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सियासत

जस्टिस सिकरी के रवैये से पूरे देश में न्यायिक शुचिता को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं!

जे.पी. सिंह

कहते हैं जो दिखता है वो होता नहीं, जो होता है वो दिखता नहीं, कुछ कुछ ऐसा है मामला सीबीआई के तत्कालीन निदेश अलोक वर्मा का है। अब वे भ्रष्टाचार और कर्तव्य में लापरवाही के आधार पर हटाए गए या फिर राफेल जाँच से लेकर मेडिकल प्रवेश घोले जैसे मामलों को लेकर हटाए गए आय शोध और आरोप प्रत्यारोप का विषय बन गया है। पूरे घटनाक्रम से और सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों द्वारा की गयी टिप्पणियों से ही स्पष्ट हो गया है कि उच्चतम न्यायालय आलोक वर्मा को प्रथम दृष्टया दोषी मानकर चल रहा था और उनको हटाया जाना निश्चित था।

क्या आपको याद है कि आलोक वर्मा मामले में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा था कि हमारी चिंता ये है कि क्या दो साल के कार्यकाल का नियम निदेशक पर अनुशासनात्मक कार्रवाई से भी ऊपर है। क्या दो साल उन्हें कोई छू नहीं सकता। सीवीसी की तरह सीबीआई निदेशक को सरंक्षण क्यों नहीं दिया गया?

क्या आपको याद है कि सुनवाई के दौरान जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा था कि अगर सीबीआई निदेशक घूस लेते हुए रंगे हाथ पकड़े जाते तो क्या होता?

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क्या आपको याद है कि सीवीसी की रिपोर्ट पर सीबीआई चीफ आलोक वर्मा के जवाब के कुछ अंश लीक होने पर नाराज चीफ जस्टिस ने सुनवाई 29 नवंबर तक के लिए टाल दी थी। दरअसल इस रिपोर्ट की कुछ बातें मीडिया में छप गयीं थी। सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ने आलोक वर्मा के वकील फली नरीमन से पूछा कि हमने ये रिपोर्ट आपको वर्मा के वकील के तौर पर नहीं, वरिष्ठ वकील के तौर पर दी थी, ये पेपर बाहर कैसे आ गए. इस पर वकील ने जानकारी न होने की बात कही और कहा कि रिपोर्ट लीक करने वालों को कोर्ट में हाजिर कराया जाना चाहिए। इस जवाब से गुस्साए चीफ जस्टिस ने कहा कि आपमें से कोई सुनवाई के लायक नहीं है।

इसके बाद आए फैसले में उच्चतम न्यायालय ने हालाँकि अलोक वर्मा को सीबीआई के निदेशक पद पर भले बहाल कर दिया था लेकिन यह नुक्ता लगा दिया था कि एक सप्ताह के भीतर चयन समिति की बैठक करके सीवीसी रिपोर्ट पर फैसला लिया जाय। सीवीसी की बैठक के लिए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने जस्टिस एके सिकरी को अपनी जगह बैठक के लिए नामांकित कर दिया था। पीएम मोदी के नेतृत्व में चयन समिति ने 2-1 के फैसले से आलोक वर्मा को सीबीआई के निदेशक पद से हटा दिया था। हालांकि, मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस फैसले का विरोध किया, वहीं सीजेआई रंजन गोगोई के प्रतिनिधि के तौर पर कमेटी में शामिल जस्टिस सिकरी ने पीएम मोदी के निर्णय का समर्थन किया था। सीबीआई से हटाने के बाद आलोक वर्मा को गृह मंत्रालय के तहत अग्निशमन विभाग, नागरिक सुरक्षा और होम गार्ड्स निदेशक नियुक्त किया गया, जिसे लेने से उन्होंने इनकार कर दिया और शुक्रवार को उन्होंने सेवा से इस्तीफा दे दिया।

