साहबो, जब-जब हम फ़ेसबुक पर आते हैं, हमें अपनी अज़ीज़ा गीताश्री का ख़याल हो आता है. ये क़िस्सा उन्हीं के मुतल्लिक़ है. और उनके हवाले से हमारी दो और दोस्तों से. जिन क़द्रदानों ने हमारे क़िस्सों पर नज़रसानी की है, वे इस बात से बख़ूबी वाक़िफ़ हो गये होंगे कि हमें बात चाहे ज़री-सी कहनी हो, मगर हमारी कोशिश यही रहती है कि वह मुन्नी-सी बात भी एक अदा से कही जाये जिससे हमारे सामयीन का दिल भी बहले और हमें भी कुछ तस्कीन हो कि हमने वक़्त ज़ाया नहीं किया.
ये बात दीगर है कि बहुत-से लोग तो यही कहते पाये गये हैं कि हम वक़्त ज़ाया करने के अलावा कुछ करते ही नहीं, कि हमारे पास वक़्त के सिवा और बचा ही क्या है जिसे ज़ाया करें. ख़ैर, जैसा कि देवभाषा में कहते हैं — “मुण्डे-मुण्डॆ मतिर्भिन्ना.” यों बाज़ लोगों का कहना है कि अच्छा क़िस्सागो वही हो सकता है, जो बातूनी हो, लफ़्ज़ और फ़िक़रे जिसकी ज़बान पर रस छोड़ते हों. हमें भी इस बात से पूरा इत्तेफ़ाक़ है. चुनांचे: हमने इन दोनों कलाओं — क़िस्सागोई और जिसे अंग्रेज़ी में कौन्वरसेशन या स्मौल टौक भी कहते हैं, बड़ी काविश से महारत हासिल की है. गो इसके चलते हमने एकाधिक मित्र खोये हैं, क्योंकि आजकल का मिज़ाज फ़ास्ट का है, ख़्वाह वो फ़ूड हो या फ़न (दोनों हिन्दी-अंग्रेज़ी मानी में).
बहरकैफ़, बात आज के क़िस्से की चल रही थी, जो तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाओं (ज़रा अनुप्रास की छब और छटा पर ग़ौर करें, मेहरबान) के बारे में है. अब आप सोच रहे होंगे कि ये किन ख़वातीन का ज़िक्र हुआ चाहता है. तो हम ससपेन्स में कटौती करते हुए आपको शुरू ही में बता दें कि ये तीन मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिलाएं हैं….दिल थाम कर बैठिये हुज़ूर …. गीता श्री, अचला शर्मा और रमा पाण्डे, जिनमें से दो आख़िरी शख़्सियतें बीबीसी में हमारी सहकर्मी रहीं और पहली मोहतरमा से हमारा परिचय बीबीसी से लौटने के काफ़ी बाद यहां इस शहर शाहजहानाबाद उर्फ़ दिल्ली में हुआ. यह पोस्ट दरअसल गीताश्री के बारे मॆं है, जिनकी याद, जैसा मैंने पहले ही अर्ज़ किया, मुझे फ़ेसबुक पर आते ही हर बार हो आती है.
अगर हम वाक़फ़ियत के लिहाज़ से चलें तो सबसे पहले हमारी जान-पहचान अचला शर्मा से हुई, जो हमारे बीबीसी से चले आने के बरसों बाद वहां की कामयाब प्रोग्राम और्गनाइज़र यानी प्रमुख बनीं और काफ़ी मक़बूल साबित हुईं. अचला को हम पहले से जानते थे, उनका पहला कहानी संग्रह “बर्दाश्त बाहर” शाया करने का शर्फ़ हमें हासिल हुआ था. ये तो महज़ इत्तेफ़ाक़ था कि वे आकाशवाणी से डेप्युटेशन पर बीबीसी तब पहुंचीं, जब हम वहां साल भर गुज़ार चुके थे. हिन्दुस्तान में छूटा हुआ धागा वहां फिर जुड़ गया.
