अनिल कुमार यादव-
“सहजयोग”… पहले तो यह कि हंस कथा सम्मान-2019 मेरी लंबी कहानी “गौसेवक” को मिला था. मशहूर कथाकार और तद्भव के संपादक, अखिलेश उसके निर्णायक थे. इस सम्मान से मेरे लेखक का मनोबल बढ़ा. उनके प्रति जो आभार का भाव है, हमेशा रहेगा.
समारोह के बाद उन्होंने कहा, तद्भव के लिए कुछ भेजो.
मैने उन दिनों अपना नया ट्रैवलॉग “कीड़ाजड़ी” लिखना शुरू किया था. कई बार की बातचीत के बाद अंततः अप्रैल, 2021 के पहले हफ्ते में मैने एक टुकड़ा छपने के लिए भेज दिया. उन्होंने पांच-छह महीने पत्रिका के दरवाजे पर बिठाए रखा. कोई संवाद नहीं.
संपादक जी मन में कुछ पुराना-नया-मध्ययुगीन गठियाये हुए थे जिसे कहने की उनमें हिम्मत नहीं है. अंततः जब मैने काफी जिद की, पुराने संबंधों का हवाला दिया तो लाठी उठाई और हौंक दिया. मैने पूछा, यह क्या?
उन्होंने कहा, यह सहजयोग है!
अखिलेश कथाकार-उपन्यासकार से अच्छे संपादक हुआ करते थे. हिंदी में बिरले. चापलूसों और विज्ञापन के बदले लेखकीय पहचान खरीदने वालों ने मीठा जहर चटाकर निपटा दिया. किस्सा खत्म हुआ. अब कुछ नया होना चाहिए.
मैने दो और पत्रिकाओं के संपादकों से ट्रैवलॉग के अंश देने का वादा किया था. इस अनुभव के बाद वादा तोड़ रहा हूं. अब सीधे किताब छपेगी.
कुछ प्रमुख प्रतिक्रियाएँ देखें-
विनोद सोनकिया-
मुझे ये साफ़गोई अच्छी लगी अनिल।इतना हक़ तो बनता ही है कि पूछा जा सके।वैसे यह सहजयोग नहीं असहज योग है।
रविकान्त चंदन-
आप एक दो लाख का विज्ञापन दिलाते तो छप जाती। वह घटिया, सामंती और सवर्णवादी मानसिकता का संपादक है।
अनिल कुमार यादव-
मलाल है कि न छापने की सूचना समय पर किस एंठ में नहीं दी. बात करने में ही पसीने आ गए।
जितेंद्र कुमार
संपादक को कम से कम यह तो बता ही देना चाहिए था कि भई जो रचना मैंने मंगवाई थी, वह छपने योग्य नहीं है. साथ ही यह तीन-चार पंक्तियों में यह भी कह देना था कि मुझे ये कुछ समस्याएं दिख रही हैं. कुछ लिखकर बताने पर इसलिए जोर दे रहा हूं क्योंकि रचना छापने के लिए आग्रह या मांग की गई थी!
ओम प्रकाश-
आप जैसे लोगों के साथ यह सुलूक हो रहा है…नए लोग भेजते हैं उनकी तो बाकायदा बेइज्जती की जाती है।
यशवंत सिंह-
संपादक का यह रवैया आलोकतंत्रिक है कि खुद मंगाओ रचना और बिना कारण बताए ख़ारिज कर दो।
अखिलेश के मन में अब साहित्य का महंत बन जाने का भाव आ गया हैं। उनकी हरकत सामने वाले को आहत करने hurt करने की है। इसे नीचा दिखाना भी कहा जा सकता है। मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए।
साहित्य में महंतई को आइना दिखाना ज़रूरी है वरना कल भी इसी अहंकार में वो कुछ भी फ़ैसले लेते रहेंगे। ये लोकतंत्र है rti का दौर है सबको जानने का हक़ है। शेम शेम अखिलेश!
