पर जेल से सरकार कैसे चलेगी – ना यह सवाल है ना इसका जवाब। अखबारों में और भी कई सवाल नहीं हैं, हों भी किसलिये, जब जवाब की किसी को जरूरत ही नहीं है
संजय कुमार सिंह
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी को जायज ठहराने वाले हाईकोर्ट के आदेश की खबर आज मेरे सात में से पांच अखबारों में लीड है। द टेलीग्राफ में चीन पर अमित शाह का बयान लीड है जबकि द हिन्दू में महा विकास अघाड़ी द्वारा चुनावी तैयारियों को अंतिम रूप दिये जाने की खबर लीड है। हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर मौसम की खबर लीड है और बताया गया है कि स्काईमेट के अनुसार, भारत में इस साल मानसून सामान्य रहेगा। टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर सेनसेक्स की खबर लीड है। शीर्षक है, 10 साल पहले जब मोदी जीते थे तो जो सेनसेक्स 25 हजार पर था वह 75 हजार पर पहुंच गया है। ठीक है कि इसमें मोदी सरकार की तारीफ है पर ऐसी खबरें आजकल अखबारों में तुरंत प्रमुखता पा जाती है। फिर भी दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है (हिन्दुस्तान टाइम्स में सिंगल कॉलम है) तो कोई कारण होगा। यह खबर कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि द टेलीग्राफ में यह बिजनेस पन्ने पर भी सिंगल कॉलम में है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की इस खबर से पता चलता है कि बांबे स्टॉक एक्सचेंज की स्थापना 38 साल से कुछ पहले हुई थी। तब इसका आधार सिर्फ 100 प्वाइंट था। आज अगर 10 साल में 25, 000 से 75,000 प्वाइंट होने को इतना महत्व दिया गया है तो 30 या उससे कम समय में यह 100 से 25,000 पर पहुंच ही गया था। जाहिर है यह बहुत बड़ी बात नहीं है लेकिन इसे मोदी की सफलता के रूप में पेश किया गया है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण और पठनीय खबर द हिन्दू में सेकेंड लीड है। इसके अनुसार 20 नई कंपनियों ने इलेक्टोरल बांड खरीदे थे जो दंडनीय अपराध है। चेन्नई डेटलाइन से विग्नेश राधाकृष्णन और संभवी पार्थसारथी की बाईलाइन वाली इस खबर के अनुसार तीन साल से कम पुरानी कंपनियां या फर्म राजनीतिक दान नहीं दे सकती हैं। पर इलेक्टोरल बांड से जुड़े आंकड़ों से पता चलता है कि कम से कम 20 नई कंपनियों ने 103 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बांड खरीदे हैं। यह ईज ऑफ डूइंग बिजनेस नहीं हो सकता। लेकिन मीडिया में मुद्दा नहीं है।
पहली बार इलेक्टोरल बांड खरीदने वाली इन कंपनियों में पांच एक साल से भी कम समय से अस्तित्व में थीं। सात एक साल पुरानी और सिर्फ आठ ने दो साल पूरे किये थे। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सब खबर ही नहीं है तो जांच आदि की बात ही नहीं है। इन दिनों अखबारों से ऐसा लगता है कि सरकार और देश के लिए अपराध तो सिर्फ आम आदमी पार्टी ने किये हैं और हिन्सा सिर्फ पश्चिम बंगाल में हुई है। इसी की जांच जरूरी है, इन्हीं अपराधियों को सजा जरूरी है और बाकी सब दूध के धुले हैं। अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी पर फैसले को हाईकोर्ट का फैसला पढ़िये और पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर लगे आरोपों को याद कीजिये। तब आरोप लगाने वाले को नौकरी से निकाल दिया गया था और सारा मामला निपट गया तो वापस रख लिया गया। काम हो जाने के बाद जज साब को ईनाम भी दिया गया। बाकी यह सब कानूनन सही भी हो तो मूल बात यही है कि शिकायतकर्ता की नहीं सुनी गई। और तो और जज लोया की मौत की जांच की जरूरत भी नहीं समझी गई।