अचला की पहली शादी हमारे दोस्त और अग्रज रमेश बक्षी से हुई थी, जो बहुत अच्छे कथाकार और नाटककार थे और जिनके नाटक “देवयानी का कहना है” को हम एक शानदार नाटक मानते हैं. अचला की उनसे पटी नहीं और वो आकाशवाणी में चली गयी. अचला बेहद ज़हीन थी, ख़ुद भी अच्छी कहानीकार है और माहिर ब्रौडकास्टर, ऊपर से इण्टलेक्चुअल, जो साहित्य और राजनीति पर यकसां दख़ल रखती है. चुटीली फब्तियां कसने में उसका कोई जवाब नहीं और काफ़ी प्रबुद्ध महिला है, जो बिना ढोल-नगाड़े पीटे स्त्री-मुक्ति में यक़ीन रखती है. हमारी-उसकी चपकलश के सैकड़ों क़िस्से हैं, दोस्तो, जिन्हें हम बयान करने बैठें तो रात बीत जाये और क़िस्से का उन्वान बदल कर एक मुख़्तलिफ़ मिज़ाज महिला करना पड़े.यह हम भी नहीं चाहते और यक़ीनन आप भी नहीं चाहते होंगे.तो हम बस एक अदद मद का ज़िक्र करके आगे बढ़ते हैं.
एक दिन हमने अपने पसन्दीद: शाइर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब का शेर पढ़ा “छेड़ ख़ूबां से चली जाये असद / गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही.” अचला ने फ़ौरन टोका,”नीलाभ, सही शेर है – यार से छेड़ चली जाये असद.” हम अड़ गये. ये वाक़या उस होली का है, जिसकी पार्टी हमारे सीनियर सहकर्मी ओंकार नाथ श्रीवास्तव ने अपने उत्तरी लन्दन वाले आशियाने में दी थी.
अचला ने वही किया जो ऐसे में लोग करते हैं — दीवान ला कर हमारे मुंह पर दे मारा. हम भी कहां हार मानने वाले थे, बोले — हम अहल-ए-दीवान नहीं, अहल-ए-ज़बान हैं, हमने इस शेर को इस रूप में भी सुना है, हो सकता है, ग़ालिब के काग़ज़ात में ये वाला दूसरा प्रारूप छुपा हुआ हो, वरना लोग इसे इस रूप में क्यों याद रखते.” मुक़ाबला बराबरी पे छूटा, जिसमें दोनों फ़रीक अपनी-अपनी टेक पर अड़े हुए थे.
फिर समय बीता, ख़ाकसार ने बीबीसी से इस्तीफ़ा दे दिया. चलते वक़्त अचला ने विदाई का एक कार्ड दिया, जिसमें लिखा था “यार से छेड़ चली जाये असद…नीलाभ, हम तो इसे ऐसे ही पढ़ेंगे.”
बीबीसी से आये 31 बरस बीत चुके हैं, अचला बीबीसी हिन्दी सर्विस की प्रमुख बनने के बाद एक कामयाब पारी खेल कर रिटायर हो चुकी है, पर वो कार्ड आज तक मेरे पास है, और वो सतर, “हम तो इसे ऐसे ही पढ़ेंगे.”
हमारे बीबीसी पहुंचने के कुछ ही समय बाद रमा पाण्डे और नरेश कौशिक भी वहां आ शामिल हुए थे. दोनों आख़िरी दौर तक बीबीसी के उम्मीदवारों की सफ़ में हमारे साथ-साथ थे. संयोग की बात कि मनोज भटनागर (जो अब इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह कर हमारा साथ छोड़ गये हैं) और मैं पहले चुन लिये गये. ख़ैर, रमा पाण्डे के मिज़ाज का अन्दाज़ा मुझे आवाज़ के टेस्ट और आख़िरी जी.के. के पर्चे के समय ही हो गया था, जब उसने बाहर आ कर हंसते हुए बताया था कि वो जी.के. में कुछ का कुछ लिख आयी है.
रमा प्रसिद्ध गायिका और अभिनेत्री इला अरुण की बहन है, हालांकि ये बात उसने हमें सरे-राहे यों बतायी मानो कह रही हो “नो बिग डील.”
(इसी तरह उसने एक बार हंसते हुए बताया कि मंझली बहन होने की वजह से उसे इला से बहुत हसद होती थी और उसने एक बार इला के बहुत-से तमग़े नाली में फेंक दिये थे. तीन चार साल पहले जयपुर साहित्यिक उत्सव में जब रमा और इला से मेरी और रानी की मुलाक़ात हुई तो दोनों बहनों के आपसी लगाव को देख कर मुझे बेसाख़्ता वो क़िस्सा याद आ गया. रमा ने बड़े तपाक से इला से हमारा परिचय कराया था और हमें तो इला भी बिन्दास लगी थी.)
