प्रभात शुंगलू-
एक पत्रकार की मौत…. मेरा मानना है कि किसी की मौत पर त्वरित संवेदना जताने के लिए ये शर्त रखना कि बिना उसे उसके काम को कोसे हमारी श्रद्धांजली पूरी नहीं होगी, ये भी संवेदनहीनता और false ego की पराकाष्ठा है। और मेरे कई साथी पत्रकार मित्र, वरिष्ठ और अनुज, अलग अलग मौकों पर ऐसी संवेदनहीनता का मुज़ाहिरा करते रहे हैं।
फ़ेसबुक पर ऐसी संवेदनहीन टिप्पणियाँ करने वाले ज़्यादातर विचारधारा टाइप के लोग हैं। याद रखियेगा, अच्छे, नेक विचार रखना, हर परिस्थितियों में उसका ईमानदारी से पालन करना और ख़ुद को एक राजनीतिक विचारधारा के खूँटे से बांधे रखना दो बिल्कुल जुदा चीजें हैं, जिनके मायने बिल्कुल अलग हैं। संवेदना के ऊपर विचारधारा का हावी होना, यानि खुद संवेदनहीन हो जाना। विचारधारा संवेदनहीन कर देती है। इधर और उधर दोनों तरफ वालों को।
क्योंकि ऐसा नहीं था कि गोदी मीडिया से जुड़े पत्रकारों के बारे में लिखा न गया हो। सच पूछिये तो सोशल मीडिया पर गोदी मीडिया पर सबसे अधिक शाब्दिक प्रहार होता रहा है। उनके काम काज की, उनके तौर तरीके, उनके एजेंडे की ज़बरदसत्त आलोचना होती रही है। और ईमानदार आलोचना होती रही है।
न्यूज़ चैनलों की दुनिया में कैसा सांप्रदायिक एजेंडा चल रहा और उन चैनलों के सो कॉल्ड धुरंधर ऐेकर कैसे उस एजेंडे को और ज़हरीला बन रहे, बतौर पत्रकार मैं देखता रहा हूँ और उसपर टिप्पणी भी करता रहा हूँ। मेरे YouTube channel The NewsBaaz पर तो मेरी रोज़ की न्यूज़बाज़ी के अलावा गोदी मीडिया का पोस्टमॉर्टम करता एक साप्ताहिक मीडिया शो है – न्यूज़ का नॉनसेंस – जिसके बीस-बाइस एपिसोड बना चुका हूं। इन सभी शो में मैंने कई ऐसे ज़हरीले ऐंकरों के काम को लेकर मैने तफ्सील से बेबाक टिप्पणी की है। वैसे तो आठ साल पहले हिंदी न्यूज़ चैनलों की बदसूरत होती दुनिया पर मेरा अंग्रज़ी उपन्यास भी छप चुका है – Newsroom Live.
