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साहित्य

वे किताबें जिन्होंने पुरानी धारणाओं को सम्पादित किया है!

रंगनाथ सिंह-

मानवीय ज्ञान परम्परा से जुड़ने और उसमें कुछ जोड़ने की अविराम यात्रा में कुछ पुस्तकें सीधी राह जैसी होती हैं तो कुछ पुरानी राह में आया नया मोड़ साबित होती हैं। कुछ किताबों से गुजरकर हमारे विचारप्रवाह की दिशा से बदल जाती है। पहले तरह की किताबों में नई सूचना देने वाली वाली किताबें होती हैं और दूसरी तरह किताबों वो होती हैं जो हमें नई सोच देती हैं। जो हमारी सोच को नया आकार प्रकार देती हैं। दूसरी तरह की किताबें हमें हमारी धारणाओं पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य करती हैं। समालोचन के इस स्तम्भ के लिए लिखते समय प्रयास है कि पिछले साल पढ़ी गयीं उन किताबों का जिक्र किया जाए जिन्होंने मेरी पुरानी धारणाओं को सम्पादित किया है।

1- अच्छी हिन्दी का नमूना और हिन्दी शब्दानुशासन – किशोरीदास वाजपेयी (ईपुस्तकालय डॉट कॉम से प्राप्त ईबुक्स)

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पिछले एक डेढ़ साल में जिन लेखकों की किताबों से गुजरना हुआ उनमें सबसे पहला नाम किशोरीदास वाजपेयी का लेना चाहूँगा। उनकी दो किताबें इस दौरान पढ़ीं और दोनों का प्रभाव शायद ताउम्र रहेगा. वाजपेयी जी की किताब ‘अच्छी हिन्दी का नमूना’ हिन्दी के विद्वान साहित्यकार रामचंद्र वर्मा की किताब ‘अच्छी हिन्दी’ की आलोचनात्मक समीक्षा करती है। एक शब्द में कहें तो यह किताब अपने कथ्य और शिल्प के लिहाज से अतुलनीय किताब है। मेरी जानकारी में ऐसी कोई दूसरी किताब नहीं है जिसने किसी अन्य किताब की भाषा इस तरह दुरुस्त की हो। रामचंद्र वर्मा द्वारा अच्छी हिन्दी लिखना सिखाने के लिए लिखी गयी किताब से उदाहरण ले-लेकर वाजपेयी जी ने वो सभी दोष उजागर किए हैं जो भाषा लेखन में सम्भव हैं। जिन्हें भी अच्छी हिन्दी लिखने का मन हो उन्हें किशोरीदास वाजपेयी की ‘अच्छी हिन्दी का नमूना’ जरूर पढ़ना चाहिए।

आचार्य किशोदीदास वाजपेयी की जो दूसरी किताब पढ़ी वो है- हिन्दी शब्दानुशासन। हिन्दी शब्दानुशासन को निस्संदेह हिन्दी की सर्वकालिक श्रेष्ठ किताबों में जगह दी जा सकती है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी संस्कृत के मर्मज्ञ विद्वान थे। उन्होंने अपनी इस किताब में हिन्दी व्याकरण की प्रमाणिक टीका की है। ‘हिन्दी शब्दानुशासन’ को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि इस किताब के माध्यम से यह प्रमाणिक तौर पर सिद्ध हुआ कि आम धारणा के विपरीत हिन्दी संस्कृत से निकली हुई भाषा नहीं है। यह सम्भव है कि हिन्दी और संस्कृत एक ही मूल से निकली हों लेकिन संस्कृत से घिस-घिसकर हिन्दी नहीं बनी है।

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इनसे पहले मैंने किशोरीदास वाजपेयी की लिखी कोई किताब नहीं पढ़ी थी। बस उनका नाम सुना था। व्याकरण पर उनके काम के बारे में सुना था। इन किताबों को पढ़कर महसूस हुआ कि वाजपेयी जी के जीनियस योगदान को हिन्दी पब्लिक स्फीयर में ज्यादा जगह दिया जाना चाहिए।

2- महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली – खण्ड एक (सम्पादक- भरत यायावर), किताब घर प्रकाशन

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बीते साल में अन्य जिस विद्वान से परिचय प्राप्त हुआ उनका नाम है आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी। हम सब सुनते आए हैं कि सरस्वती पत्रिका के माध्यम से महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी भाषा का उसका आधुनिक रूप देने में ऐतिहासक योगदान दिया है। द्विवेदी जी के कुछ फुटकर निबंध एवं उनके सम्पादन की चर्चा के अलावा उनके मौलिक लेखन से गुजरने का पहले कभी मौका नहीं मिला था। इस साल भरत यायावर द्वारा सम्पादित महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली के कुछ खण्ड पढ़ने का इरादा किया है। पहला खण्ड पढ़ लिया है जिसमें द्विवेदी जी द्वारा हिन्दी भाषा के स्वरूप एवं इतिहास इत्यादि से जुड़े लेख हैं। पहले खण्ड में द्विवेदी दी द्वारा सम्पादित लेखों के नमूने भी दिए हुए हैं जिनसे हम भाषा को बेहतर तरीके से लिखने के शऊर सीख सकते हैं।

