यह संयोग ही है कि रामदेव के खिलाफ कार्रवाई पर सरकार और रामदेव के समर्थकों ने यही उदाहरण दिया था। एक भक्त मित्र ने बाबा के विज्ञापनों की आलोचना के जवाब में कहा कि वह बॉर्नविटा पीकर लंबा हुआ है। हालांकि, भ्रामक प्रचार का इससे बढ़िया और जाना-पहचाना उदाहरण गोरेपन की क्रीम का है। रामदेव का मामला इन सबसे अलग है पर कोशिश सबका घालमेल करने की है
संजय कुमार सिंह
वैसे तो आज मुंबई आ रहे इजराइली अरबपति के जहाज पर ईरानी सेना के कब्जे की खबर बड़ी है और इसीलिए कई अखबारों में लीड है। भले शीर्षक में यह नहीं बताया गया है कि जहाज मुंबई आ रहा था पर यह जरूर कहा गया है कि चालक दल के सदस्यों में ज्यादातर (25 में से 17) भारतीय हैं। फिर भी आज मैं बॉर्नविटा की खबर की चर्चा करूंगा। इससे हमारी सरकार और मीडिया दोनों की कार्यशैली का पता चलता है और यह भी कि सरकार चाहे तो पतंजलि के गलत विज्ञापन भी चलेंगे (चलने दिये जायेंगे) और सुप्रीम कोर्ट (दूसरे किसी की चल ही नहीं रही है, पर वह अलग मुद्दा है) अगर सरकार समर्थक या प्रचारक को मनमानी नहीं करने दे तो कार्रवाई बोर्नविटा पर हो गई। कुल मिलाकर यह मुद्दे को घुमाने की कोशिश है और आज मैं उसी पर बात करना चाहता हूं।
बाबा रामदेव और पतंजलि का मामला आप जानते हैं, मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ कंपनी के खिलाफ कार्रवाई की है बल्कि दैनिक हिन्दुस्तान की खबर के अनुसार अधिकारियों के ‘बोनाफाइड’ (प्रामाणिक) शब्द के इस्तेमाल पर कड़ी आपत्ति की है और कहा है, हम इसे हल्के में नहीं लेंगे। खबर का संबंधित हिस्सा इस प्रकार है, “सुप्रीम कोर्ट ने भ्रामक विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए पतंजलि आयुर्वेद के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने को लेकर उत्तराखंड लाइसेंसिंग प्राधिकरण की आलोचना की। न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने दिव्य फार्मेसी के खिलाफ शिकायतों पर कार्रवाई में देरी करने के लिए फाइल को आगे बढ़ाने और 2018 से नींद में चले जाने के लिए राज्य लाइसेंसिंग प्राधिकरण के अधिकारियों की खिंचाई की।
उन्होंने कहा, ‘’हमें अधिकारियों के लिए ‘बोनाफाइड’ शब्द के इस्तेमाल पर कड़ी आपत्ति है। हम इसे हल्के में नहीं लेंगे। शीर्ष अदालत ने योग गुरु रामदेव और पतंजलि आयुर्वेद के प्रबंध निदेशक बालकृष्ण द्वारा भ्रामक विज्ञापन प्रकाशित करने पर बिना शर्त माफी मांगने के लिए दायर हलफनामों को भी स्वीकार करने से इनकार कर दिया।“ यह बुधवार, 10 अप्रैल की खबर है और आज 14 अप्रैल के अखबारों में बॉर्नविटा के खिलाफ कार्रवाई की खबर है। मुझे बोर्निविटा के खिलाफ कार्रवाई से दिक्कत नहीं है मुझे उसके समय से शिकायत है और मेरा मानना है कि यह हेडलाइन मैनेजमेंट का भाग है। इससे रामदेव के खिलाफ कार्रवाई का मामला तो ठंडा पड़ ही जायेगा उन मामलों की भी चर्चा नहीं होगी जिनके लिए सुप्रीम कोर्ट को सक्रिय होना पड़ा और दूसरी एजेंसियां आंखें मूंदे पड़ी रहीं।
यह सही है कि लोअर कोर्ट के फैसले से हाईकोर्ट और हाईकोर्ट के फैसले से सुप्रीम कोर्ट सहमत नहीं होता है और पलट देता है। पर वह व्यवस्था है और ऐसा वर्षों से चला आ रहा है। इसके साथ यह भी तय है कि कौन से मामले हाईकोर्ट में जायेंगे और कौन से सुप्रीम कोर्ट में जा सकते हैं। बहुत सारे मामले में आप सीधे सुप्रीम कोर्ट में नहीं पहुंच सकते हैं। लेकिन न्याय सुप्रीम कोर्ट में ही हो तो यहां काम बढ़ जायेगा। और न्याय के मामले तो फिर भी ठीक है। गलत और भ्रामक विज्ञापन रोकना सुप्रीम कोर्ट का काम नहीं है। बॉर्नविटा का विज्ञापन अगर गलत था तो इतने दिनों तक कार्रवाई क्यों नहीं हुई और जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों की खबर ली, कार्रवाई एक ऐसे ब्रांड के खिलाफ की गई जो जाना पहचाना और पुराना है।
