Abhishek Upadhyay-
War Diary (Israel) युद्ध से हाथ छुड़ाकर लौट रहा हूँ अब। पिछले तीन सालों में तीसरा युद्ध है ये। युद्ध अब हथेलियों पर उग आया है। हाथ की लकीरों के जंगल में एक गाढ़ी लकीर ने नया घर बसा लिया है। ये युद्ध की लकीर है। आर्मीनिया-अज़रबैजान के युद्ध में मैंने इसे जन्मते देखा था। मेरे यूक्रेन पहुँचने तक ये लकीर किशोरावस्था की दहलीज़ पार कर चुकी थी और अब इज़रायल में इसे जवान हुए धान की बालियों सरीखा लहलहाते देखा है। अब यही इसकी नियति है। युद्ध कभी बूढ़ा नहीं होता। उसकी कभी मौत नहीं होती। वो मृत्युंजय होता है। किसी फ़ीनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से जन्म लेता हुआ।
मैं एक ऐसे देश को छोड़कर लौट रहा हूँ जिसके लिये युद्ध ऑक्सीजन की तरह है। ये देश युद्ध में ही साँस लेता आया है। यहाँ रहते हुए मुझे भारी साँसें खींचने की आदत सी हो गई है। मानो साँस की ज़मीन पर कोई टैंक सा दौड़ रहा हो! कभी कभी साँसे भीतर ही भीतर चुभने लगती हैं। मानो आसमान में उड़ रही कुछ उम्मीदें किसी आर्टिलरी अटैक की चपेट में आकर बुरी तरह ज़ख़्मी हुई हों और साँस की पगडंडी पर दूर तक घिसटती चली गई हों!!
युद्ध में घिरे इस देश में पहले ही दिन गाज़ा बॉर्डर के जिस पहले शहर को देखा, वो स्मृतियों को अभी तक कचोट रहा है। युद्ध शहरों को खंडहर बना देता है और खंडहरों में नए शहर आबाद हो जाते हैं। गाजा बॉर्डर से सटे हुए स्डेरोट नाम के इस शहर का यही हाल है। इस शहर में सड़कें, इमारतें, मकान, गलियाँ सब ज्यों की त्यों हैं पर यहाँ जीवन खंडहर हो चला है। साल 2017 में भी यहाँ आया था। पर ये शहर तब आबाद था। अब यूँ सूनसान पड़ा है मानो ज़िंदगी का लोन न चुका पाने के चलते रातों रात घर से बेदख़ल कर दिया गया हो। मुझे इसकी देह पर जगह जगह आतंकी हमले के ज़ख़्म दिखाई पड़ते हैं। कुछ ज़ख़्म तो इतने गहरे हैं कि समय के साथ घाव भरने की कहावत ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं। वक़्त बेबस सा खड़ा अपनी लाचार आँखों से उन्हें देखे जा रहा है। वह चाहकर भी उनकी प्लास्टिक सर्जरी नहीं कर सकता है। आशंकाओं की मेडिकल काउंसिल ने बिना कोई कारण बताए ही उसके नर्सिंग होम का लाइसेंस जो रद्द कर दिया है!!
रह रहकर दिल हदस सा जाता है। एक के बाद दूसरे रॉकेट हमलों की आवाज़ें चीखने सी लगती हैं। एक के बाद एक ज़ोरदार धमाके। ये धमाके इतने क़रीब हैं कि कभी कभी तो लगता है कि मेरे कान के पर्दों को छीलते हुए निकल जाएँगे। मैं आनन फ़ानन में नज़दीक के बंकर की तरफ़ भागता हूँ। मगर यहाँ भी उनकी आवाज़ का बारूद कम नहीं होता। शायद उन्होंने पहले से ही पूरे शहर की तलाशी ले रखी हो। जैसे वे एक एक बंकर को पहचानते हों और बंकर के भीतर घुसकर इंसान से मुलाक़ात करने का हुनर भी जानते हों। सामने ग़ाज़ा के आसमान में बारूदी धुएँ का ग़ुबार दिखाई दे रहा है। रॉकेट आ रहे हैं। मिसाइलें जा रही हैं। हर कोई भाग रहा है यहाँ। बस एक वक़्त ही ठहरा हुआ है। उसने मिसाइल हमलों में पैर खो दिये हैं शायद!!!
लेखक एबीपी न्यूज के पोलिटिकल एडिटर हैं.
साभार- फेसबुक