Samarendra Singh : आज जब से मैंने अपने दोस्त और वरिष्ठ पत्रकार Navin Kumar के साथ हुई खौफनाक वारदात के बारे में पढ़ा है तभी से सदमे में हूं. इस दिल्ली पुलिस के क्रूर चेहरे से हममें से बहुतेरे वाकिफ हैं. मैं तो खुद इनका शिकार हो चुका हूं. बात करीब एक दशक पुरानी है. आईटीओ पुल के नीचे मौजूद थाने पर तैनात एक थानेदार ने मेरे साथ बद्तमीजी की थी. रात तीन बजे मेरे दोस्त, मेरे बड़े भाई अभय कुमार को आकर मेरी जमानत देनी पड़ी थी. लंबा अरसा गुजर चुका है, लेकिन आज भी उस बद्तमीज और बेहूदे इंस्पेक्टर अनुज गुप्ता का नाम मेरे जेहन में ताजा है.
मैं आज भी सोचता हूं कि वर्दी पहनने के बाद एक शख्स इंसान से जानवर कैसे बन जाता है? वो कानून की कौन सी ताकत है जो नागरिकों में सुरक्षा की भावना भरने की जगह डर का संचार करती है. ये कानून, ये पुलिस और ये अदालतें आम नागरिकों की हिफाजत के लिए बनाई गई हैं या फिर उनका लहू चूसने के लिए? और जब देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस इतनी बर्बर, हिंसक और वहशी हो सकती है तो फिर दूर दराज इलाकों में तो इनकी हुकूमत ही चलती होगी.
सच भी यही है. असली हुकूमत इन्हीं वर्दी वाले गुंडों की चलती है. ये इतने बेलगाम और भ्रष्ट हैं, इसलिए रात होते ही सड़कों पर सन्नाटा छा जाता है. इसलिए किसी के घर में लूट हो जाती है और राह चलते किसी महिला का बलात्कार हो जाता है. काम से घर लौटता कोई शख्स मार दिया जाता है. ये भ्रष्ट नहीं होते, अपराधी नहीं होते और अपराधियों को संरक्षण नहीं देते तो हम और आप इतना असुरक्षित महसूस नहीं करते.
साथी नवीन कुमार के साथ जो हुआ है… वह हम सबके लिए घोर अपमान का विषय है. ऐसा इसलिए कि यह किसी आंदोलन, किसी विरोध प्रदर्शन के दौरान नहीं हुआ. उस दौरान होता तो भी यह समझा जा सकता था कि ऊपर से सख्ती का कोई आदेश आया होगा, जिसे निभाने के क्रम में पुलिस से कोई गुस्ताखी हो गई होगी. हालांकि वह सूरत भी अपमानजनक और खौफनाक ही होती है. फिर भी एक संतोष होता है कि ऐसा आवाज उठाने के क्रम में हुआ है. लेकिन इस बार ऐसा राह चलते बिना किसी उकसावे के हुआ है. बिना किसी धरना प्रदर्शन, बिना किसी विरोध के हुआ है. और इसकी सिर्फ एक वजह है वर्दी का रौब. ये खाकी वर्दी का रौब है जिसके कारण उन्होंने एक पत्रकार को उसकी औकात बताने की कोशिश की है.
ये कॉन्स्टेबल ग्यारसी लाल यादव, ये इंस्पेक्टर शिवकुमार, बच्चा सिंह, ईश्वरी सिंह और ये विजय – ये सभी दरअसल अपराधी हैं. ये पुलिस के वेश में राक्षस हैं. इन्हें इनके किए की सजा मिलनी चाहिए. पहली सजा तो यही है कि ये सभी कानून का रक्षक बनने के लायक नहीं है. इनके जिस्म से खाकी वर्दी उतार ली जानी चाहिए और इन्हें सलाखों के पीछे डाल देना चाहिए. किसी भी समाज में इनके जैसे राक्षस खुले में नहीं छोड़े जा सकते.
यहां सवाल यह उठता है कि क्या ऐसा होगा? क्या इन अपराधियों को इनके किए की सजा मिलेगी? सत्ता में बैठे लोगों में क्या इतनी संवेदना बची है कि वो नवीन कुमार को इंसाफ और इन सभी राक्षकों को इनके अपराध की सजा दिलाएंगे?
मुझे ऐसा नहीं लगता. सत्ता में बैठे लोगों की संवेदना मर चुकी है. यही नहीं हमारा शासक वर्ग इतना क्रूर और हिंसक हो चुका है कि वह नागरिकों को मशीन में परिवर्तित करने में जुटा है. ऐसी मशीन जो एक कमांड पर हिंसक भीड़ बन जाए और अपनों को ही कत्ल कर दे. ये सभी एक संवेदनशील, मानवीय सभ्य समाज की रचना नहीं कर रहे. बल्कि मिल कर सुनियोजित तरीके से एक उग्र भीड़तंत्र की रचना कर रहे हैं.
यकीनन माहौल घोर निराशा का है. लेकिन इस निराशा के माहौल में भी हम अपनी आवाज धीमी नहीं करेंगे. दिल्ली पुलिस की इस बर्बर कार्रवाई का पुरजोर विरोध करेंगे. घाव सिर्फ साथी नवीन के जिस्म और जेहन पर ही नहीं लगे हैं. बल्कि हम सबके के लिए यह अपमान का विषय है. यह घटना हम सबके माथे पर एक ऐसा बदनुमा दाग है, जिसे सिर्फ और सिर्फ इंसाफ से ही धोया जा सकता है. और जब तक साथी नवीन को इंसाफ नहीं मिलेगा ये दाग हमारे माथे पर इसी तरह बना रहेगा. आप अपने खेमे में बैठे चाहे तो इसे झुठलाने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन आपके झुठलाने से यह दाग धुलेगा नहीं.
एनडीटीवी में काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार समरेंद्र सिंह की एफबी वॉल से.
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