चूंकि हम ख़ुद नामी रिश्तेदारों से ख़ुद को जोड़ने के क़ायल नहीं चुनांचे: हमें रमा की यह फ़ितरत अच्छी लगी थी.. अलावा इसके रमा बहुत बहिर्मुखी है, आगे -आगे रहने की शौक़ीन, हंसने-हंसाने वाली, मन में कीना न रखने वाली, बातूनी, दोस्त-नवाज़ और उस विनोद-वृत्ति से कूट-कूट कर भरी हुई, हिन्दीवालों में जिसका अज़हद अभाव रहता है. चुनांचे: हमारी उस से पट गयी और आज तक पटती है, हालांकि अब मिलने-जुलने के मौक़े बहुत कम हो गये हैं. इला अरुण तो अपने लोकगीतों की अदायगी के लिए मशहूर हैं ही, रमा ने भी इनमें काफ़ी महारत हासिल कर रखी है, गो वह गाती नहीं है. सो, एक दिन बातों-बातों में रमा ने हमें एक दिलचस्प गीत नुमा चीज़ सुनायी —
“सांझ भयी दिन अथवन लागा
राजा हमका बुलावें पुचकार-पुचकार,
रात भयी चन्दा चमकानो,
राजा छतियां लगावें चुमकार-चुमकार,
भोर भयी चिड़ियां चहचानीं,
राजा हमका भगावें दुत्कार-दुत्कार”
बहुत बाद में चल कर हमने अपने एक और दोस्त ज्ञानरंजन के बारे में लिखते हुए अपनी किताब में उसका इस्तेमाल किया. बहरहाल, इससे आप रमा के मिज़ाज का अन्दाज़ा लगा लीजिये.
इसी तरह एक दिन रमा कंजी आंखों वाली एक सुन्दर गुजराती युवती को ले कर हमारे कमरे में आ धमकी और उससे हमारे सामने ही बोली, “देखो, यह आदमी तो बहुत दिलफेंक और गड़बड़ है, पर पूरे हिन्दी सेक्शन में अगर कोई तुम्हें काम सिखा सकता है तो यही वो आदमी है.” हमारे लिए हमारी ये तारीफ़ साहित्य अकादेमी पुरस्कार से रत्ती भर कम न थी. वैसे, उन दिनों ख़ुद रमा हमारे एक पाकिस्तानी दोस्त शफ़ी नक़ी जामी को (जो संयोग से छै-सात साल बाद पाकिस्तान जाने पर पता चला कि हमारे मित्र कथाकार-आलोचक आसिफ़ अस्लम फ़र्रुखी का कज़न था) हिन्दी सिखा रही थी. उसने शफ़ी को इतना ताक़ कर दिया कि लौटने के बाद एक दिन नौस्टैल्जिया के मूड़ में जब हमने “खेल और खिलाड़ी” प्रोग्राम लगाया, जो कभी हम किया करते थे, तो शफ़ी के प्रसारण को सुन कर दिल बाग़-बाग़ हो गया था.
अचला तो थोड़ी नहीं, ख़ासी इन्टलेक्चुअल मिज़ाज थी, और है, और हमारी ही तरह “हिसाब-ए-दोस्तां दर दिल” के उसूल पर पर चलने वाली, मगर रमा पाण्डे की ख़सलत बिलकुल अलग क़िस्म की थी. ऐन मुमकिन था कि आप से शदीद झगड़ा हो जाने के घण्टे भर बाद वो आये और खिली-खिली मुस्कान फेंकते और गालों के गड्ढे खिलाते हुए सीधे ही किसी जुमले से लड़ाई को दफ़्न कर दे, जो शायद न मेरे बस की बात है, न अचला के. हिन्दुस्तान लौट आने के बाद रमा से बहुत दिन तक मुलाक़ात नहीं हुई, पर फिर राबिता क़ायम हो गया और अब कभू-कभार मुलाक़ात हो जाती है और देख कर अच्छा लगता है कि सरापा बदल जाने के बावजूद रमा की सीरत नहीं बदली.