हिन्दी भाषा के छात्र जानते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग को स्वतंत्र युग की तरह देखा जाता है। द्विवेदी जी ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा था कि संस्कृतनिष्ठ हिन्दी भी उतनी ही अहिन्दी है जितनी कि फारसीनिष्ठ हिन्दी होती है। महावीर प्रसाद द्विवेदी भी हिन्दी के उसी रूप को अच्छी हिन्दी मानते हैं जिसे भारतेंदु ने अच्छी हिन्दी माना था। यह नुक्ता मेरे लिए इसलिए उल्लेखनीय लगता है कि क्योंकि हिन्दी-उर्दू से जुड़ी बहस में गैर-हिन्दी विद्वान अक्सर ‘हिन्दी इलीट’ पर संस्कृतनिष्ठता का आरोप लगाते रहते हैं। मेरे सामने प्रश्न यह है कि हिन्दी पर बहस में जो लोग हिन्दी इलीट के प्रतिनिधि के तौर पर प्रस्तुत किए जाते हैं और उनकी राय पॉलेमिक के लिए इस्तेमाल की जाती है क्या वह सही मायनों में हिन्दी भाषा के प्रतिनिधि स्वर कहे जा सकते हैं। यदि हिन्दी भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी की दिखायी राह पर चली है तो फिर उनके विचार को हिन्दी का केंद्रीय विचार क्यों न माना जाए?

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3- सावरकर की जीवनी (खण्ड एक एवं दो) – विक्रम सम्पत, (पेंगुइन हिन्द पॉकेट बुक्स)

विनायक दामोदार सावरकर के राजनीतिक विचारों में यकीन रखने वाली भारतीय जनता पार्टी जब से देश की राजनीति में मजबूत हुई है तब से सावरकर जिरह के केंद्र में । पिछले तीन दशकों में सावरकर पर किए गए आलोचनात्मक लेखन की प्रचुर मात्रा से साफ हो जाता है कि सावरकर की स्थापनाएँ वापस से अन्य प्रतिद्वंद्वी विचारधाराओं को चुनौती दे रही हैं। सावरकर का खण्डन करने वाला ज्यादातर उनपर दो एंगल से आलोचना करते हैं। एक- उनके समर्थक और सहयोगी रहे नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या करने के एंगल से और दूसरा, उनके द्वारा कालापानी की सजा काटने के दौरान सजा माफी के लिए लिखे गए पत्रों के एंगल से।

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वीर और माफीवीर के दो पाटों के बीच फँसे सावरकर को समझने के लिए विक्रम सम्पत की दो खण्डों में लिखी जीवनी अच्छा स्रोत है। जीवनी का पहला खण्ड सावरकर के आरम्भिक जीवन से लेकर 1924 में जेल से रिहा होने तक के कालखण्ड पर है। दूसरा खण्ड उनके जेल से रिहा होकर 1937 तक नजरबन्दी में रहने और उसके बाद के कालखण्ड पर केंद्रित है।

इस जीवनी को पढ़ने से पहले तक वीर सावरकर के जीवन के पहले कालखण्ड से काफी हद तक परिचय था लेकिन जेल से रिहा होने के बाद सावरकर ने क्या किया, इस बारे में विस्तृत ब्योरा इस किताब से मिला। जीवन के दूसरे खण्ड से पता चलता है कि सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद सावरकर ने जातिगत भेदभाव और छुआछूत दूर करने को मिशन मोड में अपनाया था। सावरकर के अनुसार ‘हिन्दू समाज’ सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। इन बेड़ियों में छुआछूत, गैरजाति में विवाह और गैर-ब्राह्मणों के वेद पठन-पाठन पर पाबन्दी भी बेड़ियों के रूप में शामिल थे। जाहिर है कि सावरकर के ये विचार अभी सार्जवनिक विमर्श में ज्यादा जगह नहीं पाते लेकिन जातीय अस्मिता की राजनीति के दौर में सावरकर के ये विचार ज्यादा समय तक दरकिनार नहीं किए जा सकेंगे।

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4- नासिर काजमी ध्यान यात्रा (सम्पादन- शरद दत्त, बलराज मेनरा), सारांश प्रकाशन