अरविन्द केजरीवाल के मामले में वायदा माफ गवाह की सुनी जा रही है जिसने भाजपा को चन्दा दिया है। अदालत ने कहा है और आज टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा है, वायदा माफ गवाह बनाने का कानून 100 साल से है उसपर सवाल नहीं उठाया जाये। यह भी कि मामला केजरीवाल और ईडी या प्रवर्तन निदेशालय के बीच है। कानून मेरा विषय नहीं है ना ही उसमें मेरी दिलचस्पी है लेकिन अब लगने लगा है कि फैसले पूर्वग्रह से प्रेरित होते हैं। न भी होते हों तो स्थिति यही है कि आपको यह पूछने के लिए कि सभी चोंरों का उपनाम एक क्यों होता है, दो साल की अधिकतम सजा हो सकती है और पुलिस हिरासत में आपको कोई बाहरी तो गोली मार ही सकता है, जेल में संदिग्ध मौत भी हो सकती है। कुल मिलाकर, सुरक्षा के नाम पर कुछ नहीं पर अधिकार शून्य हैं। टैक्स वैसे ही ज्यादा है 30 साल पुराने रिटर्न की जांच हो सकती है तब जब घर में शादी हो या चुनाव लड़ना हो। आयकर का बकाया चुकाना जरूरी हो सकता है।
भाजपा के बनाए एलजी को संवैधानिक पद पर होने के कारण मुकदमे से राहत मिली हुई है, साध्वी प्रज्ञा आतंकवाद के मामले में आरोपी होकर भी सांसद रह लीं और मुख्यमंत्री का जेल में होना जायज है। आप उसे इस्तीफा देने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं तब भी। यही नहीं, दिल्ली हाईकोर्ट ने अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी को चुनौती देने वाली याचिका को नामंजूर करते हुए कहा है, यह मामला याचिकाकर्ता केजरीवाल और केंद्र सरकार के बीच का नहीं है। अदालत ने कहा, “यह मामला श्री केजरीवाल और प्रवर्तन निदेशालय के बीच है।“ मुझे लगता है कि सरकारी अधिकारी, निर्वाचित प्रतिनिधि की जांच करें, पूछताछ के लिए बुलायें – ये सब तो चल सकता है पर गिरफ्तारी और जेल कैसे ठीक हो सकता है? वह भी तब जब गौतम नवलखा को घर में नजरबंद रखा जा सकता है और तमाम लोगों को रखने का नियम भी है।
यह अलग बात है कि उनसे कहा जा रहा है कि वह इसपर होने वाले खर्च का भुगतान करें और मुख्यमंत्री घर में नजरबंद होंगे तो पैसे कौन देगा? यहां एक और सवाल है। अगर ईडी यानी नौकरशाही को यह अधिकार है कि वह निर्वाचित प्रतिनिधि को गिरफ्तार कर सकता है तो जज भी क्यों उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर रहें? हैं या नहीं हैं मैं नहीं जानता पर क्या ईडी ने किसी जज को ऐसे ही आरोप में गिरफ्तार किया होता तो फैसला यही होता, यही तर्क दिये जाते और अगर हां तो रंजन गोगोई के मामले में क्या ऐसा हुआ? मेरी चिन्ता यह भी है कि सांसद संजय सिंह ने जैसा कहा है, पीएम के खिलाफ (गैर भाजपा शासित राज्यों में पीएमएलए का नहीं तो पॉस्को का) मुकदमा हो ही सकता है। तो वह भी वहां की पुलिस और पीएम के बीच होगा। क्या पीएम हर राज्य की पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाते रहेंगे? मुझे लगता है मुख्यमंत्री और आम आदमी बराबर नहीं है और हो भी तो अदालतों में जज और नागरिक बराबर नहीं है। बेशक मैं गलत हो सकता हूं। कोई उदाहरण हो तो ढूंढ़ता हूं।