इसके बाद के भी विज्ञापन भ्रामक होंगे संभवतः पहले के भी हों पर शुरुआत बोर्नविटा से क्यों? और खबर? क्या यह मुद्दा नहीं है, मीडिया में चर्चा का विषय नहीं है? बहुत संभावना है कि इसपर कोई चर्चा नहीं हो और बाबा रामदेव के मामले में भी कोई चर्चा नहीं हो। बोर्नविटा की खबर आज अमर उजाला में टॉप पर चार कॉलम में है तो नवोदय टाइम्स में पांच कॉलम में बॉटम। अमर उजाला में इस खबर का शीर्षक है, बॉर्नविटा बच्चों के लिए नुकसानदेह, सेहतमंद नहीं है। उपशीर्षक है, केंद्र सरकार ने ई-कामर्स कंपनियों को दिये निर्देश, बॉर्नविटा जैसे पेय पदार्थ हेल्थ ड्रिंक श्रेणी से हटाएं। इस शीर्षक में दो बातें हैं, नुकसानदेह है, सेहतमंद नहीं है। क्या बोर्नविटा जैसे उत्पाद के मामले में दोनों सही हो सकता है? और दोनों सही है तो अब पता चला और कार्रवाई अब हुई। आखिर क्यों? कार्रवाई करने वाले अभी तक कहां थे? खबर में क्यों नहीं है।
मैंने लंबे समय से बोर्नविटा का उपयोग नहीं किया है और ना इसके विज्ञापन देखे हैं। इसलिए मुझे उत्पाद या विज्ञापन दोनों के बारे में कोई ताजा या नई जानकारी नहीं है पर इतना तय है कि बचपन में दूध के स्वाद को बेहतर करने के लिए दूध में मिलाकर पीता था। वैसे भी सूखा खाता था और आज टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर में यह सब पढ़कर पुरानी यादें ताजा हो गईं, मजा भी आया। हेल्थ ड्रिंक की तरह कभी इस्तेमाल ही नहीं किया। इसलिए अब उसे हेल्थ ड्रिंक श्रेणी से हटाना भी समझ में नहीं आया। कोई नया उत्पाद होता तो मान लेता कि गलत श्रेणी में रख दिया गया होगा, गलत या भ्रामक दावा होगा और अब कार्रवाई हुई है। लेकिन अब कार्रवाई का ना तो कारण समझ में आ रहा है और न खबर में कुछ लिखा है।
अमर उजाला की खबर में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) और भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिकरण के साथ वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के नाम हैं और इसकी खराबी तथा कानून का हवाला दिया गया है। पर मेरा मुद्दा यही है कि सब अब क्यों जागे। खबर में लिखा होता कि पतंजलि के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद की गई जांच के बाद यह कार्रवाई की गई है तो भी मामला समझ में आता। लेकिन मुझे लगता है कि सरकार दबाव और मजबूरी में जो काम कर रह है उसे भी अखबारों में सरकार को श्रेय देने की तरह पेश किया जा रहा है – देखो, बोर्नविटा पर भी कार्रवाई हुई है। हालांकि इस खबर के साथ की एक खबर में बताया गया है कि मामला एक यू ट्यूबर के वीडियो से उठा।
नवोदय टाइम्स में इस खबर का शीर्षक है,हेल्थ ड्रिंक कैटेगरी से बाहर होंगे बॉर्नविटा और अन्य ड्रिंक्स, केंद्र ने दिये निर्देश। मेरा सवाल यहां भी वही है और यह शीर्षक में होना चाहिये था। अखबार को बताना चाहिये था कि, ‘अब क्यों?’ का जवाब खबर में नहीं है और खबर सरकार को सक्रिय और तुरंत कार्रवाई करने वाला दिखाने के लिए लगती है। भले 10 साल के कार्यकाल में काम से सरकार के बारे में कोई राय बनी हो, चुनाव के समय सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई से छवि खराब हुई तो उसे ठीक करना भी जरूरी है। सरकारी प्रचार वाली ज्यादातर खबरों का उद्गम एक ही होता है इसलिए उनमें जानकारी भी एक ही रहती है। अंग्रेजी अखबारों में यह खबर द टेलीग्राफ में बिजनेस पेज पर सिंगल कॉलम में है और वहां भी कुछ ही लाइनों में निपट गई है।