लेकिन किसी को संसार से विदा लिये कुछ घंटे ही हुए और आप फिर उसी आलोचना वाले मूड में आ गये। भई, प्रॉब्लम क्या है आपकी। ऐसे मौके पर जब एक युवा पत्रकार कोरोना और व्यवस्था के चलते हमारे बीच से चला जाये, तब भी आप उसकी पत्रकारिता को कोसने से बाज़ नहीं आये। केवल परिवार के प्रति संवेदना जताने से क्या आपका ईगो कॉम्प्रोमाइज़ हो जाता, आप आईडिऔलिजी की CT Value ज्यादा हो जाती है। और संवेदना नहीं जता सकते थे, तो मत जताते। संवेदना के दो प्यार भरे शब्द नहीं बोल सकते, तो मत लिखते कुछ भी। ये हक भी आपके पास था। आपके आधार कार्ड पर नंबर फिर भी वही रहता।
भारतीय मीडिया पर और उसके मौजूदा तेवर पर विचार आगे किसी संगोष्ठी, अपनी नई किताब, किसी रिसर्च लेख, किसी स्तंभ, किसी टीवी शो, किसी सेमिनार के लिये भी सुरक्षित रखे जा सकते हैं। वहां पर आप पेशे से जुड़े नामचीन लोगों का उदाहरण भी दे सकते थे। मौजूदा या रूख्सत हुए, दोनो शख्स। क्योंकि वहां मौका होता पेशे की समालोचना करना।
किसी की मौत पर सिर्फ संवेदना प्रकट करना क्या आपको ओछा लगता है। आपके इंसानी जज्बातों में क्या किसी के गरिमा, सम्मान, डिगनिटी की को कोई अहमियत नहीं। मरने वालों के लिये भी नहीं। हद्द है। भई, आपके जीवन के शब्दकोश में कहीं कोई प्रेम, प्यार की जगह नहीं। आप तो बस खाप व्यवस्था की तरह आदेश सुनाने वाली उस कड़ी का हिस्सा हैं जिसके लिये बस रीति रिवाज़ों ( और आपके केस में विचारधारा ) के आगे इंसानी जज्बात की कोई कद्र नहीं।
थोड़ा सवेरे सवेरे उठकर कुमार गंधर्व के निर्गुण भी सुन लिया करो, बंधु। कहीं ऐसा तो नहीं कि कुमार जी का गायन भी आपकी विचारधारा में आड़े आता है।
खैर, मुझे तो वो इमोशन भी फेंक लगे जो लोग न्यूज़ चैनलों पर घड़ों आंसू बहाते दिखे। हो सकता है उन्होंने अपना दोस्त खोया हो, लेकिन वही लोग अपने कोरोना संक्रमित बीमार पड़े साथियों को एक टेलिफोन करके खोज ख़बर भी नहीं लेते। मदद करने की बात तो दूर। इसलिये प्राइम टाइम वाले वो आंसू दरअसल घड़ियाली आंसू हैं। आंसू बहाने वाले ये लोग दरअसल संवेदनहीनता की ऊपरी पायदान पर हैं।
दरअसल ये लोग चाहते हैं सरकार उनके आंसू देखे क्योंकि लोक कल्याण मार्ग से श्रद्धांजली की ट्वीट गयी था। इनके आंसू उस कल्याण मार्गी के लिये हैं, कि देखिये हम हैं आपके लिये।
इसलिये जो प्राइम टाइम पर घड़ियाली आंसू बहाते दिखे और वो जो कल्याण मार्गी हैं, दोनो संवेदनहीन लोग हैं। विचार शून्य। विचारधारा शून्य नहीं।
लोक कल्याण मार्ग से श्रद्धांजली का ये ट्वीट पहले कभी देखा क्या। कोरोना के इस संकट काल में कितने पत्रकार साथी अपना काम करते शहीद हो गये। कल एक पत्रकार साथी की लाश लखनऊ में उसके परिवार वाले तक क्लेम करने नहीं आये। पुलिस वालों ने कंधा दिया। केवल लखनऊ में इस संक्रमण के दौरान सोलह पत्रकार मर चुके हैं। कहीं से कोई कल्याण मार्गी ट्वीट, संवेदना दिखी क्या आपको।