फिलहाल तो यह कि तृणमूल पार्टी ने एनआईए के अधिकारी पर भाजपा नेता से रिश्वत लेने का आरोप लगाया है। चुनाव आयोग से शिकायत, धरना और पुलिस की कार्रवाई की खबर आप यहीं पढ़ चुके हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि कार्रवाई चुनाव आयोग को करनी थी। उसकी कोई खबर तो नहीं दिखी, चुनाव आयुक्त की सुरक्षा बढ़ाये जाने की खबर है और इंडियन एक्सप्रेस में आज एक खबर यह भी है कि, तृणमूल कांग्रेस और भाजपा ने ‘मुलाकात’ को लेकर आरोप लगाये तो एनआईए ने अपने अफसर को दिल्ली बुलाया। यह भी रिश्वत का मामला है। इसमें कार्रवाई क्यों नहीं शुरू होनी चाहिये और अधिकारी को दिल्ली क्यों बुलाया गया। वैसे भी अधिकारी को भाजपा नेता से मिलने की क्या जरूरत थी या भाजपा नेता उनके घर क्यों गये होंगे? अगर यह सब सामान्य नहीं है तो तृणमूल कांग्रेस के आरोप या शिकायत पर यकीन क्यों नहीं किया जाना चाहिए। पर जवाब देगा कौन। अव्वल तो कोई सवाल ही नहीं पूछेगा।
चीन पर 1962 का मामला
द टेलीग्राफ की आज की चीन वाली खबर नवोदय टाइम्स में भी है। यहां इसका शीर्षक है, मोदी सरकार में एक इंच भी जमीन नहीं ले सकता है चीन : अमित शाह। इस शीर्षक से मुझे न कोई हमारी सीमा में घुसा, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है – की याद आ गई। द टेलीग्राफ में जेपी यादव और अनिता जोशुआ की बाईलाइन वाली खबर इस प्रकार है, चीन के युद्ध भारतीय क्षेत्र के भीतर और भारतीय कलाकारों के बीच लगातार लड़े जा रहे हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ताजा मोर्चा खोलते हुए बेहद संदिग्ध दावा किया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजिंग भारतीय क्षेत्र के “एक इंच” पर भी अतिक्रमण नहीं कर सकता, जबकि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1962 के चीनी आक्रमण के दौरान असम और अरुणाचल प्रदेश को “अलविदा” कह दिया था। असम के लखीमपुर में देश के गृहमंत्री अमित शाह ने एक चुनावी रैली में कहा, “1962 के चीनी आक्रमण के दौरान, लड़ने के बजाय, नेहरू ने असम और अरुणाचल प्रदेश को अलविदा कह दिया था। इन राज्यों के लोग इसे कभी नहीं भूल सकते।” उन्होंने भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच 2017 के डोकलाम गतिरोध का जिक्र करते हुए कहा, “इसके विपरीत, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चीन एक इंच भी जमीन का अतिक्रमण नहीं कर सका।”
कांग्रेस के मीडिया प्रमुख, जयराम रमेश ने तुरंत जवाबी हमला करते हुए, भारतीय क्षेत्र में चीनी घुसपैठ को नकारने के लिए मोदी के “झूठ” की चर्चा की और तर्क दिया कि भारतीय क्षेत्र में चीन के कब्जे को सरकार द्वारा स्वीकार नहीं किये जाने या उससे इनकार किये जाने के कारण सीमा मामले में चीन से निपटना में भारत का मामला कमजोर हुआ है। चुनाव प्रचार में अमित शाह ने अगर ऐसी बात की और द टेलीग्राफ ने लीड बनाया तो नरेन्द्र मोदी ने पीलीभीत में कहा, कांग्रेस ने शक्ति व श्रीराम का अपमान कियाय़ यही नहीं, फिर कहा और फिर छपा, राम मंदिर से इन्हें पहले भी नफरत थी, आज भी है। जाहिर है मोदी और भाजपा के पास चुनाव लड़ने के लिए कोई नया मुद्दा नहीं है और वे पहले के आरोप ही दोहराये जा रहे हैं या इन्हीं आरोपों पर भरोसा किया जा रहा है। अखबार भी पूरा साथ दे रहे हैं। चुनाव के समय में सरकार के काम पर कुछ नहीं, विपक्षी नेता की गिरफ्तारी सही है और सरकार भी अपने काम नहीं बता रही है वह कांग्रेस की आलोचना में लगी है – मुद्दा 10 साल पुराना हो या 1962 का।