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सियासत

नौकरी के नाम पर सरकार के पास हसीन आंकड़े और फरेब के सिवा कुछ नहीं है!

केपी सिंह-

आंकड़े भ्रमजाल रचाने के माध्यम बन गये हैं। सोमवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशभर में 47 स्थानों पर आयोजित प्रधानमंत्री रोजगार मेलों का शुभारम्भ किया। इस दौरान उन्होंने विपक्ष द्वारा उठाये जा रहे रोजगार के मुद्दे की हवा निकालने के लिए यह दावा ठोक दिया कि मनमोहन सिंह की सरकार के 10 वर्षों के कार्यकाल में जितनी सरकारी नौकरियां दी गई थी उनके दस वर्ष के वर्तमान कार्यकाल में उससे डेढ़ गुना ज्यादा युवा सरकारी नौकरियों में समायोजित किये जा चुके हैं।

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प्रधानमंत्री का यह दावा चौकाने वाला है। क्योंकि अभी तक जब उनकी सरकार पर यह आरोप लगा कि उसके द्वारा सरकारी भर्तियां नहीं की जा रही हैं तो सरकार प्रतिरक्षा की मुद्रा में आ जाती थी। अगर वह पिछली सरकार से ज्यादा नौकरियां दे रही थी तो उसके साथ ऐसा क्यों था? उसकी जुबान पर इस आरोप का कोई जबाव क्यों नहीं आ पाता था?

रोजगार के प्रश्न पर सरकार की अनुत्तर स्थिति के कारण ही प्रधानमत्री नरेन्द्र मोदी को एक अवसर पर अत्यंत विचित्र बात कहनी पड़ गई थी जिससे लोग उनका मुंह ताकने को मजबूर हो गये थे। प्रधानमंत्री ने कह दिया था कि क्या पकोड़े तलना रोजगार नहीं है। नौकरियां दे पाने में सरकार की लाचारी के चलते ही उन्हें पकोड़े तलने, फुटपाथ पर बैठकर बूट पालिस करने और गन्ने का रस पिलाने के स्टाल में रोजगार साबित करना पड़ रहा था। कोरोना कार्यकाल में तो भर्तियां ठप रही ही थी। इसके बाद भी भर्तिंयां खोलने में कोई उत्साह नहीं दिखाया गया। एक के बाद एक सरकारी सेवाओं का निजीकरण शुरू कर दिया गया। इसके चलते भर्ती के नाम पर संविदा नौकरियां और ठेका नौकरियां युवाओं के नसीब में लिख गई जिनमें न तो मेहनत के अनुपात में वाजिब मेहनताना है और न ही इन तथाकथित नौकरियों में सामाजिक सुरक्षा की कोई व्यवस्था है।

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संविदा भर्तियों में भी नियमित नौकरियों के मुकाबले नगण्य मानदेय मिलता है लेकिन आउट सोर्सिंग के चलते शुरू हुई ठेका भर्तियों में तो हालत बेहद दयनीय है। इस युग में नौ हजार से बारह हजार रूपये के मासिक मानदेय पर युवाओं को बारह से चैदह घंटे तक डयूटी देने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह श्रम अधिनियम का मखौल है और अपरोक्ष रूप से बेगारी प्रथा का आभास देने वाली यह स्थिति मानवता के विरूद्ध अपराध जैसी है। यह कोई तर्क नहीं हो सकता कि ठेका कामगार भी अधिकांशता ऊपर बहुत बना लेते हैं इसलिए इतने कम मानदेय में तकलीफ की कोई बात नहीं है। सरकारी कार्य संचालन में भ्रष्टाचार की छूट को जायज ठहराना कतई स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

दरअसल बेलगाम भ्रष्टाचार शासन की क्षमता पर प्रश्न चिन्ह खड़े करता है फिर भी सरकार में बैठे लोगों के जमीर को इससे कचोट अनुभव नहीं होती। वर्तमान सरकार तो यह मानने से ही इंकार कर चुकी है कि उसके रहते अब सरकारी काम में कहीं कोई भ्रष्टाचार रह गया है। यह धृष्टता की चरम सीमा है। वास्तविकता यह है कि वर्तमान में भ्रष्टाचार पहले से कई गुना व्यापक हो चुका है क्योंकि भ्रष्ट तत्व सरकार की ओर से उन पर कोई कार्यवाही होने को लेकर वर्तमान में पूरी निश्चिंतता अनुभव कर रहे हैं।

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लोगों की चेतना भी जैसे कुंद हो चुकी है। भ्रष्टाचार की व्यवस्था उनके शोषण और अपमान का कारण बनी हुई है फिर भी वे अपने में कोई उबाल महसूस नहीं करते। बात हो रही थी नौकरियों की-हद तो यह है कि अग्निवीर जैसी योजना को लाकर सरकार ने सेना की भर्ती से भी हाथ सिकोड़ लिये हैं। अब प्रधानमंत्री के अपने दस वर्षों में पिछली सरकार के दस वर्षों से डेढ़ गुना ज्यादा नौकरियां देने के दावे का आधार क्या है यह भगवान ही जानता है। वे कौन सी बाजीगरी दिखाकर सरकारी भर्तिंयों में इतना ज्यादा रोजगार गिनने में सफल हो रहे हैं। क्या वे ठेका कामगारों को भी नौकरी पेशा लोगों की संख्या में जोड़ रहे हैं।