ब्रम्हदत्त शर्मा-
यह प्रतिष्ठित लेखकों के साथ है, ‘आम’ लेखकों की बिसात ही क्या?
हर लेखक को उसकी रचना की स्वीकृति या अस्वीकृति की जानकारी देना संपादक का पहला कर्तव्य है, लेकिन ज्यादातर हालात में यही होता है, जैसा आपके साथ हुआ है। अगर एक संपादक के पास इतना भी समय या सामर्थ्य नहीं, उसे शायद संपादन ही नहीं नहीं करना चाहिए।
जगन्नाथ दुबे-
तद्भव और अखिलेश जी को लेकर आप ऐसी टिप्पणी कर सकते हैं यह पचने वाली बात नहीं है। इसकी कई वजहें हैं।
हां, तद्भव का लंबे समय से पाठक होने और अखिलेश जी के व्यक्तित्व से परिचित होने की वजह से आपकी दो बातों का जवाब देना उचित समझता हूं।
- अखिलेश जी पुराना-नया या मध्ययुगीन गठियाने वाले लेखक-संपादक नहीं हैं।(यह बात आप भी जानते ही होंगे।) वे बहुत साफ-साफ और मुंह पर कह देने वाले कम लोगों में से एक हैं। इसलिए आपके इस आरोप में मुझे तो खुद आपका ही कोई नया-पुराना मध्ययुगीन गठियाया हुआ लग रहा है। किसी पत्रिका का सम्पादक अगर आपसे रचना मांग रहा है तो वह आपके लेखकीय कद के आधार पर ही मांग रहा है। जरूरी नहीं कि आपकी भेजी हुई रचना भी उतनी ही बेहतर हो जैसी इससे पहले की रचनाएं हैं। जैसे आपकी कहानियां और यात्रा संस्मरण ‘वह भी कोई देश है महराज’ मेरी पसंदीदा रचनाएं हैं लेकिन ‘सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है’ शीर्षक लगाकर अखबारी कतरन सौंपकर आपने अपने पाठक के साथ मज़ाक किया था। उसपर मैंने लिखा भी था।
2.आपने आरोप लगाया है कि ‘चापलूसों और विज्ञापन के बदले लेखकीय पहचान खरीदने वालों ने मीठा जहर चटाकर तद्भव को निपटा दिया’। मैं पूछता हूँ यह कब हुआ अनिल जी? मुझे तो तद्भव के अब तक के 43 अंक पढ़कर यही लगा कि हिंदी भाषा के हरेक पाठक को अपनी इस पत्रिका पर गर्व है। तद्भव ने एक से एक नायाब कथाकारों, कवियों को पहली बार तब अपनी पत्रिका में जगह दी है जब उनकी कोई रचना कहीं और नहीं छपी थी। ऐसे दसियों नाम मैं बता सकता हूँ जिसे तद्भव ने पहली बार छापा। यह सब क्या चापलूसी और विज्ञापन के बदले लेखकीय पहचान खरीदने वालों की वजह से सम्भव हुआ है? क्या तद्भव का जो कद बना वह चापलूसों और विज्ञापनदाताओं की वजह से बना है? क्या आपका ट्रैवलाग छप जाता तब भी आप यह कहने की हिम्मत रखते? आपको क्या लगता है आपके इस लिखे का आंकलन नहीं होगा?
