोदी से पंगा लेने के मूड मेँ नहीँ हैँ. उनको कैरियर मेँ कोई नुकसान हुआ हो या मोदी का दबाव और ज्यादा हो यह बात कहीँ लिखी नहीँ गई है.
पर वे गुजरात मेँ गैस का बहुत बडा भंडार मिलने के झूठे प्रचार या नैनो कार कारखाना लाने मेँ नीरा राडिया की सेवाओँ की चर्चा करके मोदी की कार्यपद्धत्ति और कथित सफलताओँ की पोल भी खोलते हैँ. वे मोदी के राजेश खन्ना स्टाइल बाल बनाने या कुर्ता समेत कपडे पहनने का जिक्र भी करते हैँ और उनकी जीवन शैली भी बताते हैँ. अब मोदी से न मिल पाना या नए सिरे से फील्ड मेँ जाकर शोध न करने जैसे मसलोँ को कोई भुला दे तो यह एक पढनीय किताब लगेगी. यह भाजपा या नरेन्द्र मोदी या संघ विरोधी स्वर की किताब तो नहीँ ही है पर उनके पक्ष मेँ भी नहीँ है. यह एक खास लाभ वाले अवसर पर आने वाली किताब जरूर है.
https://www.youtube.com/watch?v=02BGy21-874
सुदेश वर्मा की किताब के बारे मेँ ये दोनोँ आखिरी बातेँ सही लगती हैँ-यह मौके को भुनाने की तैयारी से आई किताब भी है और मोदी के पक्ष की भी. लेखक खुद भी कोई भ्रम नही रहने देना चाहते क्योंकि वे भूमिका से ही मोदी के खिलाफ कही हर बात को धूल मेँ मिलाने के दावे के साथ ही शुरुआत करते हैँ. उन्हे लगता है कि मोदी के खिलाफ कही किसी बात मेँ कोई दम नहीँ है और कम स एकम उनके मुन्ह पर तो कोई मोदी के आलोचना करके जीत नहीँ सका है-तर्क और तथ्य के आधार पर ये आरोप कहीँ ठहरते ही नहीँ.
अंतिम अध्याय तक आते आते सुदेश मोर लायल दैन किंग बन जाते हैँ जिसका हल्का जिक्र पहले किया जा चुका है. पर एक लम्बे समय तक भाजपा बीट पर काम करने के चलते सुदेश को मोदी के दौर मेँ घटी अनेक घटनाओँ की याद काफी अच्छी है. उनके विवरण देते हुए वे मोदी और उनकी कार्यपध्दति के बारे मेँ जाने –अनजाने कई चीजेँ बता देते हैँ. जैसे दंगोँ के बाद हुए गुजरात मेँ मोदी की कथित गौरव यात्रा की गौरव कथा कहते हुए वे मोदी की पूरी साम्प्रदायिक राजनीति को सामने रख देते हैँ. इसी यात्रा मेँ मोदी ने मुख्य चुनाव आयुक्त लिंगदोह को खालिस इसाई और सोनिया गान्धी के इशारे पर चलने वाला बताने से लेकर सोनिया को विदेशी, मुसलमानोँ को पांच हम, हमारे पचीस अर्थात जंसंख्या बढाने की मशीन और मियाँ मुशर्रफ को दुश्मन बताने जैसी न जाने कितनी बातेँ की थी.
मोदी जब दिल्ली में भाजपा मुख्यालय मेँ रहते थे तब की दोस्ती के सहारे भी कई ब्यौरे दिए गए हैँ. कहने को तो किताब मेँ 50000 हाइपरलिकोँ को खंगालने का दावा किया गया है पर असल मेँ वही व्यौरे रोचक और जानकारी वाले हैँ ( भले वे पक्षपाती होँ) जो सुदेश ने अपनी ओर से दिए हैँ. जैसे गुडगांव से सुधा यादव के चुनाव संचालन का जो ब्यौरा उन्होने दिया है, या सुखराम को पटाने का वह सब मोदी की कार्यशैली का सही रूप बताते हैँ. ऐसे व्यौरे किसी अन्य जगह नहीँ हैँ और सम्भवत: सुदेश ने भी बहुत विचार कर यह नहीँ लिखा है.
