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सुख-दुख

नेचरोपैथी की दास्तान : (पार्ट-2)

अनिल शुक्ल-

यूरोप में वह 18वीं सदी दौर था जब सामंतवाद को ठिकाने लगाता पूंजीवाद अपने व्यापारिक स्वरूप को तिलंजलि देकर तेजी से औद्योगिक पूंजीवाद की सीढ़ियों चढ़ रहा था। भाप की उर्जा का आविष्कार उसका सबसे बड़ा हथियार था और इसी हथियार के दम पर उसने अपने ख़ज़ाने को ‘पूंजी’ के बड़े स्टॉक से भरना शुरू कर दिया था। अपनी प्रगतिशील सोच और पूंजी के इस अकूत भंडार की मदद से उसने विज्ञान के क्षेत्रों में बहुत बड़ा निवेश किया।

नतीजतन उसके पांव इतने मजबूत होते चले गए कि वह अपने समाजों और दुनिया के बाकी महाद्वीपों में पसरता चला गया। ‘वैज्ञानिक विकास’ की इस सरपट दौड़ में एक ओर जहां उसने कल कारखानों और परिवहन (रेल और सड़क) का जाल बिछाया वहीं दूसरी ओर समाज और मनुष्य की निजता की जांच पड़ताल करके उसकी बेहतरी के रास्ते भी ढूढ़ने शुरू कर दिए जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ समाज के रोग और मनुष्य की चिकित्सा के मुद्दे भी शामिल थे। इस क्षेत्र में प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक अलग-अलग समाजों में भांति-भांति के चिकित्सा शोध होते रहे थे। उसने पुरानी शोध के नतीजों को संकलित कर नई शोध की सुसंगठित राह गढ़ी। दरअसल पूंजीवाद यह सब करके आम मनुष्य के मस्तिष्क में यह बात दर्ज कर डालना चाहता था कि वह अपने पूर्वज -सामंतवाद की तुलना में मनुष्य का ज़्यादा बड़ा हितैषी और मनुष्योंमुखी विज्ञान का पहरुआ है। यहीं से आधुनिक चिकित्सा संसार का नया राजमार्ग खुला जो अगली सदी तक पहुँचते-पहुँचते प्रकृति और रसायन की दो अलग-अलग दुनिया में दाखिल हो सका।

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पूंजीवाद सिर्फ पूंजी को ही अपना माई-बाप मानता था। प्राकृतिक तत्वों और उसकी चिकित्सा पद्धति में उसे न निवेश की गुंजायश दिखी, न कमाई की, लिहाजा इसे कुछ ‘सिरफिरों’के ज़िम्मे छोड़ उसने रसायनों में दिलचस्पी दिखाई। उसने न सिर्फ रसायनों और इनसे पैदा होने वाली दवाओं के शोध और निर्माण को उद्योगों के रूप में ढाला बल्कि इससे जुड़ी चिकित्सा पद्धति-एलोपैथी में भी जबर्दस्त निवेश किया। यही कारण है कि 20 वीं सदी की शुरूआत होते-होते सारी दुनिया में एलोपैथी और उसकी दवाओं के फर्मास्यूटिकल उद्योग का जो डंका बजना शुरू हुआ था, आज इक्कीसवीं सदी में उसकी क़ामयाबी की अनुगूंज इंसान के सिर चढ़कर बोल रही है। उसके ‘साइड इफेक्ट’ इंसान को हलकान किये हुए हैं, यह दूसरी लेकिन चिंताजनक बात है।

जर्मन भौतिक शास्त्री पॉल एहरिक ने अपनी प्रयोगशाला के प्रयोगों के दौरान 1909 में ऐसे कैमिकल को खोज निकला जो बैक्टीरया के एक परिवार की तो ‘हत्या’ कर डालता था लेकिन अन्य परिवारों को सुरक्षा प्रदान करता था। उन्होंने इसका उपयोग ‘सिफलिस’ जैसी गंभीर बीमारी के रोगियों में किया, जर्मन फौजों और समाज में जिनकी बहुतायत थी। यहाँ उन्हें शानदार सफलता मिली और यहीं से एक ऐसे औषधि परिवार का जन्म हुआ जिसे बेशक़ एहरिक ने ‘कैमोथेरेपी’ नाम दिया लेकिन जो आगे चलकर ‘एंटीबायोटिक’ कहलायी। सन 1928 में ब्रिटिश वैज्ञानिक एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने भी ‘पेन्सिलियम’ नामके एक फंगस को बैक्टीरियाओं की अनेक प्रजातियों की ‘हत्या’ कर डालने में सक्षम पाया। उनके इस प्रयोग को जब रोगियों के इलाज में लागू किया गया तो आशातीत परिणाम निकले।

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5 ब्रिटिश और अमेरिकन फार्मास्युटिकल कंपनियां इस पेन्सिलिन के वृहद् निर्माण के क्षेत्र में कूदी और उन्होंने सारी दुनिया के रोगियों के बीच रामबाण की लहर बरपा कर दी। यूं ‘एंटीबायोटिक’ शब्द की खोज उक्रेनियन-अमेरिकी माइक्रोबायोलॉजिस्ट सेलमन वाक्समेन ने की थी जिनके हिस्से 20 एंटीबायोटिक की खोज का इतिहास जुड़ा है। जैसे-जैसे समय गुज़रा, एंटीबायोटिक दवाओं की प्रजातियों का कुनबा वृहत्तर होता गया। ये दवाएं दुनिया भर के मरीज़ों में एक ओर जहाँ जीवन दान की वैतरिणी के रूप में उभर रही थीं वहीँ इनके ‘साइड इफेक्ट्स’ मनुष्यों के लिए किसी नरक से कम साबित नहीं हो रहे थे।