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सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने सीवीसी की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल से पूछा था कि जब जुलाई में ही निदेशक व नंबर दो अस्थाना के बीच टकराव का मामला सामने आ गया था तो सरकार को चयन समिति के पास जाने में क्या परेशानी थी? ये ऐसा मामला नहीं है कि रातोंरात ऐसे हालात बन गए। मामला चयन समिति के पास गया और आलोक वर्मा हटा दिए गए अर्थात केवल चयन समिति का नुक्ता बीच में आड़े आ रहा था वरना आलोक वर्मा की याचिका सरसरी तौर पर ही ख़ारिज हो जाना तय था।

न्यायिक शुचिता को लेकर सवाल

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आलोक वर्मा को हटाए जाने में जस्टिस सिकरी की सहमति से पूरे देश में न्यायिक शुचिता को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं। आलोक वर्मा को सीबीआई डायरेक्टर के पद से हटाए जाने के बाद मामला और भी गहराता जा रहा है। बिना किसी के सफाई मांगे उच्चतम न्यायालय के पूर्व जज जस्टिस मार्कंडेय काटजू अपनी तरफ से जस्टिस सिकरी की सफाई में उतर आये हैं। जस्टिस काटजू ने उन कारणों को बताया है, जिसकी वजह से जस्टिस सीकरी को मल्लिकार्जुन खड़गे के विरोध के बाद पीएम मोदी के निर्णय का समर्थन करना पड़ा। जस्टिस काटजू ने कहा है कि मैं जस्टिस सीकरी को अच्छी तरह से जानता हूं क्योंकि मैं दिल्ली उच्च न्यायालय में उनका मुख्य न्यायाधीश था और मैं उनकी ईमानदारी की गारंटी ले सकता हूं। उन्होंने तब तक निर्णय नहीं लिया होगा, जब तक उन्हें आलोक वर्मा के खिलाफ रिकॉर्ड में कुछ मजबूत तथ्य नहीं मिले होंगे। वह तथ्य क्या हैं मुझे नहीं पता। लेकिन मैं जस्टिस सीकरी को जानता हूं, और व्यक्तिगत तौर पर कह सकता हूं कि वह किसी से भी प्रभावित नहीं हो सकते। जो भी उनके बारे में कहा जा रहा है वह गलत और अनुचित है।

वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई सबूत नहीं

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इस बीच आलोक वर्मा मामले में केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के जांच की निगरानी करने वाले सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस एके पटनायक के इस बयान से कि वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई सबूत नहीं थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली समिति ने उन्हें हटाने के लिए बहुत जल्दबाजी में फैसला लिया, से एक नया ट्विस्ट आ गया है और वर्मा के साथ अन्याय हुआ है, मानने वालों के इस तर्क को बहुत बल मिल गया गई कि कोई बात तो है जिसकी पर्दादारी है।

गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने जस्टिस पटनायक को आलोक वर्मा मामले में सीवीसी जांच की निगरानी के लिए चुना था। जस्टिस पटनायक ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि भ्रष्टाचार को लेकर वर्मा के खिलाफ कोई सबूत नहीं था. पूरी जांच सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की शिकायत पर की गई थी। मैंने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सीवीसी की रिपोर्ट में कोई भी निष्कर्ष मेरा नहीं है।

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उच्चतम न्यायालय में दाखिल अपनी दो पेज की रिपोर्ट में जस्टिस पटनायक ने कहा था कि सीवीसी ने मुझे 9 नवंबर 2018 को एक बयान भेजा था, जो कि राकेश अस्थाना द्वारा हस्ताक्षरित है। मैं स्पष्ट करता हूं कि राकेश अस्थाना द्वारा हस्ताक्षरित यह बयान मेरी उपस्थिति में दर्ज नहीं किया गया था। जस्टिस पटनायक ने कहा है कि भले ही उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हाई पावर्ड कमेटी (उच्चाधिकार प्राप्त समिति) को फैसला करना होगा, लेकिन ये फैसला बहुत जल्दबाजी में किया गया। हम यहां एक संस्था के मामले को देख रहे हैं। उन्हें अपना दिमाग अच्छी तरह से लगाना चाहिए था, खासकर वहां एक उच्चतम न्यायालय के जज थे। सीवीसी जो कहता है वह अंतिम शब्द नहीं हो सकता है।

