सुदीप्ति-
मौमिता आलम की एक कविता पढ़ी। दिल चाक हो गया। शर्म आने लगी है कि ऐसे डर के साए में जीते हमवतनों के बीच हम इस तरह निर्द्वंद हैं। घुटन और भीतर ही भीतर चीरती हुई चीख है यह कविता। यूँ तो ट्रेन में मुझे भी घबराहट होने लगी है तब भी उसकी तुलना इससे नहीं की जा सकती है जो मौमिता को महसूस हो रहा है। पढ़िए, सोचिए, कुछ तो विचारिए।
ट्रेन में मुसलमान
मौमिता आलम-
मेरे अब्बा तलाश कर रहे हैं अपनी बेटियों को
वह अपनी बेटियों को भूल गए हैं!
उनकी बेटियां अब उन्हें बाबा पुकारती हैं,
अब्बा से बाबा
यह स्थिर मन से अस्थिर मन की एक यात्रा है!
एक भारतीय की ‘भारतीय’ बनने की बेहद कठिन कोशिश!
देने से पहले मिरी अम्मी
कई बार चेक करती है
भईया का लंचबॉक्स.
और वह
डब्बे पर बड़े बड़े अक्षरों में
मार्कर से लिख देती हैं
अंडा करी और ब्रैकेट में लिखती हैं (डीम-भात).
सुन्न पड़ जाती है वह जब कोई गलती से
अंडा करी को गोश्त समझ लेता है!
मेरा भईया
रोज़ लोकल ट्रेन में आना जाना करता है.
मेरी मां को नहीं पता
वे पालक साग को भी गोश्त समझने की
भूल कर सकते हैं!
मेरी भाभी उनकी दाढ़ी से खींच निकालती है हरेक बाल, इस क़दर के
मेरा भाई दर्द से चीखने लगता है.
वह खौफ़ में है के
किसी को उसके पति के नाम की
ख़बर न हो जाए!
खिड़की वाली सीट पर बैठे बैठे
मैं हरेक सहयात्री का करती हूं मुआयना
हर बार इंजन की तीखी आवाज़
मुझे सहमा देती है!
टीटी जब पूछता है मेरा नाम
मैं हौले से फुसफुसाती हूं अपना पहला नाम
‘मौमिता’.
ग़ैर ज़रूरी अपना सरनेम नहीं बोलती उस वक्त
‘आलम’!
बंद करके अपनी आंखें मैं दुआ करती हूं
के जल्दी से मेरा स्टेशन आ जाए!
लेकिन भाइयों!
मुझे किस भाषा में दुआ करनी चाहिये ?
-मौमिता आलम
Ramchandra Prasad
August 8, 2023 at 12:53 pm
सर तन से जुदा करने वालों पर क्या विचार है?