वीरेंद्र यादव ने बनास जन में लिखा है कि ‘कुछ ऐसे लोग हैं जो तद्भव को पीछे से पलटते हैं यह गिनने के लिए कि उसमें कितने पृष्ठ का विज्ञापन है’। ऐसे लोगों को एक ही सलाह है कि पत्रिकाएं आगे से पलटना और उसमें छपी रचनाएं पढ़ना सीखने की जरूरत है। विज्ञापन देखकर मूल्यांकन करने से बेहतर होगा रचना और रचनाकार देखकर मूल्यांकन किया जाए। तद्भव में आप ही नहीं अनेक ऐसे लोगों को मैं जानता हूँ जिनकी रचनाएं नहीं छपीं। सवाल न छपने का नहीं है,सवाल है जो छपीं वे किसी भी स्तर पर कमजोर रचनाएं हैं? अगर तद्भव में छपी रचनाओं को पाठकों का प्यार मिल रहा है वे व्यापक हिंदी समाज द्वारा सराही जा रही हैं तो फिर आपके इस व्यक्तिगत किस्म के आरोप का कोई मूल्य नहीं है।
अनिल कुमार यादव-
जगन्नाथ दुबे जी, मेरा क्षोभ रचना मंगाकर पांच महीने सन्नाटा खींचे रहने और पूछताछ करने पर उसे खारिज करने को लेकर है जो अनडेमोक्रेटिक और तानाशाही प्रवृत्ति है. उसे पहले बीस दिनों में भी खारिज किया जा सकता था, मुझे अखिलेश की स्पष्टता से खुशी होती. बाकी विज्ञापन की तुच्छता, वीरेंद्र यादव को आपकी सलाह और छप जाने पर मैं कितना बुलबुल हो जाता, ये सब आप गलत जगह कह रहे हैं. यहां कोई औचित्य नहीं है
सोनल ठाकुर-
बातचीत के स्क्रीनशॉट को ध्यान से पढ़िए! इसमें अनिल जी ने केवल 5 महीने तक जवाब ना देने पर नाराजगी जताई थी। जब आप किसी से आग्रह करके रचना मंगाते हैं तो कम से कम लेखक का इतना अधिकार तो होना चाहिए कि उसको समय से जवाब दो या उसकी रचना वापस कर दो।
इतने स्वाभिमान के साथ कोई लेखक अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पाता! यशवंत जी ने ठीक ही कहा कि अखिलेश जी में साहित्य का महंत बनने की क्षुधा साफ दिखती है।
लेखकीय कद समझकर जब किसी की रचना मांगी गई तो न छाप पाने की असमर्थता व्यक्त करके संवाद बनाए रखने का एक संपादक का सामान्य शिष्टाचार अवश्य निभाना चाहिए था । मुझे लगता है अखिलेश से से चूक हुई है।
अनुराग अनंत-
अखिलेश जी के बारे में काफी सुना था। उनके लेखक से थोड़ा बहुत परिचय है। संपादक के बतौर काफ़ी सुन रखा था। तद्भव तो ख़ैर हिंदी पत्रिका के कंगाल दौर में दूर मुंडेर पर जलता दीपक है ही। पाठक और हिंदी समाज हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में गले तक तालाब में धंसा है। यक़ीन मानिए अधिकतर संपादक ज़वाब नहीं देते । रचना मंगा कर अगर पसंद न आई और प्रकाशित नहीं करने का निर्णय लिया है तो यह ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वे ज़वाब दें। पर अफ़सोस यही ज़िम्मेदारी अब विलुप्तप्राय जीव में बदल चुकी है। कहा जाता है कि संपादक की महती भूमिका होती है किसी लेखक की निर्मिति में। पर हाय हिंदी के संपादक। ख़ैर यही है जो है। आपने अपना प्रतिवाद किया। लेखक अपने सम्मान से समझौता नहीं करता पर विडंबना ये कि इसे ही बचाने में उसकी अधिकतम ऊर्जा जाती है। यह समाज और इसके कथित चिंतक लेखक के सम्मान को नाश्ते, दोपहर के भोजन और रात में खाने में खाना चाहते हैं।
कुलभूषण मिश्रा-
Explanation (कायदे से हिंदी में जो भी शब्द हो) की जरूरत क्या है ?
