
द प्रिंट की खबर पर न्यायमूर्ति काटजू का एतराज सहमत होने लायक नहीं है… न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने न्यायमूर्ति सीकरी मामले में अंग्रेजी में फेसबुक पर एक पोस्ट लिखा है। इसका शीर्षक अगर हिन्दी में लिखा जाए तो ये होगा- ‘क्या भारतीय मीडिया को शर्म नहीं है?’ इस पोस्ट में उन्होंने कहा है न्यायमूर्ति सीकरी के मामले में खबर पूरी सच्चाई को दबाने और पूरी तरह गलत तथ्य पेश करने का दोषी है। इसके बाद उन्होंने तथ्य बताया है। तथ्य क्या है। क्या गलत है। अंत में कहा है, न्यायमूर्ति सीकरी ने कल सीएसएटी में जाने की अपनी सहमति वापस ले ली। अगर मीडिया में कोई शर्मा शेष है तो वे अब न्यायमूर्ति सीकरी से माफी मांगें, जिनकी छवि उन लोगों (मीडिया) ने खराब करने की सर्वश्रेष्ठ कोशिश की।
यहां रिटायरमेंट के बाद पद दिए जाने और उसे स्वीकार किए जाने की बात सही है और यह लगभग सबने लिखा था कि यह पेशकश पहले की गई थी। यह सूचना अगर पहले से सार्वजनिक होती तो भी आलोक वर्मा के मामले में कार्रवाई के बाद याद दिलाने के लिए दी जा सकती थी. लेकिन सूचना सार्वजनिक नहीं थी। इसलिए खबर किसी भी तरह से गलत नहीं है। खबर के जो मतलब लगाए जा सकते हैं वह पाठक लगाता ही है और इसके लिए ना कोई खबर रोकी जाती है ना की जाती है। इसी तरह कोई भी खबर तभी की जाएगी जब मिलेगी या उसका मतलब होगा। इस लिहाज से कल की न्यायमूर्ति सीकरी की खबर में कुछ भी गलत नहीं है।
द प्रिंट के शीर्षक का अनुवाद होगा, आलोक वर्मा की किस्मत तय करने वाला वोट देने वाले न्यायमूर्ति सीकरी को ऊंचे ओहदे के लिए मोदी सरकार की सहमति मिली। अंग्रेजी में प्लम लिखा है और इसका मतलब यही होता है। अंग्रेजी के प्लम शब्द के लिए कई शब्दों में एक हरदेव बाहरी की डिक्सनरी में अमूल्य वस्तु भी है। इस लिहाज से बहुत अच्छी नौकरी कहा जा सकता है। और, बहुत अच्छी नौकरी क्या होगी, सबको पता है। यह सापेक्ष है। किसी के लिए एक नौकरी बहुत अच्छी हो सकती है, वह दूसरे के लिए बहुत अच्छी हो सकती है। एक व्यक्ति जिस नौकरी को छोड़ सकता है, उसके लिए दूसरा लालायित रह सकता है। इसलिए प्लम पोस्टिंग कहना गलत नहीं है। वैसे भी, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज द्वारा स्वीकार किए जाने वाले पद को साधारण नहीं कहा जा सकता है। द वायर ने हिन्दी में शीर्षक लगाया था, “आलोक वर्मा को हटाने का फैसला करने वाले जस्टिस सीकरी को मोदी सरकार ने दिया बड़ा ओहदा”।
आइए, अब देखें कि न्यायमूर्ति काटजू क्यों इसे बड़ा ओहदा नहीं मानते हैं। उन्होंने लिखा है, ”इसकी नियमित आधार पर कोई बैठक नहीं होती है और इसके सदस्य स्थायी तौर पर इंग्लैंड में नहीं रहते हैं। वे टिब्यूनल में तभी जाते हैं जब कोई किसी मामले पर फैसला करना होता है। आमतौर पर ऐसा साल में 2-3 बार होता है। सदस्यों को कोई नियमित वेतन नहीं दिया जाता है।”
लेकिन सवाल यह है कि साल में 2-3 बार लंदन जाने का मौका ही ऊंचा ओहदा नहीं है क्या? वो भी रियाटरमेंट के बाद। खास कर उस देश में जहां रिटायर कर चुके कई लोग एक बार भी लंदन नहीं गए हैं। ना आधिकारिक दौरे पर ना निजी यात्रा पर।
लेखक संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक हैं. उनसे संपर्क anuvaad@hotmail.com के जरिए किया जा सकता है.