आज कुछ काम से प्रेस क्लब गया हुआ था, हमेशा की तरह प्रेस क्लब के बाहर और भीतर चहल पहल थी, गेट के ठीक सामने एक कथित संस्थापित टीवी चैनल का कैमरामैन उदास मुद्रा में था, आदत से लाचार होकर पहले तो मैंने उनसे अभिवादन कर कुशलक्षेप पूछा, फिर जो जवाब आया, उसे सुन सुन्न रह गया, और ऐसा पिछले कई महीनों से लगातार जारी है, एक लम्बा मई मीडिया में गुजर चुका वो शख्स बड़ी ईमानदारी के साथ मुझसे कह रहा था, कि, “योगेश जी, ऐसा है, अगर हमको पता रहता कि मीडिया में इतनी ऐसी तैसी करने के बाद भी पगार कि चिंता रहती है, परिवार और पेट कि चिंता रहती है, तो कभी-भी मीडिया में तो नहीं आता, भले हो गाँव में खेतीबाड़ी कर लेता, पर सच में मीडिया में आने कि गलती नहीं करता.”
मैं जैसे उनके लिए उनके दर्द को बांटने वाला, उनकी पीड़ा समझने वाला साथी था, वो बिना रुके, उदासपूर्ण भावभंगिमा के साथ मुझसे अपना घाव साझा करते रहे. आगे वो वरिष्ठ कैमरामैन कहते रहे, “जब मैं स्कूली जीवन में था, तब पेपर पढ़कर, टीवी देखकर सपना पालता था, कि मैं भी इसी लाइन में जाऊँगा, घरवाले कहते थे, बीटा या पुलिस बनना, या पत्रकार, दौड़ में कमजोर हूँ, पुलिस तो नहीं बना, न उतने पैसे थे, पर हाँ, सोचा पत्रकार तो बन ही सकता हूँ, तब से अब तक, किसी भी मज़बूर को देखता हूँ, तो अपने रिपोर्टर से कहता हूँ, सर ये स्टोरी बना दीजिये, डेस्क वालों से काम के अलावा कुछ और बात करना सूझता नहीं, साला, खुदपर भी गुस्सा आता है, जिन विचारों को यहाँ डीपीआर और पीआर का पर्दा बनाए रोज़ नंगा कर दिया जाता है, भला वैसे ‘उचित’ विचार मेरे मन से खत्म क्यों नहीं होते?
कभी सोचता हूँ मीडिया लाइन ही छोड़ दूँ, फिर सोचता हूँ, इसमें सम्मान मिलता है, बस इसी लत ने कमज़ोर करके रख दिया है, देखते हैं, कब तक जीवन चलता है, वर्ण गाँव लौटकर, पिताजी का खेती में हाथ बताऊंगा.” इतना कहकर वो तो चले गए, पर इस चर्चा में, इन बातों में जो सवाल था, वो यकीनन, कहने और न कहने वाले हर पत्रकार के भीतर रोज़ ज्वारभाटा कि तरह फूटता है, मैंने जब अपनी पत्रकारिता कि पढाई शुरू कि थी, तब ‘उस’ पीड़ित कैमरामैन की तरह मेरे भी एक अच्छे, सशक्त मीडियाकर्मी बनने का अरमान था, किस्मत से वो अभी भी ज़िंदा है, पर पत्रकारिता क्षेत्र में अच्छे अच्छे विचाारों को जिस तरह रोज़ मरते देखना पड़ता है, वो यकीनन हैरान कर देने वाला रहता है, विधानसभा सत्र के दौरान कई तथाकथित ‘वरिष्ठ’ पत्रकरों को जब किसी मंत्री, अधिकारी के बाल, गाल, जूते, दाढ़ी की तारीफ करते, हाथ की ऊँगली में ऊँगली फंसाए देखने पर ‘बाल’ मन सोचता है, क्या यही सब पत्रकारिता है? क्या यही पत्रकारिता का धर्म है? क्या यही वरिष्ठता है?