अनिल कुमार यादव-
सिर्फ यह बताने के लिए कि हम जिंदा है. खुद गलत को सहन कर दूसरे को निर्भीक होने की नसीहत नहीं दे सकते
सौरभ श्रीवास्तव-
संपादक के अधिकारों को भी आरटीआई के दायरे में लाना चाहिए…सत्ता कोई भी हो विकेंद्रीयकरण बहुत जरूरी है।
अनिल कुमार यादव-
पहिले इन सब चीजों पर बात तो हो. अंदर अपमानित होना और बाहर मुस्कराना परंपरा है।
सुभाष राय-
यह इतनी बड़ी बात नहीं है कि इस पर लम्बी बहस की जाय। अगर संपादक ने आप से रचना मांगी है तो भी इस मांगने को छपने की गारंटी की तरह नहीं लिया जाना चाहिए। यह निर्णय संपादक को ही करना होता है कि वह उसे छापे या न छापे। तद्भव की अपनी एक प्रतिष्ठा है और उस पर इन आरोपों का कोई खास असर नहीं होने वाला है। लेखक को रचना भेजने के बाद आगे की जिम्मेदारी संपादक पर छोड़ अपने काम में लग जाना चाहिए। अनिल मेरे मित्र हैं । वे हर जगह लड़ते हैं, यह ज्यादा खराब बात नहीं है लेकिन यह समझना भी जरूरी है कि हर जगह लड़ने की नहीं होती। जहां एक लेखक को लड़ना चाहिए, वहां हम सब अनिल जी के साथ हैं लेकिन आदतन कहीं भी सर टकराने का कोई फायदा नही ।
यशवंत सिंह-
Subhash Rai ये बिल्कुल बहस का विषय है सर। बहस न की जाए, इस विषय पर भी बहस हो।
दिनेश श्रीनेत-
संपादक के कुछ अलिखित विशेषाधिकार हैं क्या? प्रतिष्ठित होने का मतलब निरंकुश होना और लेखक के प्रति सामान्य शिष्टाचार भी भूल जाना है?
अंजुले-
हद है… मने 5 मंथ में यदि न छापना हो तो मनाही कि बात भी लेखक तक न पहुचाना भी कोई मसला न है₹
नरेंद्र पुंडरीक-
रचना से अधिक बड़ा रिश्ता संपादक का विज्ञापन से होता है।
अनिल कुमार यादव-
दोनों के बीच संतुलन बनाना ही सम्पादकत्व है: एक परिभाषा ये भी हो सकती है।
नरेंद्र पुंडरीक-
जी, यह कुशलता ही असली संपादकत्व है । लेकिन रचना के साथ न्याय पहला दायित्व है।
राजेश मल्ल-
यह बहस बेकार की है। मुझसे सम्पादक ने रचना मांगी।नई और आप की लिखी जा रही नवीनतम। मैंने भेज दिया। अब यह सम्पादक के विवेक पर है।छापे या न छापे। इसके लिए बवाल मचाना उचित नहीं है। हमें अपनी रचना के पहले आलोचक संपादक का सम्मान करना चाहिए।
अनिल कुमार यादव-
मांग कर भी न छापे यहां तक तो ठीक है. लेकिन समय से बता तो दें कि क्यों नहीं छापेंगे. सम्मान फम्मान का नहीं साहित्यिक पत्रकारिता के स्थापित लोकतांत्रिक चलन का मामला है जो छापाखाना आने के साथ ही शुरू हुआ था।
राजेश मल्ल-
बता तो जरूर देना चाहिए। महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे सम्पादक ने भी निराला जैसे कवि को छापने से मना करने का कारण सहित उत्तर भेज दिया था। इस परम्परा का निर्वाह करना चाहिए। रचना के पहले आलोचक की टिप्पणी महत्वपूर्ण होती।
प्रमोद कुमार पांडेय-
‘सहजयोग’ इतना भी ‘सहज’ कैसे हो सकता है कि पहले रचना मांगिए और प्राप्ति के बाद 5-6 माह कोई स्वीकृति-अस्वीकृति की सूचना न दीजिए!
ऐसा कैसे हो सकता है सहजयोग?
सत्साहसी संपादक को मित्रता-शत्रुता, गोतिया-भाई से निरपेक्ष होकर अपनी पत्रिका की नीति और नीतिबोध अनुसार रचना पर ध्यान देना चाहिए । या तो छपने लायक है या नहीं है!