प्रगतिशील हिन्दी लोकवृत्त से नासिर काजमी लगभग नदारद से शायर हैं। हिन्दी लोकवृत्त में मीर, गालिब, दाग, फिराक, जिगर, जोश फैज, फराज इत्यादि का ही जोर है। जाहिर है कि आजादी से पहले के क्लासिक उर्दू शायर और आजादी के बाद तरक्कीपसन्द तहरीक से हमख्याली जाहिर करने वालों उर्दू शायर हिन्दी लोकवृत्त में ज्यादा चर्चा पाते रहे हैं। नासिर काजमी की वैचारिक लोकेशन ही नहीं शारीरिक लोकेशन भी हिन्दी लोकवृत्त के लिए मुफीद नहीं बैठती। नासिर काजमी पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दी शायर हैं और अपना तार्रूफ प्रगतिशील के तौर भी नहीं कराते तो उनतक नजर न जाना कोई अनहोनी नहीं लगती। उर्दू शायरी में गहरी रुचि होने के बावजूद कोरोनाकाल से पहले तक मुझे इसका ज्यादा इल्म नहीं था कि नासिर काजमी की उर्दू साहित्य में क्या वखत है।

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जिस चीज ने नासिर काजमी की तरफ मुझे खींचा वो है उनकी भाषा का हिन्दीपन। उर्दू साहित्य में मीर बड़े या गालिब, की बहस चर्चित है। इस बहस की गलियों से गुजरते हुए ही एक दिन नासिर से भेंट हो गयी। इंटरनेट पर मौजूद नासिर साहित्य खोजकर पढ़ने लगा। उनके बारे में इंटरनेट पर मौजूद वीडियो सुनने लगा। प्रोफेसर शमीम हनफी के एक व्याख्यान से मालूम हुआ कि नासिर भी मीर के शैदायी थे। इसी दौरान वरिष्ठ पत्रकार आनन्द स्वरूप वर्मा के यहाँ जाना हुआ। जब उन्हें पता चला कि मैं नासिर काजमी का साहित्य खोज रहा हूँ तो उन्होंने यह किताब (नासिर संचयन) मुझे पढ़ने के लिए दे दी।

पहली बार में नासिर काजमी की कविता की डगर से चारों तरफ नजर फेरते हुए गुजर गया हूँ लेकिन इस अहद के साथ की उनपर फिर लौटूँगा। ऊपर मैंने कहा कि नासिर काजमी के हिन्दीपन ने मेरा ध्यान खींचा था। इसका एक नमूना देखिए,

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ध्यान की सीढ़ियों पे पिछले पहर।

कोई चुपके से पाँव धरता है।।

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एक दूसरा नमूना देखिए,

हमारे घर की दीवारों पे नासिर।

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उदासी बाल खोले सो रही है।।

5- शृंखला की कड़ियाँ – महादेवी वर्मा

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छायावाद के चार प्रमुख स्तम्भों में एक महादेवी वर्मा की कविताओं और निबंधों से परिचित था लेकिन उनके वैचारिक लेखन से ज्यादा परिचय नहीं था। प्रोफेसर दिलीप शाक्य की अनुशंसा पर यह किताब पढ़नी शुरू की और पढ़कर दंग रह गया कि महादेवी वर्मा नारीवादी मसलों पर 1930 के दशक में गम्भीर चिंतन कर रही थीं। इस निबंध से पता चलता है कि महादेवी वर्मा परम्परा और आधुनिकता के बीच रहगुजर बनाने का प्रयास करते हुए नारीवादी चुनौतियों से वाकिफ थीं। इस किताब को पढ़ते हुए यह पता नहीं चलता है कि महादेवी समकालीन यूरोपीय स्त्री विचारकों के लेखन से कितनी परिचित थीं। अपने लेखों में वह किसी विचारक का नाम नहीं लेतीं लेकिन यह देखना रोचक होगा कि पश्चिमी नारीवादी विचारकों की परम्परा के समानांतर पूरबी स्त्री चिंतकों (रुकैया बेगम, रशीद जहाँ और महादेवी इत्यादि) की कोई स्वतंत्र धारा तैयार होती है या नहीं।

6- वे सोलह दिन: नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन, त्रिपुरदमन सिंह (पेंगुइन प्रकाशन)

