क्रूर क्रूरतम होता जा रहा है । कमज़ोर को ही चुनौती है कि वो साहस दिखाये । क्रूरता को झेलते हुए मुस्कुराये । सत्ता और उसके नियम क्रूरता के प्रसार के लिए हैं । कमज़ोर सिर्फ उनकी चालों से शह की उम्मीद में मात खाता जा रहा है । हम जड़ होते जा रहे हैं । यथार्थ को समझते समझते हमने यथार्थ की वर्चुअल रियालिटी बना डाली है । दुनिया अगर ख़ुशगवार है तो वह सिर्फ विज्ञापनों में है । क्रूरता रोज बढ़ती जा रही है । उसका एक एकांत होता है । जहाँ कुछ लोग उसकी भेंट चढ़ते रहते हैं । हम इस दुनिया से क्रूरता कम नहीं कर सके।
कश्मीर का अतीत जितना क्रूर रहा है उतना ही उसका वर्तमान भी । कश्मीर के बाहर मूर्खों की एक बड़ी फौज है जो उसकी जटिलता को तोड़ मरोड़ कर उसका वोटास्वादन करना चाहती है । जैसा आप किसी मिठाई का रसास्वादन करते हैं वैसे ही नेता वोट के लिए आपकी भावनाओं का जब जलपान करता है तो मैं उसे वोटास्वादन कहता हूँ । अनगिनत रायों और नारों के बीच हिन्दू और मुसलमान कश्मीरियों के ज़ख़्म दुधारी तलवार से रोज़ कुरेदे जाते हैं।
दूध माँगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर माँगोगे तो चीर देंगे टाइप के ट्रकीय राष्ट्रवाद के आगे कश्मीर के ज़ख़्मों को समझने के लिए हमें हर तरह की सीमाओं से आजाद भी होना होगा । हमारे फ़िल्मकार कश्मीर के उन ज़ख़्मों से सहज होने लगे हैं । उनसे संवाद करने लगे हैं । पंडित ओमकारनाथ धर और दानिश अली और सरताज का किरदार एक ऐसे किस्से को रचते हैं जो हमें कश्मीर को लेकर रोज रोज बनाए जा रहे ‘ नैरेटिव’ वृतांत से निकाल लाती है । हमारे कई निर्देशक कश्मीर को लेकर जोखिम उठाने लगे हैं । समाज भी नए नज़रिये का इंतज़ार कर रहा है।
विधू विनोद चोपड़ा कश्मीर ने कश्मीरी पंडितों के दर्द को उन्होंने अनुपमखेरीय राष्ट्रवाद से अलग समझा है । उनकी परिपक्वता क़ाबिले तारीफ है । वज़ीर की कहानी टार्च की तरह कश्मीर के मौजूदा राजनीतिक यथार्थ पर रौशनी डालती है । जब पीडीपी और बीजेपी मिल सकते हैं तो ओमकारनाथ धर और दानिश क्यों नहीं । कश्मीर पर बन रही फ़िल्मों में रोज़ा ही हल्की साबित हो रही है जबकि पहली होने का श्रेय उसे हमेशा यादगार बनाए रखेगा । कश्मीर पर बनी लक्ष्य, लम्हा, दिल से, हैदर की परंपरा से समृद्ध होती हुई फ़िल्म वज़ीर आपको एक नया रास्ता दिखाती है।
यह फ़िल्म एक बार और प्रयास करती है कि माडिया के ज़रिये क़िस्सों को गढ़ना कितना आसान है । जनहित में ज़रूरी है कि मीडिया और विज्ञापन के ज़रिये गढ़े जा रहे क़िस्सों पर सँभल कर यक़ीन किया जाए । वज़ीर हमारी आँखे खोलने का प्रयास करती है । बताती है कि कोई कितनी आसानी से छल कर सत्ता तक पहुँच जाता है और राष्ट्रवाद का लंगोट और टोपी धारण कर लेता है।
मैं फ़िल्म की कहानी नहीं लिखना चाहता । फ़िल्म देखते हुए मुझ पर जो बीत रही थी वही लिख रहा हूँ । फ़रहान अख़्तर शानदार अभिनेता हैं । अभिनय की प्रति उनकी निष्ठा उनके अभिनय से ज़्यादा प्रभावित करती है । क़ाबिल तो वे है हीं । अमिताभ की आवाज़ ने वज़ीर के क़िस्से को बड़ा आसमान दिया है । अमिताभ जीवन के इस मोड़ पर अपने स्टारडम से आज़ाद हो गए हैं । ब्लैक की तरह वज़ीर उनकी जिंदगी की उपलब्धि है । पीकू तो चार चाँद के समान है।
वज़ीर निजी जिंदगी के ज़ख़्मी क़िस्सों के सहारे शतरंज की बिसात पर कश्मीर की गिरहों को खोलती है । हम सब प्यादे हैं । पता नहीं हममें से कब कौन हाथी निकल आए और उसका दिमाग़ ख़राब हो जाए । वज़ीर में बहुत सारा दर्द है और बहुत सारा जीवन । यह फ़िल्म दानिश और ओमकारनाथ धर के ज़रिये कहना चाहती है कि दर्द के इतने दास्तानों के बीच हम इससे लड़ सकते हैं । हम उसे मार सकते हैं जिसने हम दोनों को मारा है । वज़ीर में आतंकवाद है लेकिन यह हिन्दू बनाम मुसलमान के रूप में नहीं है।
यही वज़ीर है । यही नज़ीर है । इस साल की एक अच्छी फ़िल्म । अच्छी फ़िल्म एक लाउंड्री की तरह होती है । पूरी फ़िल्म के दौरान आपकी धुलाई होती है और अंत में आप पहले से बेहतर होकर निकलते हैं । वज़ीर देखने जाइयेगा । आपकी अंतरात्माओं की वाशिंग हो जाएगी । आप उस दर्द को जीते हुए उससे पार पाने के साहस को जुटा सकेंगे । जिसे हमारे कश्मीरी पंडित और कश्मीरी मुसलमान रोज़ जीते हैं । जिनके बच्चे आतंकवाद की राह पर चले गए और जिनसे उनका कश्मीर हमेशा के लिए छूट गया और अपने ही देश में शरणार्थी हो गए । उन्हें सही में एक वज़ीर का इंतज़ार है । वो कोई और नहीं । हमारी आपकी अंतरात्मा है । उसकी आवाज़ सुनिये लेकिन पहले वज़ीर देख आइये।
जाने माने पत्रकार रवीश कुमार के ब्लाग कस्बा से साभार.
Deepak
January 13, 2016 at 5:32 am
Isliye he kahte hain ki Ravish Kumar Ravish Kumar hain…. Koi doosra Ravish is desh me nahi ho sakta…. Boss Yun he likhate rahiye…. Achha hota ki Aap ek kitab Akhbar aur Channel Milikon ki kaargujariyon par likh dalte……
नवीन सिन्हा
January 13, 2016 at 7:22 am
यशवंत भाई आपको भी पसंद करता हूँ और रविश को भी ..रविश के अपने ब्लॉग आर ये लेख ठीक है लेकिन भड़ास पर ये उचित नहीं …रविश कोई फिल्म समीक्षक नहीं …उनको फिम्ल कैसी लगी इससे भड़ास के पाठक को कोई मतलब नहीं ..हाँ सोशल मीडिया पर लोग उनको गाली बकते हैं इससे मतलब जरुर है …आगे से ध्यान रखे किसी के ब्लॉग से कॉपी पेस्ट नहीं करे जब तक कुछ बहुत जरुरी नहीं हो ..बाकि आपकी मर्ज़ी