भईया, इससे अच्छा तो मजदूरी कर लेते, कहाँ से फंस गए मीडिया में!

आज कुछ काम से प्रेस क्लब गया हुआ था, हमेशा की तरह प्रेस क्लब के बाहर और भीतर चहल पहल थी, गेट के ठीक सामने एक कथित संस्थापित टीवी चैनल का कैमरामैन उदास मुद्रा में था, आदत से लाचार होकर पहले तो मैंने उनसे अभिवादन कर कुशलक्षेप पूछा, फिर जो जवाब आया, उसे सुन सुन्न रह गया, और ऐसा पिछले कई महीनों से लगातार जारी है, एक लम्बा मई मीडिया में गुजर चुका वो शख्स बड़ी ईमानदारी के साथ मुझसे कह रहा था, कि, “योगेश जी, ऐसा है, अगर हमको पता रहता कि मीडिया में इतनी ऐसी तैसी करने के बाद भी पगार कि चिंता रहती है, परिवार और पेट कि चिंता रहती है, तो कभी-भी मीडिया में तो नहीं आता, भले हो गाँव में खेतीबाड़ी कर लेता, पर सच में मीडिया में आने कि गलती नहीं करता.”

पुस्तक समीक्षा : जीवन का मूल स्वर है गजल संग्रह ‘दर्द का कारवां’

आम जीवन की बेबाकी से जिक्र करना और इसकी विसंगतियों की सारी परतें खोल देना यह विवेक और चिंता की उंचाइयों का परिणाम होता है। आज जो साहित्य रचा जा रहा है, वह लेखन की कई शर्तों को अपने साथ लेकर चल रहा है। एक तरफ जिन्दगी की जहां गुनगुनाहट है, वहीं दूसरी तरफ जवानी को बुढ़ापे में तब्दील होने की जिद्द भी है।

 

पत्रकार गोपाल ठाकुर के मामले में काशी पत्रकार संघ की भयावह चुप्पी के मायने

: …दर्द से तेरे कोई न तड़पा आंख किसी की न रोयी :

पत्थर के सनम
पत्थर के खुदा
पत्थर के ही इंसा पाये है,
तुम शह-रे मोहब्बत कहते हो
हम जान बचा के आये हैं…