नोटबंदी की जिस फिल्म का 8 नवम्बर को मोदी जी ने धूम धड़ाके के साथ रात 8 बजे प्रदर्शन किया था उसके टाइटल तो बड़े आकर्षक थे… फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ी तो उसकी पटकथा में तमाम झोल नजर आने लगे। फिल्म के जो सितारे थे वह थोड़े ही दिन बाद खलनायकों में तब्दील हो गए। सोशल मीडिया के भक्तों ने बैंकों के अधिकारियों और कर्मचारियों को सितारा बताते हुए उनकी तुलना सरहद पर खड़े जवानों की ड्यूटी से कर डाली। यह बात अलग है कि बैंकों के ये सितारे बाद में गब्बर सिंह निकले, जिन्होंने पिछले दरवाजे से काले कुबेर रूपी मोगेम्बो से सांठगांठ कर कतार में लगे तमाम मिस्टर इंडियाओं को मूर्ख बना दिया और परवारे ही नए नोट बैंकों से लेकर एटीएम से गायब होकर काले कुबेरों के पास जमा हो गए।
नोटबंदी की फिल्म इन्टरवल तक आते-आते ही अनाड़ी निर्देशक जेटली जी के हाथों हाफने लगे थी… क्लाईमैक्स में तो निर्देशक ही गायब हो गए और निर्माता यानि मोदीजी ने ही द एण्ड कर डाला, लेकिन यह भी टोटल फ्लॉप साबित हुआ… जनता को उम्मीद थी कि उसकी 50 दिन की तपस्या का चित्रण द एण्ड में नजर आएगा, मगर मोदी जी ने नोटबंदी की इस फिल्म में विषय के अनुरूप द एण्ड करने की बजाय बोरिंग बजट भाषण पेश कर दिया… एक्शन के हल्ले के साथ शुरू हुई नोटबंदी की यह फिल्म कॉमेडी के साथ-साथ तमाम खामियों की ड्रामेबाजी में बदल गई… फिल्म के सहप्रोडयूसर रिजर्व बैंक की भूमिका तो अत्यंत दयनीय नजर आई। दरअसल इस फिल्म की कहानी से लेकर पटकथा में शुरू से ही झोल रहे, जिसका खामियाजा कतार में लगी आम जनता को भुगतना पड़ा।
बीच-बीच में प्रोड्यूसर महोदय लिजलिजे और भावुक संवादों के जरिए तालियाँ तो पिटवाते रहे, मगर द एण्ड में जाकर गच्चा खा गए। होना तो यह था कि जिस तरह हिन्दी फिल्मों में नायक जोरदार तरीके से खलनायकों की कुटाई करता है, वैसी ही धुलाई काले कुबेरों की नोटबंदी की फिल्म के द एण्ड में दिखना चाहिए थी, लेकिन 94 प्रतिशत पैसा बैंकों में जमा होने के चलते ही नोटबंदी की फिल्म पीट गई, इसलिए उसका लेखा-जोखा मोदी जी प्रस्तुत नहीं कर पाए। उन्हें जनता को बताना था कि इन 54 दिनों में कितना कालाधन उनकी सरकार ने पकड़ा और कुल कितना पैसा बैंकों में जमा हुआ। जानकारों का यह भी कहना है कि 15 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि बैंकों में जमा हो चुकी है, जिसमें जाली नोट भी शामिल हैं। जन-धन से लेकर बचत, चालू और तमाम खातों की जानकारी भी मोदी जी को देश के सामने रखना थी, मगर हालत यह है कि पिछले 20 दिनों से रिजर्व बैंक ने ही कोई आंकड़े जारी नहीं किए और सब मुंह पर पट्टी बांधे बैठे हैं। जनता-जनार्दन को यह तो बताया जाए कि नोटबंदी से भारत सरकार को भी आखिरकार हासिल क्या हुआ..?
ईमानदार लोगों ने बैंकों में जो अपना पैसा कतारों में खड़े होकर जमा कराया उसे वह कब तक और किस तरह प्राप्त कर सकेगी इसकी भी कोई स्पष्ट जानकारी फिलहाल नहीं है। बेनामी सम्पत्तियों के हमले का भी बड़ा हल्ला था, उसका भी कोई फरमान 31 दिसम्बर के राष्ट्र के नाम संदेश में नजर नहीं आया। कम से कम मोदी जी यही घोषणा कर देते थे कि जिस तरह ईमानदार जनता ने कालेधन और भ्रष्टाचार के मामले में उनकी सरकार का साथ दिया ऐसे में सरकार में बैठी उनकी पार्टी भाजपा भी कैशलेस हो रही है। मोदी जी कहते कि 1 जनवरी 2017 से भाजपा 1 रुपए का भी चंदा नकद नहीं लेगी और चाय वाले और ठेले वाले की तर्ज पर भाजपा ई-वॉलेट या ऑनलाइन ही चंदा स्वीकार करेगी। इससे कांग्रेस सहित सारे विपक्षी राजनीतिक दल एक्सपोज हो जाते और मोदी जी की फिर वाहवाही हो जाती, मगर मोदी जी इस मामले में भी सभी दलों की आड़ ले रहे हैं। जब उन्होंने नोटबंदी बिना किसी की राय लिए लागू कर दी, तो भाजपा को कैशलेस करने में सर्वदलीय राय का नाटक क्यों किया जा रहा है..? कुल मिलाकर नोटबंदी की यह फिल्म अपने लचर द एण्ड के साथ अत्यंत फ्लॉप साबित रही। इससे तो मुलायम और अखिलेश की नूराकुश्ती का ड्रामा अधिक मसालेदार नजर आया, जो भरपूर टीआरपी भी बटोर रही है…
लेखक राजेश ज्वेल इंदौर के सांध्य दैनिक अग्निबाण में विशेष संवाददाता के रूप में कार्यरत् और 30 साल से हिन्दी पत्रकारिता में संलग्न एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के साथ सोशल मीडिया पर भी लगातार सक्रिय. संपर्क : 9827020830