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साहित्य

मंदिर के लिए चंदा देने वाले उदय प्रकाश को ‘आजतक’ पर ठीक से खबर नहीं चलने का कष्ट है!

Uday Prakash-

कल सुबह शहडोल से रवि शुक्ल, जो स्वयं को रवेंद्रा शुक्ल भी कहलाते हैं, ‘आज तक’ चैनल से आए थे। वे मध्य प्रदेश के कई ज़िलों के ‘आज तक’ के मुखिया हैं। बहुत अच्छे, सहज और पारदर्शी युवा लग रहे थे। क्रेटा कार थी, जिससे उन्होंने बताया, वे नेपाल और लेह- लद्दाख और पता नहीं कहाँ कहाँ घूम चुके हैं। बाइक में हज़ारों किलोमीटर की यात्राएँ कर चुके हैं। डॉग लवर हैं। ज़रमनी का चप्पा-चप्पा घूमे हुए हैं। माल्टा में गरीब असहाय बच्चों को गोद दिलवाने का अंतराष्ट्रीय एनज़ीओ चलाते हैं।

उनके साथ अनूपपुर आज तक के युवा पत्रकार आदर्श द्विवेदी भी थे।

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दोनों ने चंदा प्रकरण पर इंटरव्यू लिया। इसके लिए वे कई दिनों से फ़ोन कर रहे थे। मैं इच्छुक नहीं था। फिर भी कल सुबह यह इंटरव्यू हुआ। सहज सरल आत्मीय-सी बात हुई।

आज कहीं से वह ‘तक MP’ का प्रसारित क्लिप देखने को मिला। उसमें मेरा नाम चंदे की रसीद वाला ही बोला जा रहा था- उदय प्रकाश सिंह।

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बहुत बुरी तरह से सम्पादित क्लिप था, जिसके अंत में टीवी का कोई एंकर कह रहा था कि Uday Prakash ने कई कई सालों से कुछ नहीं लिखा है। वे चुक गये हैं। उसे न तो ‘अम्बर में अबाबील’ की जानकारी थी, न ‘अंतिम नीबू’ की, जो उसी ‘इंडिया टुडे’ में बहु चर्चित कहानी थी, जिस Today ग्रुप का ‘आज तक’ चैनल है।

टीवी न्यूज़ चैनल इसीलिए जागरूक और सामान्य लोगो के लिए अविश्वसनीय और नियोजित झूठ फैलाने वाले चैनल बन कर रह गए हैं।

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ख़ैर, मुझे दुःख हुआ।

क्या अब कहीं सहज मनुष्यता नहीं बची है?

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क्या कट्टर जातिवादी आक्रमणों से देश की अन्य जातियाँ सुरक्षित रह पाएँगी?

मैंने कई कई बार पहले भी लिखा और कहा है कि शिक्षा-संस्कृति के संस्थानों के साथ और उससे पहले सूचना-संचार के संसाधनों में जाति संरचना में बदलाव बहुत ज़रूरी है।

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क्या किसी लेखक या नागरिक का कोई न्यूनतम गरिमापूर्ण एकांत अब सम्भव रह गया है?

अंत में : मुझे दुःख पहुँचा है रवि शुक्ल और आदर्श दुबे। ऐसा मैंने सोचा न था।

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Satyendra PS-

उदय प्रकाश करीब 45 साल से लिख रहे हैं। आहत लोगों को समझना चाहिए कि लोग अगर उनको इतना ही फॉलो करते तो दुनिया बहुत सुंदर हो चुकी होती।

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अब तो उन्होंने एक पर्ची चिपकाकर कह दिया कि भाड़ में जाओ। मैं हार गया।

और सबसे खूबसूरत बात है कि बुद्धिवादी प्रगतिशील विवेकवान समाज ने उनकी झौव्वन लिखी किताबों को नहीं पढ़ा।

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उसको छोड़िए। हाल में उन्होंने अंतिम नींबू नाम से कहानी लिखी, जो सम्भवतः किसी बड़े लेखक की कोरोना पर लिखी पहली कहानी है। उसमें उन्होंने पूंजीवादी साम्राज्यवाद को ही नहीं, उनके दलालों को भी धोया है जिन्होंने चीन के वुहान शहर में ही बैठक कर पूरे मानव मस्तिष्क को अपनी मुट्ठी में कर लेने की रणनीति बनाई थी, जहां से कोरोना-कोरोना शुरू हुआ।

लेकिन क्या फर्क पड़ता है? चंदे की पर्ची के पाठकों को यही सूट करता है कि वह चिल्ल पों मचाकर अपनी थोड़ी बहुत भड़ास निकालकर क्रांति कर लें। यह क्रांति भी चलती रहनी चाहिए, क्योंकि उससे सत्ता को लाभ ही होता है।

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उदय प्रकाश जैसे लोग साम्राज्यवाद, जातिवाद, धर्मवाद, जड़वाद के समर्थकों के लिए रिसते हुए घाव हैं, जो ठीक होने को तैयार ही नहीं हैं। पूंजीवादी, साम्राज्यवादी, बर्बर, अमानवीय, जातिवादी संस्कृति के फॉलोवर्स उन्हें कभी स्वीकार नहीं कर पाएंगे।

Uday Prakash को जाति, धर्म, मार्क्स, बुद्ध, राम, गोलवलकर या किसी भी विचार के खाके में रखकर नहीं समझा जा सकता। उनकी अपनी दुनिया है,अपना मस्तिष्क है। आप उनकी उस दुनिया को स्वीकार या अस्वीकार करने को स्वतंत्र हैं।

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आज उदय जी की और मेरी फ्रेंडवर्सरी है, ऐसा फेसबुक बता रहा है। आज के लिए बस इतना ही।

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