जहाँ कोई गरीब जब अपना दर्द साझा करने आये, तो हम आईडी हटा लेते हैं, जल्दी जाना है, खबर भेजने की बात का बहाना बना, खिसक लेते हैं, पर जब कोई पॉवरफुल नेता, मंत्री, अधिकारी बाइट दे, उससे पहले, उन्हें पूरा मसला, सवाल समझा देते हैं, उसमे क्या पूछा जाए, क्या नहीं पूछा जाये, वो भी मंत्री, अधिकारी, नेता तय करता है, और हम पूछते हैं, क्या यही कलमवीर होने की पहचान है कि हम आईडी, कलम थामे चापलूसी कि हर सीमा रेखा अपने कपड़े निकालकर लांघ दें? अगर यही पत्रकारिता कि परम्परा है, तो क्या आनेवाली पत्रकारों की पीढ़ी को इसी घटिया परम्परा का निर्वहन करना होगा? सवाल काफी सारे हैं, और ये सवाल ज़हन में, इस फील्ड में शायद हर प्रदेश में, हर जिलों में, हर तहसील, हर गाँव की पत्रकारिता में होंगे ही, पर इसका मतलब कतई ये नहीं है कि इनके चरण वंदन कि परम्परा का निर्वहन किया जाये, पत्रकार हैं, जो मन में है, पूछेंगे, माध्यम कोई भी हो, प्रिंट मीडिया में हों, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हों, साप्ताहिक, मासिक पत्रिकाओं में काम करें, या स्वतंत्र रहें, पर सवाल तो पूछेंगे, सीधा सवाल पूछेंगे, ना की, मंत्री जी फलां बारे में बोलेंगे क्या? कहकर ‘वफादारी’ निभाएंगे, पत्रकारिता की आनेवाली पीढ़ी को ये तय करना होगा कि वो डिग्री हाथ में लेने के बाद किस तरह की पत्रकारिता करना चाहेंगे?
पीत पत्रकारिता का जन्म तो बरसों पहले हो गया था, पर आज की पत्रकारिता प्रणाम, शरण में हाथ जोड़ने, रसूखदारों के हाथों में ऊँगली फंसाने, नेताओं की कुर्सियों में प्रवक्ता के तौर पर बैठ भैया, चाचा का रिश्ता बनाने के नए पत्रकारिता से युवा पीढ़ी को जूझना होगा, ये भी देखने होगा, कि किस तरह ‘रेप’ कि शिकार किसी पीड़िता के बारे में संबंधित अधिकारी से बाइट लेने के बाद किस तरह से कथित ‘रिपोर्टर’ हंसी ठिठोली कर अपना ‘धर्म’ निभाते हैं, ये भी देखना होगा, कि किस तरह दुआ, सलाम, खबरिया सूत्र बनाने के बहाने चापलूसी का चोला पहना जाता है, ये भी देखना होगा कि किस तरह से जनसपंर्क के अधिकारीयों के चरण वंदन से ‘कइयों’ को बिना किसी नियम, धरम के ‘अधिमान्यता’ कि रेवड़ी मिलती है, और शायद ये भी, कि जो पीता है, वही पत्रकार होता है, की बात सुन, कभी कोई ‘पत्रकार’ किसी रसूखदार के साथ बार में जाम भी टकराते दिख जाए, ये विचार, प्रेस क्लब में मिले उस कैमरापर्सन साथी से बातचीत के बाद आये, ऐसा बिलकुल नहीं है, और ना ही ये मेरे बस विचार हैं, बल्कि ये विचार हम सब ऐसे पत्रकारों के हैं, जो फील्ड में शायद रोज़ सफेद, खाकीपोशों के सामने रोज़ कई ‘पत्रकारों’ की भावभंगिमा, उनके आदत व्यवहार से देखते, परखते हैं.
योगेश मिश्रा
पत्रकार
छात्र, केटीयू
रायपुर
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