असल मेँ सुदेश की किताब अभी वाले दौर की प्रतिनिधि किताब है और हर बडे अवसर पर ऐसी किताबेँ आती ही हैँ. इन सनसे मोदी को क्या घाटा होगा यह कहना मुश्किल है-अगर कुछ होगा भी तो फायदा ही. पर सुदेश के लिए तो कहना बहुत जरूरी नहीँ है लेकिन नीलांजन जैसोँ के लिए कहा जा सकता है कि उन्होने बडा मौका हाथ गंवा दिया है. अगर थोडी सी हिम्मत और चालाकी से वे सभी मसलोँ को सम्भालते तो मोदी तो मोटे ग्रंथ लायक विषय हैँ ही.
1.नरेन्द्र मोदी; द मैन द टाइम्स
लेखक; नीलांजन मुखोपाध्याय
मूल्य-495 रु. (हार्डबाउंड), पृष्ठ संख्या-410
प्रकाशक: ट्रंक्यूबार, नई दिल्ली
2. द नमो स्टोरी; ए पोलिटिकल लाइफ
लेखक; किंग्शुक नाग
मूल्य- 295 रु., पृष्ठ्संख्या- 184
प्रकाशक- रोली बुक्स, नई दिल्ली
3. नरेन्द्र मोदी; द गेमचेंजर
लेखक; सुदेश वर्मा
प्रकाशक- वितास्ता पब्लीशिंग, नई दिल्ली
लेखक अरविंद मोहन वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं. उनका यह लेख थोड़ा कटकर ‘समयांतर’ में प्रकाशित हो चुका है. भड़ास पर अविकल प्रस्तुत किया गया है. अरविंद मोहन पच्चीस साल से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं. जनसत्ता, हिंदुस्तान, इंडिया टुडे, अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से जुड़े रहे. फिलहाल न्यूज चैनलों में सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों के रेगुलर पैनलिस्ट हैं और कई अखबारों में स्तंभ लेखन कर रहे हैं. बिहार के प्रवासी मजदूरों पर बिड़ला फेलोशिप के तहत रिसर्च. अरविंद मोहन से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
https://www.youtube.com/watch?v=BnYX-BA4c4E
Archna Puran Singh
October 31, 2014 at 2:13 am
Arvind ji mahan hai!!!!!
Gopal Ji Rai
October 31, 2014 at 4:27 am
Vishnu Gupt ki kitab ko to chhor hi diya,Lagata hai use dekha nahi
rajkumar
October 28, 2014 at 1:34 pm
arvind ji ka pura lekh pad kar aasani se samjha ja sakta h ki ve apni khij (bhadas) utar rahe h, is ke sivay koi chara bhi nahi h, khisyani bili khamba noche.
bharti
October 28, 2014 at 4:33 pm
अंधी दौड़ में शामिल होने की कोशिश है यह , इसमें न अगर होता है और न मगर ….
shravan shukla
October 28, 2014 at 7:43 pm
जगदीश्वर चतुर्वेदी कोई एक नहीं.. कोई छोटा नाम नहीं.. बल्कि बड़ा वामपंथी नाम है। उनसे ज्यादा टिकाऊं विरोध किसी ने नहीं किया। वो जो लिखते हैं.. सीना तानकर लिखते हैं। फेसबुक पर काफी सक्रिय हैं..
Rajeev Sharma
October 29, 2014 at 5:11 am
अगर किसी में दम है तो दिग्विजय सिंह पर किताब लिखकर दिखाओ। हिट होने की गारंटी है। पता नहीं लोगों का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया।
RANJAN ZAIDI
October 29, 2014 at 5:05 pm
जगदीश्वर चतुर्वेदी ‘कोई एक’. सम्बोधन अच्छा नहीं लगा. आप किसी को भाव मात्र इसलिए नहीं देना चाहते कि वह वामपंथी हैं, सही नहीं है. जहां तक नरेंद्र मोदी पर लिखी गई पुस्तकों का हाल है, तो वह इस समय मिस्री का ढेला है, फर्श पर ढेला गिरेगा तो चींटीयाँ लिपटेंगीं ही. अच्छे दिनों में ऐसा भी होता है. लेकिन समय एक जैसा कभी नहीं रहता. अम्बानी मोदी का दोस्त नहीं है, उनके पद और उनसे होने वाले संभावित लाभों का दोस्त है.बहुत कुछ अभी परदे में रहने दीजिये, समय स्वयं प[ऑर्टन खोल देगा. आपका प्रयास सराहनीय है.