जस्टिस पटनायक ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने मुझे निगरानी का जिम्मा सौंपा था। इसलिए मैंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और मैंने सुनिश्चित किया कि प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत लागू किया जाए। वर्मा को सभी दस्तावेज मुहैया कराए गए और व्यक्तिगत सुनवाई हुई। चौदह दिनों में जांच पूरी हो गई। इसके बाद उच्चतम न्यायालय को फैसला करना था। बीते 8 जनवरी को, जब उच्चतम न्यायालय ने आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजने के लिए सीवीसी और सरकार के 23 अक्टूबर, 2018 के आदेश को खारिज किया था तो आदेश में जस्टिस पटनायक के निष्कर्षों का कोई उल्लेख नहीं किया गया।

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अस्थाना की याचिका रद्द

इधर वर्मा को हटाए जाने का फैसला हुआ तो उधर दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सीबीआई के स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना को बड़ा झटका देते हुए अस्थाना की याचिका रद्द करने के रूप में सामने आया. इससे फिर इस मामले में नया ट्विस्ट आ गया क्योंकि वर्मा के खिलाफ अस्थाना ने ही शिकायत किया था। उस समय के सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा ने कहा था कि राकेश अस्थाना के खिलाफ रिश्वतखोरी के आरोपों में प्राथमिकी दर्ज करते समय सभी अनिवार्य प्रक्रियाओं का अनुपालन किया गया था। कारोबारी सतीश बाबू सना ने आरोप लगाया था कि उसने एक मामले में राहत पाने के लिए रिश्वत दी थी। सना ने अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार, जबरन वसूली, मनमानापन और गंभीर कदाचार के आरोप लगाए थे। राकेश अस्थाना ने अपने ख़िलाफ़ दर्ज हुई एफआईआर रद्द करने की मांग की थी, जिसे दिल्ली हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है कोर्ट ने कहा इस मामले में एफआईआर फार करने से पहले हायर अथॉरिटी की इजाज़त ज़रूरत नहीं थी। साथ ही सीबीआई को कोर्ट ने कहा कि 10 हफ़्ते में जांच पूरी करे। कोर्ट ने राकेश अस्थाना की गिरफ्तारी पर लगी अंतरिम रोक भी हटाई।

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क्या है पूरा मामला

सीबीआई ने अपने स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना के ख़िलाफ़ एक एफआईआर दर्ज कराई थी । इस एफआईआर में अस्थाना पर मीट कारोबारी मोइन क़ुरैशी के मामले में जांच के घेरे में चल रहे एक कारोबारी सतीश सना से दो करोड़ रुपए की रिश्वत लेने का आरोप है। सीबीआई में नंबर दो की हैसियत रखने वाले राकेश अस्थाना इस जांच के लिए बनाई गई एसआईटी के प्रमुख हैं। कारोबारी सतीश सना का आरोप है कि सीबीआई जांच से बचने के लिए उन्होंने दिसंबर 2017 से अगले दस महीने तक क़रीब दो करोड़ रुपए रिश्वत ली।

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अस्थाना का जवाबी आरोप

एफआईआर दर्ज होने के बाद राकेश अस्थाना ने सीबीआई के तत्कालीन डायरेक्टर आलोक वर्मा पर पलटवार करते हुए उन पर ही रिश्वतखोरी का आरोप लगाया था। अस्थाना ने सरकार को एक पत्र लिखकर गलत एफआईआर दर्ज करने का आरोप लगाया है। अस्थाना का दावा है कि सतीश सना कि यह शिकायत सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के कुछ अधिकारियों की साजिश है। उन्होंने सीबीआई चीफ और सीवीसी अरुण शर्मा के खिलाफ भी भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है। अस्थाना का कहना था कि उन्होंने अगस्त में ही कैबिनेट सचिव को इन शीर्ष अधिकारियों के भ्रष्टाचार के 10 उदाहरण, आपराधिक कदाचार, संवेदनशील मामलों की जांच में हस्तक्षेप की जानकारी दी थी।

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लेखक जेपी सिंह इलाहाबाद के वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं.

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