प्रधानमंत्री का हर दावा अदभुत होता है। वे अत्यंत साख वाली अंतरराष्ट्रीय एजेसिंयों की रेटिंग को भी नकारकर हर बात में अपनी सरकार के रिकार्ड को शानदार जता डालते हैं। उन्होंने लोगों को अपने मोहपाश से इस कदर जकड़ रखा है कि लोग उनके अविश्वसनीय दावों को संदिग्ध मानने की बजाय उन्हें प्रमाणिक रूप में स्वीकार कर लेते हैं। जनमत को इस कदर विनम्र और विनीत कभी नहीं देखा गया। ऐसे भक्तिभाव ने लोकतंत्र का औचित्य ही समाप्त कर दिया है।

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कुछ दिनों पहले संसद का बजट सत्र हुआ था। जिसके दौरान केन्द्रीय वित्त मंत्री ने पिछली सरकार की अर्थव्यवस्था को लेकर एक श्वेत पत्र जारी किया था। वैसे तो सरकार अपने समय की स्थिति के बारे में श्वेत पत्र जारी करती न कि पिछली सरकार के समय की स्थिति को लेकर लेकिन इस सरकार की हर कारस्थानी लोगों के सिर माथे है। श्वेत पत्र में लिखा गया कि मनमोहन सिंह सरकार के समय देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह तबाह थी। संसद के इसी सत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह की तारीफ में जमकर कसीदे गढे थे। एक ओर तो मनमोहन सिंह की देश के लिए सेवा पर जान लुटा देने वाली मुग्धता दूसरी ओर उन पर देश का दिवाला निकालने की तोहमत भी।

ऐसे विरोधाभास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए नट कौशल में दक्षता का विशेषण बन चुके हैं। क्या सचमुच मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में देश को आर्थिक अंधेरे में धकेल दिया था। इस सवाल का उत्तर तो कोई विशेषज्ञ अर्थशास्त्री ही दे सकता है। लेकिन यह बात सभी के ध्यान में है कि जब पूरे विश्व में आर्थिक मंदी छायी हुई थी तो उस समय भारत में प्रगति की रफ्तार देखकर वैश्विक शक्तियां दांतों तले उंगलियां दबाने को मजबूर हो रही थी। पर मनमोहन सिंह सरकार के इस पूरे पुण्य पर उक्त श्वेत पत्र में वर्तमान सरकार ने पानी फेर दिया है।

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लोकसभा के नये चुनाव की बेला जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है वैसे-वैसे सत्तापक्ष के इतने चकाचैंध भरे हमले बढ़े हैं कि विपक्ष की सिट्टी पिट्टी जैसे गुम होती जा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह स्थापित करने में कामयाबी मिली है कि आजादी के उनके पहले के इतने दशकों में कोई काम नहीं हुआ। पर वर्तमान सरकार ने चमत्कारिक दौड़-दौड़कर दुनिया में देश को सबसे आगे पहुंचाकर रख दिया है।

लेकिन राजनीतिक मृग मरीचिकाओं को रचकर समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं किया जा सकता। रोजगार की चर्चा में अपने स्टार्टअप अभियान के लिए भी उन्होंने अपनी पीठ खूब ठोकी पर सभी को दिखायी दे रहा है कि धरातल पर स्टार्टअप कहीं नहीं है। ऐसे में वितंडाबाद से लोगों में उपजी तंद्रा की उम्र लंबी नहीं होने वाली। आंकड़ों की हेराफेरी स्थिति को झुठला नहीं सकती इसलिए लोगों की तंद्रा टूटे और अपने को ठगा महसूस करके विफरे युवा रोजगार के सवाल पर सड़कों पर उतरने को आमादा हो जायें इसकी प्रतीक्षा करने की बजाय उन्हें सार्थक रोजगार देने के लिए सरकार को प्रभावी मंथन करना चाहिए। उसे नौकरियां समाप्त करने की बजाय सृजित करने वाली नीतियां अख्तियार करनी होगीं।

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अगर सरकारी क्षेत्र की विशालता अभिशाप बन सकती है तो निजीकरण की भी एक सीमा होनी चाहिए अन्यथा उसके भी परिणाम घातक हो सकते हैं। अगर पब्लिक सेक्टर व प्राइवेट सेक्टर को उचित अनुपात में रखकर व्यवस्था चलाने का खाका खींचा जाये तो यही दिशा श्रेयस्कर है। क्या सरकार भी इस ओर सोचेगी।

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