तेज़ी से बदलती इस दुनिया में यह क्या कोई कम बात है.
मज़े की बात देखिये, अभी कुछ महीने घर-बदर कर दिये जाने के बाद एक रोज़ जब हम अपने काग़ज़ात उलट-पलट रहे थे तो हमें वो रुक़्क़ा हाथ लगा जिस पर रमा ने अपने डील-डौल से मेल खाते बड़े-बड़े अक्षरों में ऊपर वाला गीत लिख कर दिया था. हमने अचला के कार्ड की तरह उसे भी संभाल कर रखा हुआ है और इसे अपनी ख़ुशनसीबी मानते हैं कि घर-बदर होते हुए तमामतर चीज़ों में से, जो दुनियावी नज़रों में क़ीमती मानी जायेंगी और हमें अज़ीज़ भी थीं, हम इस क़िस्म की अनमोल दौलत बचा लाने में कामयाब रहे.
गीता श्री आज हिन्दी पत्रकारिता जगत में एक नामी हस्ती है. मुज़फ़्फ़रपुर की है, जिसे हम उतना ही जानते और मानते हैं, जितना अपने वतन इलाहाबाद और उप-वतन लन्दन को. अलावा लीचियों, कवियों, लेखकों के, और उत्तरी बिहार का सबसे महत्वपूर्ण शहर और बणिज-ब्योपार का मरकज़ होने के, मुज़फ़्फ़रपुर अपनी ख़ूबसूरत ख़वातीन के लिए भी हमारे दिल में एक ख़ास जगह रखता है. अभी हाल में “कोठागोई” के लेखक प्रभात रंजन मुज़फ़्फ़रपुर के बारे में हमारे बयान को सुन कर ख़ासे हैरतज़दा हो गये थे. समझ नहीं पा रहे थे कि वे उस शहर के हैं या हम.
बहिरकैफ़, बात गीताश्री की, जिससे हमारा परिचय उसी साल हुआ जिस साल हम जलावतन हो कर देश की इस सबसे बड़ी और मक़बूल पनाहगाह यानी स्थायी शरणार्थी-शिविर दिल्ली आये थे. गीता तब “आउटलुक” की रुक्न-ए-रकीन थी और अपनी उस टिप्पणी की वजह से चर्चा में थी जो उसने अपने हंसोड़ अन्दाज़ में होली के मौक़े पर लिखी थी. मगर इसे कुदरत की कारसाज़ी कहिये कि उसमें कुछ छींटे ऐसे भी थे जो हमें मुनासिब नहीं लगे थे और बग़ैर किसी जान-पहचान के हमने अपनी राय का इज़हार गीता से कर दिया था.
हमारा मानना है कि चुटीला-से-चुटीला कमेण्ट भी तभी मज़ा देता है, जब वो शख़्स जिस पर चुटकी ली गयी हो, उसका आनन्द ले. हमारे साथी विष्णु खरे कई बार अपनी ख़लीफ़ाई में इस हद को पार कर जाते हैं, जो हमें कभी ठीक नहीं लगा. उस होली में गीता अपनी चुटकियों में अनजाने ही ऐसा कर बैठी थी. और चूंकि हमने भी कई बार अजाने ही ये हदें पार की हैं, चुनांचे: हम भी तो सुधार के क़ाबिल ठहरते आये हैं. ख़ैर, बात आयी-गयी हो गयी और वहां से हमारी दोस्ती का आग़ाज़ हुआ. आगे चल कर गीता की निश्छलता से कई बार हमारा साबिक़ा पड़ा.
गीता उन दिनों पत्रकारिता में तीर मारने के अलावा अपनी कहानियां लिखने और उन्हें छपवाने की तगो-दौ में मसरूफ़ थी. धीरे-धीरे परिचय घना हुआ तो गीता में हमने अपनी उन दो दोस्तों का एक अजीब-सा मेल देखा, जिनका ज़िक्र हम मुन्दर्जाबाला बयान में कर आये हैं. गीता में अचला की-सी सोचने की सलाहियत है और रमा जैसा आउटगोइंग सुभाव, जिसके चलते कई मर्तबा लोग उसके बारे में ग़लत धारणाएं भी बना लेते हैं, मगर सिर्फ़ तभी तक जब तक कि वे उसके नज़दीक नहीं आते. रमा की तरह गीता को भी हर महफ़िल में पेश-पेश रहने और उस महफ़िल को गुल-ओ-गुलज़ार बनाये रखने की आदत है और अचला की तरह कभी-कभी ऐसे बयान देने की भी कि आप पल भर को रुक कर सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि इस हंसोड़-तबा लेखिका के भीतर क्या चलता रहता है.