सुदीप्त- इतना मक़ाम तो अर्जित किया ही है Anil जी ने कि सूचना या जवाब की अपेक्षा तो रख ही सकते हैं, कोई नौनिहाल या वाना-बी राइटर तो हैं नहीं।
एक परंपरा रही है सम्पादकीय दायित्व और सृजनात्मक लोकतंत्र की कि रचना न छपनीय हो तो भी उसे न छापने के कारण सहित लौटा दिया जाए।
मित्रता, रिश्तेदारी, भाई-बन्दगी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ।
ऐसा नहीं कि यह चलन महावीर प्रसाद द्विवेदी या पराड़करकालीन ही रही हो।
राजेंद्र यादव के हंस का हमें निजी अनुभव है कि मेल, वॉट्सएप्प की त्वरित सुविधा की बात ही क्या–डाक से रचना लौटी सकारण कि हम इसे उपयोग नहीं कर पाएंगे। आप कहीं और के लिए स्वतंत्र है।
और भी कुछेक अखबारों-पत्रिकाओं के पृष्ठ प्रभारी/संपादकों ने स्वीकृति-अस्वीकृति की सूचना दी। जरूरत पड़ी तो rewrite करवाये।
अखिलेश जी अच्छे संपादक और सिद्ध साहित्यकार हैं। वह भी ऐसा करते होंगे ऐसी उम्मीद है।
तो यह कैसे हो गया?
अनिल भैया (Anil Kumar Yadav) जैसा विशिष्ट प्रातिभ लेखक हो और अखिलेश जी जैसे संपादक हों फिर भी इस तरह का सहजयोग घटित हुआ यह आश्चर्यजनक नहीं निराशाजनक है!
इस पोस्ट में जो संवाद चस्पा है वह बताता है कि ये जो यथार्थ है वह कितना लोकतांत्रिक और सहज है!
आपके जैसा लेखक जो पत्रकारिता और साहित्य में अकरियरवादी और झोल-झाल हीन रहा हो, जिसने अप्रतिम लेखकीय मेधा के बावजूद अव्यवस्थित जीवन और करियरचर्या का वरण किया हो, सहजता और विस्फोटक स्पष्टता को पसंद करता हो, उसके साथ जिस रहस्यमयी भाषा में यह सदाशयता बरती गयी हो वह हम जैसे साधारण पाठकों के लिए काठ मारने जैसा है।
मुझे भी स्मरण है ‘गौसेवक’ को राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान से पुरस्कृत किये जाने के अवसर की।
कार्यक्रम समाप्ति के बाद जिस तरह से लहालोट होकर आप और अखिलेश जी मिले।
परस्पर स्नेह-सम्मान-जिंदादिली के साथ।
वह याद कर और यह सब पढ़-सुन कर लगता है कि क्या सामान्य सहजता इतनी भी कठिन है कि जिसे जिया न जा सके?
निखिल आनंद गिरी-
नौनिहाल हो तब भी जवाब देना संपादक का फ़र्ज़ बनता है
अनिल कुमार यादव-
तब और ज्यादा…क्योंकि वह आगे वही व्यवहार भविष्य के नये लेखकों से करने वाला है
अनिल कुमार सिंह-
अखिलेश जी मेरे बड़े भाई हैं ।इलाहाबाद में अमरकांत जी ने मुझे उनके पास भेजा था ।उन्होंने मुझे कभी नही छापा ।मेरे संग्रह की समीक्षा तक नही ।मैने कभी उनसे कोई शिकायत नहीं की । जबकि हिंदी समाज के चलन के हिसाब से तो मुझे उनकी सुपारी दे देनी चाहिए थी ।आप लिखते रहिए ।मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन अखिलेश जी चिरौरी करके आपसे लिखवाएंगे।
अनिल कुमार यादव-
हिन्दी समाज सुपारीबाज से ज्यादा दंतचियार और अनुकम्पाग्रही है. यहाँ प्रश्न है कि बड़े भाई ने रचना न छापने के अपने अधिकार को पांच महीने किस सुख के लिए निलंबित रखा? अगर लेखक के साथ डेमोक्रेटिक व्यवहार नहीं किया जाता तो वह अवसरवादी चिरौरी को तवज्जो क्यों दे।
अनिल कुमार सिंह-
लेखक के जीवन में पांच महीने बहुत छोटा काल है ।शमशेर ,त्रिलोचन या नागार्जुन के संग्रह पचास वर्ष की आयु के बाद छपे थे ।आप खुद को लीजिए ।आपका ऑब्जर्वेशन बहुत महीन है ।आपके गद्य की रफ्तार इतना धीमी क्यों है ?लेकिन यही आपके गद्य लेखन का सौंदर्य है!मै तो पाठक हूं । पांच महीने को तूल क्यों दिया जाए फिर ?