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इतिहासकार त्रिपुरदमन सिंह की किताब भारतीय संविधान में हुए पहले संशोधन की पृष्ठभूमि एवं उसको लेकर हुई बहस पर केंद्रित है। आजाद भारत के संविधान को स्वीकार करने के 15 महीने बाद ही प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं उनके मंत्रिमण्डल के अहम सदस्यों को इसमें संशोधन की जरूरत महसूस हुई। इस संशोधन की राह अदालती फैसलों ने तैयार की। आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन, राजद्रोह की अवधारणा, आरक्षण और मीडिया की आजादी से जुड़े मसलों पर विभिन्न हाईकोर्टों द्वारा आए फैसले तत्कालीन केंद्र सरकार के नजरिए से मेल नहीं खाती थी। अदालत के फैसले कांग्रेस के जनता से किए वादों के खिलाफ जाते दिख रहे थे। नेहरू जी एवं उनके समर्थकों का मानना था कि संविधान में संशोधन ही इस समस्या से निदान दिला सकते हैं। वहीं उनके आलोचकों का मानना था कि सरकार संविधान संशोधन करने में जल्दबाजी कर रही है।

यह संशोधन कितना अहम था इसे इससे समझें कि त्रिपुरदमन सिंह के अनुसार संविधान विशेषज्ञ उपेंद्र बख्शी ने इसे संविधान का पुनर्लेखन बताया है। यह किताब न केवल भारत के संवैधानिक इतिहास के बेहद अहम अध्याय को हमारे सामने रखती है बल्कि इसका एक सिरा वर्तमान से सीधे तौर पर जुड़ता है क्योंकि पिछले कुछ समय से न्यायपालिका और विधायिका के बीच वैसा ही टकराव देखने को मिल रहा है जैसा पहले संविधान संशोधन के समय दिख रहा था। यह जानना रोचक है कि उस समय नेहरू सरकार संसद की सर्वोच्चता की जो दलील दे रही थी, वही दलील आजकल मोदी सरकार दे रही है। उस समय संसद के रास्ते न्यायपालिका के फैसलों को पलटने के खिलाफ जो दलील श्यामा प्रसाद मुखर्जी दे रहे थे, कमोबेश वैसी ही दलील आज कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल दे रहे हैं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ही 1951 में भारतीय जनसंघ नामक राजनीतिक दल की स्थापना की थी जो बाद में भारतीय जनता पार्टी के नाम से जाना गया।

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समालोचन’ में प्रकाशित टिप्पणी.


वीरेंद्र यादव-

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‘समालोचन’ ने पूछा तो जाते वर्ष पढ़ीं गई जिन किताबों का उल्लेख किया वे निम्नवत् हैं-

1-बस्तर बस्तर-(उपन्यास) -लोकबाबू
2- मौसी का गाँव- (उपन्यास) प्रह्लाद चंद्र दास.
3- दातापीर (उपन्यास) -हृषिकेश सुलभ.
4- कर्बला दर कर्बला (उपन्यास) – गौरी नाथ.
5- रामभक्त रंगबाज़ (उपन्यास) – राकेश कायस्थ
6- ढलती सांझ का सूरज (उपन्यास) -मधु कांकरिया
7- कीर्तिगान (उपन्यास) -चंदन पांडेय.
8- सुखी घर सोसायटी (उपन्यास) – विनोद दास.
9- हुकुम देश का इक्का खोटा (संस्मरण) — नीलाक्षी सिंह.
10- अक्स (संस्मरण) – अखिलेश.
11- मेम का गाँव गोडसे की गली(संस्मरण) – उर्मिलेश.
12- सीता बनाम राम (गैरकथात्मक ) -नारायण सिंह
13- पी. वी. रामासामी नायकर (जीवनी) – ओमप्रकाश कश्यप.
14- पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली–सं-धर्मवीर यादव ‘गगन’
15- संतराम बीए ( चुनी रचनाएँ) – सं-महेशचंद्र प्रजापति.
16- Writer, Rebel, Soldier, Lover- The many lives of Agyeya (Biography) – Akshay Mukul.
17-Kabir, Kabir(Life &Work) -Purushottam Agarwal.
18-Fractured Freedom (Memoirs) -Kobad Ghandi.
19-Tagore & Gandhi –Rudrankshu Mukherjee.

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इस सूची में वें किताबें नहीं शामिल हैं, जिन्हें अपने काम करने या स्वांत: सुखाय के सिलसिले में दुबारा पढ़ना पड़ा, इनमें टैगोर की ‘गोरा’ व ‘घर बाहर’ सहित हिंदी अंग्रेजी की कुछ और पुस्तकें शामिल हैं.

लेकिन मन में खलिश बाकी है कई उन किताबों के न पढ़ पाने की जिन्हें मैं जरुर पढ़ लेना चाहता था. यह सूची पढ़ ली गई किताबों से कम उल्लेखनीय नहीं है. नए वर्ष में इन्हें पढ़ लेना प्राथमिकता होगी. इस अवसादकारी सामाजिक- राजनीतिक समय में पुस्तकों का यह समृद्ध परिवेश आश्वस्तकारी व आनंददायक है.

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