देश के हर अख़बार और न्यूज़ चैनल के दफ़्तरों में ऐसे हज़ारों पत्रकार साथी हैं जो रोज़ अपनी जान की बाज़ी लगा कर फ़ील्ड में उतर रहे, चुनाव से लेकर अस्पतालों के बाहर मरीज़ों और व्यवस्था की जाँच-पड़ताल कर रहे। उनके भी परिवार हैं। वो भी अपने पेश के प्रति सजग और ईमानदार हैं।
लेकिन उनको ती पीपीई किट भी नहीं दिया जा रहा, उनका कोई इंश्योरेंस तक नहीं। राष्ट्रवादी पत्रकारों को भी नहीं। ये राष्ट्रवाद के कोल्हू में जुते बैल हैं बस।
पत्रकारों को अगर फ्रंटलाइन वर्कर मानते हुए वैक्सीन दी गई होती, तो कई पत्रकार साथी बच गये होते। लेकिन राष्ट्रवादी विचारधारा समाज की भलाई के हमेशा आड़े आई है। ये बात न सरकार समझ रही न गोदी पत्रकार। दोनो घड़ियाली आंसू बहा रहे। नौटंकी हो रही।
मेरा मानना है कि ऐसे सभी पत्रकार दरअसल संवेदनहीन होते हैं, इसलिये अच्छे इंसान भी नहीं हो सकते। क्योंकि आप तो इंसानों में, अपने ही देश के नागरिकों में फर्क कर रहे। समाज में दूरियां और दरार डाल रहे। किसी के धर्म, मजहब, तौर-तरीके, खान-पान, पहनने-ओढ़ने सब को उस नज़र से देख रहे जो देश के संवैधानिक मूल्यों से बिल्कुल उलट है। पत्रकारिता के पहला उसूल है फैक्ट, आप फिक्शन बांच रहे। पत्रकारति का उसूल है सिस्टम की खामियां उजागर करे। आप सिस्टम से गलबहियां ही नही कर रहे, उसके भोंपू ही नहीं बन रहे बल्कि खुद सिस्टम का हिस्सा होने की तमन्ना पाल रहे।
और इसमें उन पत्रकारों के मालिकान भी उतने ही कुसूरवार। उनको पत्रकार नहीं मुलाज़िम चाहिये, मुंशी। और आजकल मुंशी वो मदर इंडिया वाला नहीं, फटी बंडी पहने, नाक पर गोल चश्मा लगाये, हाथ में बही खाता लिये, गांव गांव ब्याज वसूली करता हुआ। आज के न्यूज़ चैनल का मुंशी खुद को पत्रकार कहलाना पसंद करता है। वो बंडी नहीं पहनता, थ्री पीस, कोट टाई, जेल लगे हुए बाल और हाथ में लैपटॉप या आईपैड रखता है। जिसमें टीआरपी की एक्सल शीट होती है। वो अपने हर ब्योरो, रिपोर्टर से टीआरपी की वसूली करता है। शर्त सिंपल है, कल्याण मार्ग पर निगाह मत उठाना। एक और बात टीवी प्राइम टाइम पर दिखने वाले इन मुंशियों की जुंबां केसरी है।
मेरे किसी संपादक ने एक बार कहा था, अच्छा पत्रकार बनने के लिये अच्छा इंसान होना ज़रूरी शर्त हैं। हालाँकि वो संपादक महोदय ख़ुद इसका पालन करने में अक्सर चूक जाते थे। चूँकि वो ‘मार्केट’ को अच्छी तरह समझने लगे थे।
ये नया वाला मार्केट तो राष्ट्रवादी ताकतों और धन कुबेरों का बनाया मार्केट है। यहां भक्ति है, अंध भक्ति। और ये सब अंधे कुएं में बैठे हैं, और आपको हमें इसी कुएं में खींच रहे। कोरोना से बचो और इनसे भी। और उनसे भी बचो जो आपसे आपके इमोशन, आपकी संवेदना छीन लेना चाहते हैं। आपको संवेदनहीन बना देना चाहते हैं। संवेदनहीनता के व्यापार में ऑक्सीडन सिलेंडर और रेमडिसिविर की तरह काला बाज़ारी हो रही। मालूम है न, दोनो जान बचाते हैं।
Amit Nehra
May 1, 2021 at 4:22 pm
प्रस्तुत लेख में उतनी ही सच्चाई है
जितनी खाप व्यवस्था को लेकर कमेंट किया गया है। खाप व्यवस्था के तपे-थाम्बे आदि बारीकियों को लेकर जो व्यक्ति खाप व्यवस्था को समग्र रूप से जानता हो कृपया वही जवाब दें।