शिरीष खरे-
किसी संपादक के लिए पांच महीने का समय बहुत ज्यादा है सिर्फ हां और न बताने के लिए, जबकि लेखक लगातार संपादक से पूछ रहे हैं तो। लगता है कि यह लोकतंत्र का नहीं अहम का मामला है।
दिनेश श्रीनेत-
काहे तूल दिए हैं Anil Kumar Yadav जी, पहले मर मर के लिखिए, बिना पारिश्रमिक छपने को भेजिए, तिल तिल कर पांच महीने सात महीने जवाब की प्रतीक्षा कीजिए, छपे तो नत हो जाइए, न छपे तो शमशेर, त्रिलोचन की दुर्दशा याद कर मन को सन्तोष दीजिए।
अनिल कुमार यादव-
संपादकीय दायित्व और लोकतान्त्रिक व्यवहार… अगर संवाद और सदाशयता हो तो किसी योग्य सम्पादक को उम्र दी जा सकती है लेकिन ये तो अहंकार है अनिल जी।
अनिल कुमार सिंह-
हो सकता है कि यह अहंकार हो !! लेकिन संदेह का लाभ भी तो दिया जा सकता है ।अभी इश्क के इम्तिहान और भी हैं !
अनुराधा गुप्ता-
सम्पादक को एक तय सीमा में रचना की स्वीकृति/अस्वीकृति जानकारी देनी ही चाहिए। मान सकते हैं कि अस्वीकृति का कारण बताने के लिए वो बाध्य नहीं, जब तक वो एक सम्पादक के ऊँचे कद से उठकर एक सहृदय/ लेखक या मनुष्य न हो। आप उनके शायद करीबी रहे हैं इसलिए आपकी पीड़ा ज़्यादा सघन और तीखी है । अन्यथा लम्बे अरसे से लोकतांत्रिक व्यवहार की यहाँ गुहार लगाई जाती रही है। आपके मित्रों का ये सजेशन भी मानीखेज़ है कि आपको उनकी क्या दरकार..सीधे किताब पढ़ेंगे..सही है। निश्चित ही तद्भव बेहद महत्त्वपूर्ण पत्रिका है, उसके ‘होने’ का जितना दाय अखिलेश जी का है, उतना आप जैसे लेखकों का। हालांकि विज्ञापन वाली बात मुझे बहुत कन्विंस नहीं कर रही, ऐसा होता तो सबसे पहले उन रचनाकारों को वहाँ जगह पाते नहीं देखा होता, जिन्होंने बाद में बड़े मक़ाम हासिल किए। मामला सिर्फ़ एक आग्रह पर लिखाए गए लेख को बिना कारण बताए, लम्बे समय बाद याद दिलाए जाने पर अस्वीकृत करने का है।
शुभचिंतकों का यह कहना कि ‘कौन सी बड़ी बात हो गई’ या ‘मामले को तूल क्यों देना’ हैरतअंगेज है। दअरसल ये हिन्दी और हिंदुस्तानियों की गुलाम मानसिकता का परिचायक है। आपने सही किया, बात को रखा।
रविकान्त चंदन-
अखिलेश रचना के साथ नहीं रचनाकार माल देने वाला या दिलवाने वाला है तो समझौता करते हैं। अनिल यादव जैसे लेखकों की रचना नहीं छापकर संपादकीय दायित्व उर्फ दादागीरी निभाते हैं। इसे बहुत भ्रम है कि यह लेखक बनाता है। लेकिन भूल जाता है कि पत्रिका लेखकोंसे चलती है।
बिपिन कुमार शर्मा-
यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।
आप और अखिलेश जी, दोनों व्यक्ति और लेखक, दोनों ही स्तरों पर मुझे बहुत प्रिय हैं।
दूसरी बात, मैं यह खुले मन से स्वीकारता हूं कि आप लेखक भी मुझसे कई गुना अच्छे हैं और व्यक्ति भी, साथ ही आपका बौद्धिक स्तर भी मेरी तुलना में काफी उच्च है। इसलिए यह सब नहीं कहूंगा कि जब अखिलेश जी फेसबुक पर नहीं हैं तो उनके इस प्रकरण को यहां रखना चाहिए था या नहीं? आपने खूब सोच-समझकर ही रखा होगा।
हां, यह मैं स्पष्ट तौर पर कहूंगा कि एक संपादक को, खासकर तब जब वह संपादक स्वयं बहुत प्रतिष्ठित लेखक भी हो, हर हाल में रचनाकार का सम्मान करना चाहिए। यह बहुत ही सामान्य बात है कि आप किसी बड़े लेखक से रचना मांगें और पढ़ने के बाद वह प्रकाशन योग्य न लगे। किंतु यह बात लेखक को समय पर तथा सम्मान सहित न सूचित करना संपादकीय गरिमा के प्रतिकूल है, साथ ही यह लेखक का अपमान भी है। अखिलेश जी से ऐसा नहीं होना चाहिए था।
दूसरी बात, मैंने अपने लेखकीय जीवन में (हालांकि आपके आगे मैं अपने को लेखक कहते झिझक रहा हूं) किसी भी पत्रिका को अपनी रचना से अधिक महत्व नहीं दिया। किसी भी पत्रिका को इस योग्य नहीं समझा कि महज उस पत्रिका में छप जाने मात्र से मैं या मेरी रचना महत्व पा लेगी। जिसने भी सम्मान से मांगा या छापा उसे मैं देता रहा।
यों भी हिंदी पत्रिका का संपादक लेखक को देता ही क्या है? कुछ पत्रिकाएं थोड़ा-बहुत देती भी हैं तो वह इतना कम होता है कि उसे लेना- न लेना बराबर समझा जाना चाहिए। तो ऐसे में एक लेखक थोड़ा-सा सम्मान चाहता है तो क्या गलत है? खासकर वह लेखक जिसने ईमानदारी और प्रखरता से अपनी प्रतिष्ठा कमाई हो?
आशू अद्वैत-
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने भी कमलेश्वर(अगर मैं भूल नही रहा हूं तो) जी को( सारिका में) रचना भेजी थी।दस साल बाद उन्होंने बताया कि रचना नही छप पाएगी।…सम्पादक का नैतिक कर्तव्य है कि लेखक की रचना के स्वीकार/अस्वीकार की सूचना दे जिससे कि वह उसमे सुधार या अन्य जगह भेज सके।
रविकान्त चंदन-
ऐसे कथित वामपंथी और प्रगतिशील कोने में सत्ताधारी दक्षिणपंथियों के आगे विज्ञापन के लिए दुम हिलाते हैं। हिन्दी समाज की दिक्कत यह है कि ऐसे बनावटी संपादकों को इनकी औकात से ज्यादा सम्मान देता है।
मनोज मोहन-
तद्भव में आजकल न छापे जाने की शिकायतें बढ़ती जा रही हैं, इसे पाठक का विश्वास कम होता है….