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे तीन कॉलम में बॉटम बनाया है। खबर पढ़कर ही लगता है कि लिखने वाला इसे जानता है जबकि हिन्दी की खबर सरकारी विज्ञप्ति से बनी लगती है। जो भी हो, टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर में बताया गया है कि सरकारी आदेश में दूसरे पेय और ब्रांड का नाम नहीं है। इस तरह, अब यह ऑनलाइन प्लैटफॉर्म पर है कि वे इस संबंध में निर्णय करें (अब आप ताजा आदेश का मतलब समझिये)। टाइम्स ऑफ इंडिया ने याद दिलाया है कि गए साल उत्पाद में चीनी की मात्रा ज्यादा होने की शिकायतों के बाद मोंडेलेज़ से कहा गया था कि भ्रम फैलाने वाले अपने विज्ञापन वापस ले। कंपनी का तर्क था कि वह वैज्ञानिक तौर पर बनाया गया पेय है और उसमें चीनी की मात्रा अनुमति के अनुसार है। इसीलिये टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा है कि सरकार का यह आदेश पुरानी यादें ताजा कर देगा।
मिन्ट की खबर के अनुसार, अपने उत्पाद ‘बॉर्नवीटा’ को बच्चों के विकास के लिए स्वास्थ्यप्रद और लाभकारी बताने पर विवाद का सामना करने के एक साल बाद, मोंडेलेज़ के स्वामित्व वाली कैडबरी फिर से विवादों में आ गई है। वाणिज्य मंत्रालय द्वारा ई-कॉमर्स वेबसाइटों को लिखे पत्र में कहा गया है कि बॉर्नविटा जैसे पेय पदार्थों को ‘स्वास्थ्य पेय’ श्रेणी से हटा दिया जाये। भले ही एडवाइजरी में बोर्नविटा का उल्लेख किया गया है, लेकिन इसमें ई-कॉमर्स वेबसाइटों द्वारा ‘स्वास्थ्य पेय’ के रूप में बेचे जाने वाले समान उत्पादों की एक बड़ी श्रेणी का उल्लेख किया गया है, और ऐसे सभी उत्पादों से टैग हटाने के लिए कहा गया था। इससे लगता है कि शिकायत बॉर्नविटा से नहीं ई-कामर्स वेबसाइटों से है। इस लिये भी यह बाबा रामदेव के मामले से अलग है।
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी की गई सलाह ई-कॉमर्स वेबसाइटों के साथ-साथ विज्ञापनों में ‘स्वास्थ्य पेय’ शब्द के उपयोग पर केंद्रित है (जिसपर अब नजर गई है)। अमैजन की साइट पर यह न्यूट्रीशन (पोषण) ड्रिंक के रूप में उपलब्ध है। मुझे नहीं पता कि यह पहले से था या कल सरकारी आदेश के बाद बदला गया है। दोनों स्थितियों में सरकारी आदेश की टाइमिंग का महत्व समझिये। कहने की जरूरत नहीं है कि अंग्रेजी अखबारों की खबर से लगता है कि मामला कुछ है और बाबा को बदनामी से बचाने के लिए ही नहीं है पर हिन्दी अखबारों की खबर सरकारी विज्ञप्ति से ज्यादा होती तो कुछ बताती। बोर्नविटा 1920 के दशक का ब्रांड है और इंग्लैंड अमेरिका के साथ भारत, नेपाल, बांग्लादेश आदि में भी बिकती है। इसलिए मामला उत्पाद की गुणवत्ता का कम और हेल्थड्रिंक श्रेणी का ज्यादा है। उसे पोषण देने वाले उत्पाद के रूप में बेचा जाये या हेल्थड्रिंक की श्रेणी में फर्क क्या पड़ना है?
वैसे भी, सरकार पर आरोप है कि वह लोगों के खाने में क्या है से परेशान हो जाती है जबकि उसे यह चिन्ता होनी चाहिये कि जो खाया जा रहा है उसमें पोषण कितना है। वैसे भी, आज अमर उजाला की खबर है, दालों की जमाखोरी करने पर होगी कठोर कार्रवाई। मई 2016 में मैंने लिखा था, केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने से पहले दाल की कीमतें बढ़नी शुरू हुईं तो सरकार बनने के बाद भी लगातार बढ़ती गईं। पिछले साल (2015) मई से अक्तूबर के दौरान (बिहार चुनाव के समय खासकर) देश के कुछ राज्यों और हिस्सों में दाल की जमाखोरी का पता लगाने या इसकी शिकायत पर छापेमारी की खबरें खूब आईं। लगा, सरकार दाल की कीमत नियंत्रित करके मानेगी। दर्जनों मामलों का पता चला और ज्यादातर मामले भाजपा शासित राज्यों के थे। उस समय भी कहा गया था कि दालों की जमाखोरी के इतने मामले पकड़े गए तो गिरफ्तारी कितनी हुई। उस समय यह आरोप भी लगा था कि भिन्न कारणों और तकनीकी व कानूनी कमजोरियों या लापरवाहियों के कारण जमाखोरी में बरामद ज्यादातर दालें जब्त नहीं की जा सकीं और कार्रवाई होने को हो गई पर जमाखोरों को कोई नुकसान नहीं हुआ।