मनुष्यों को होने वाले इन नुकसानों को लेकर पूंजीवाद को क़तई फ़िक्र नहीं थी। उसकी चिंता सिर्फ अपने निवेश और मुनाफे को लेकर थी और यही वजह है कि उसने अपने द्वारा ‘प्रमोट’ होने वाले फार्मास्युटिकल उद्योग और इससे जुड़े एलोपैथी चिकित्सा के मानवीय पेशे को भी इन चिंताओं से मुक्त रखा। यूरोप और अमेरिका के इन चिन्ताहीन पेशेवर वैज्ञानिकों और चिकित्स्कों के समानांतर वहां के समाजों में ऐसे सिरफिरे सामाजिक वैज्ञानिक जन्म ले रहे थे जो चिकित्सा के पेशे को मानवीय लूट का नहीं, सामाजिक सरोकार का पेशा मानते थे। अमेरिकी डॉ० बेन्क्वेट लस्ट उन्हीं ‘सिरफिरों में एक थे जो चिकित्सा जैसे पेशे को ‘पवित्र’और ‘सामाजिक सरोकारों’ से जुड़े कर्तव्यों की सूची में गिनते थे। लस्ट ही दुनिया में नेचरोपैथी के सूत्रधार बने।

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अपने पिछले अंक में मैंने नैचुरोपैथी की भारत में दस्तक के लिए गाँधी के योगदान की चर्चा की थी। नेचरोपैथी का क़ाफ़िला बीसवीं सदी की शुरुआत में अमेरिका से चलकर यूरोप पहुंचा और इंग्लैंड इसका मुख्यालय बन गया। इंग्लॅण्ड की औपनिवेशिक दादागिरी चूंकि सुदूर अफ्रीका और एशिया तक फैली थी लिहाज़ा उसकी सभी अच्छी-बुरी आदतें वहां के देशों में भी फैलती गयीं। नेचरोपैथी ऐसी ही एक अच्छी आदत थी। दक्षिण अफ्रीका के नेटाल और जोहानिसबर्ग के अपने ‘फ़ॉनिक्स सेटेलमेंट’ और ‘टॉलस्टॉय फ़ॉर्म’ आश्रमों में तो गाँधी जी ने इसके भरपूर प्रयोग किये ही वहां ‘बायर युद्ध’ के घायल सैनिकों और प्लेग के रोगियों की सेवा में भी उन्होंने और उनके स्वयंसेवकों ने नेचरोपैथी का भरपूर उपयोग करके रोगियों को स्वस्थ किया। यूं उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा जोहानिसबर्ग में सीखी लेकिन इलाज में प्रकृति के उपयोग के प्रति आकर्षण उनको इंग्लैंड में अपनी पढ़ाई के दौरान अडोल्फ़ जस्ट की किताब ‘रिटर्न टू नेचर : दि पैराडाइज़ रीगेन’ और लुइस कुहने की ‘न्यू साइंस ऑफ़ हीलिंग’ पढ़कर ही हो गया था। अफ्रीका से स्वदेश लौटकर उन्होंने इसकी शुरुआत सबसे पहले साबरमती आश्रम में की। आगे चलकर पुणे के निकट स्थित गांव उरिकांचन में उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा क्लिनिक की स्थापना की। पुणे के डॉ० दीनशाह मेहता आजीवन उनके प्राकृतिक चिकित्सक बने रहे।

गाँधी जी ने देश में नेचरोपेथी को लोकप्रिय बनाने के लिए भरपूर प्रयास किये। उन्हें शाकाहार से सदा से प्रेम था, शाकाहार का उनका यही प्रेम आगे चलकर उनकी चिकित्सा पद्धति का अभिन्न अंग बन गया। उन्होंने नेचरोपैथी पर अनेक किताबें और आलेख लिखे। उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘नेम अ फ्यू की टू हेल्थ’, ‘नेचर क्योर’, ‘डाइट एंड डाइट रिफॉर्म्स’ और ‘प्रेयर एंड वेजिटेरियनिज़्म’ आदि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। उन्होंने देश भर के सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को अपने आश्रम में आकर प्रशिक्षण लेने के लिए आमंत्रित किया। बड़ी तादाद में स्वयंसेवक वहां पहुंचे भी और प्रशिक्षण प्राप्त करके देश भर में फैल गए। ऐसे लोगों ने देश के अलग अलग स्थानों में प्राकृतिक चिकित्सा केंद्रों की स्थापना की। इन स्वयंसेवकों में अन्य लोगों के अलावा आचार्य बिनोवा भावे भी थे।

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‘इंडियन जर्नल ऑफ़ मेडिकल हेल्थ’ ने जनवरी 2019 के अपने अंक में स्वीकार किया है- ‘यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 21 अगस्त से 15 नवम्बर 1945 में गाँधी जी डॉ० दिनशाह मेहता के पुणे स्थित ‘प्रकृति चिकित्सा सेनेटोरियम’ में 90 दिन के लिए तब भर्ती हुए जब उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था। यहाँ रहकर उनके स्वास्थ्य में ज़बरदस्त सुधार हुआ। वह पूरी तरह तरोताज़ा हो गए और उनका वज़न 6 पौंड (2.7 किग्रा) बढ़ गया। वह आत्मविश्वास में भरकर चिल्ला उठे-“अब मैं 120 साल तक जी सकूंगा!” इसी के चलते अपनी हत्या के दिन तक वह पूरे तौर पर स्वस्थ बने रहे।’

(क्रमशः जारी)

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आगरा के मूल निवासी अनिल शुक्ल हिंदी मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार, हिंदी जगत के जाने माने रंगकर्मी और चर्चित सोशल एक्टिविस्ट हैं.

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