इसका ताज़ातरीन नमूना “कोठागोई” के लोकार्पण के मौक़े पर औक्सफ़ोर्ड बुक स्टोर पर देखने को मिला, जब गीता ने बातचीत का संचालन किया. कहना न होगा कि वो प्रभात रंजन के पेश-पेश रही. यों, गीता दोस्त-नवाज़ भी है. हम भूल नहीं सकते वो शाम जब हम राजेन्द्र जी के जन्मदिन की पार्टी में बहुत पी गये थे और लगभग होश खो बैठे थे. गीता ने, जो हमारे लेखे मेज़बान थी, हमारे सलामती से घर पहुंचने का मुनासिब इन्तज़ाम किया था गो यह उसके दावतनामे का हिस्सा नहीं था और इसके लिए उसे ख़ास तकलीफ़ उठानी पड़ी थी. मुमकिन है, इसमें हमारी मरहूम साथिन रानी के प्रति गीता के लगाव का भी हाथ हो जिसे वह पसन्द करती थी. आज पहली बार हमने उस वाक़ये का ज़िक्र किया और ताज़िन्दगी गीता के एहसानमन्द रहेंगे.
ख़ैर, अब वो वजह जिसने हमें यह तवील क़िस्सा कहने पर मजबूर किया.
पिछले दिनों जब हम अपने एक ज़ाती मसले में उलझे हुए थे, जो शैतान की आंत की तरह ख़त्म होने ही में नहीं आ रहा है, तब एक दिन हमने गीता से शिकायत की कि वो उन तमाम पोस्टों पर “लाइक” का बटन दबाती है, जिनमें हमारे झूठे-सच्चे परख़चे उड़ाये गये होते हैं. गीता ने अपनी बड़ी-बड़ी क़राकूज़ी आंखें नचा कर कहा कि फ़ेसबुक का चलन है कि “लाइक” का मतलब है कि हमने “देख लिया.” ज़रूरी नहीं कि यह उस पोस्ट से रज़ामन्दी ज़ाहिर करता हो. बात हमें कुछ समझ में नहीं आयी.
भई, अगर जनाब मार्क ज़ुकरबर्ग और उनके चार साथियों का इरादा यह था, तो वे बड़ी आसानी से अंग्रेज़ी के लफ़्ज़ “सीन seen” का इस्तेमाल कर सकते थे, जिसका उलट unseen भी उतने ही अक्षरों का होता है. यह गड़बड़झाला पैदा करने की क्या ज़रूरत थी ? यों भी, समुद्र पार के अंग्रेज़ों और अमरीकियों में लाइक को फ़ालतू में ही क्लिक करने की आदत नहीं होती. वे ख़ामोश रहते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. हम भी कुछ इसी ख़याल के हैं
बहरहाल, साहबो, हमारा क़िस्सा तो यहीं अपने अंजाम पर पहुंचता है. ये कोई अख़लाकी हिकायत यानी नीति कथा नहीं है, बस एक छोटी-सी खूंटी पर डबलबेड का पलंगपोश टांगने की क़वायद है. इसमें “हासिल” से ज़ियाद: “कारफ़र्माई” का, मंज़िल से ज़ियाद: सफ़र का मज़ा है. अगर आप मायूस हुए हों तो हमारी ख़्वाहिश भी है और इल्तेजा भी कि बराये-मेहरबानी “लाइक” न दबायें, बल्कि ये क़िस्सागो चाहेगा आप कुछ भी न दबायें जिसमें क़िस्सागो का गला भी शामिल है. वो बेचारा अभी कुछ दिन और इस दुनिया-ए-फ़ानी में बने रहने की तमन्ना रखता है. थोड़ा-बहुत भी पसन्द आया हो तो “लाइक” दबायें और अगर ज़ियाद: पसन्द आया हो तो कुछ कहें भी, ख़्वाह वो फ़क़त “ह्म्म्” ही क्यों न हो.
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