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साहित्य

वनमाली नवलेखन विशेषांक : कालिया जी के काम को कुणाल आगे लेकर जाएंगे!

फ़िरोज़ ख़ान-

वनमाली कथा नवलेखन विशेषांक – एक

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कई साहित्यिक और असाहित्यिक पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांक आते रहते हैं, लेकिन पिछले 20 साल में जो सबसे ज्यादा चर्चित नवलेखन विशेषांक रहा, वह है रवींद्र कालिया जी के संपादन में 2004 में आया वागर्थ का नवलेखन विशेषांक। इन दिनों कुणाल सिंह के संपादन में वनमाली कथा का नवलेखन विशेषांक आया है, तो कई लोग कालिया जी को याद कर रहे हैं। उनका याद किया जाना लाज़िमी भी है। वह यों भी कि हिंदी कथा की 2000 के बाद की जो पीढ़ी है, उसमें सबसे चर्चित और स्टार कहानीकार 2004 में आए वागर्थ के नवलेखन विशेषांक से निकले हैं। उस अंक में हमने चंदन पांडेय की कहानी ‘परिंदगी है कि नाकामयाब है’, मनोज पांडेय की कहानी ‘चंदू भाई नाटक करते हैं’, मोहम्मद आरिफ की कहानी ‘लू’, जितेन्द्र विसारिया की ‘हाथी’, कुणाल सिंह की कहानी ‘सनातन बाबू का दाम्पत्य’ और विमल चंद्र पांडेय की कहानी ‘डर’ पढ़ी थी। उस अंक में और भी कहानियां रही होंगी, चूंकि मुझे यही याद आ रही हैं तो इनके हवाले से उस वक्त भी लग रहा था कि ये कहानी की दुनिया में वे आवाजें हैं, जिन्हें देर तक सुना जाएगा।

वनमाली के नवलेखन विशेषांक की अभी कुछेक कहानियां पढ़ी हैं और लग रहा है कि कालिया जी के उस काम को कुणाल आगे लेकर जाएंगे। मुझे नहीं पता कि अपने लेखकों के साथ कुणाल के संबंध किस तरह के हैं। नए लेखकों में जहां चिंगारी दिखती है, वहां कितना घी डालते हैं, कितना संवाद करते हैं, कितनी जिद करके लिखवाते हैं और कितना हौसला देते हैं। कालिया जी मेरे संपादक नहीं रहे हैं, लेकिन उनके बारे में सुनते हैं कि वे यह सब काम खूब करते थे। हिंदी के दो मूर्धन्य संपादकों ज्ञानरंजन जी और अखिलेश जी के अलावा कुछ और भी मेरे संपादक रहे हैं। हालांकि यह मेरी दबी हुई इच्छा रही थी कि कालिया जी मेरे संपादक होते तो लिखने का एक अतिरिक्त सुख शायद मेरे हिस्से आता।

बहरहाल, वनमाली के इस अंक की जो कहानियां पढ़ी हैं, उनमें से जिस एक कहानी का जिक्र आज कर रहा हूं, वह पल्लवी पुंडीर की कहानी ‘अनादृता’ है। इस कहानी का जिक्र सिर्फ और सिर्फ एक वजह से कि इसकी नायिका अन्वी जिस आदमी को जी भर के देख ले, वह अपनी पूरी ‘मर्दानगी’ के समेत पत्थर का हो जाता है। कहानी थोड़े सपाट लहजे में कही गई है, लेकिन इसलिए खास है कि इसकी नायिका ग्रीक मिथकों की परंपरा में न तो मेडुसा की वह मूर्ति है, जो बलात्कार के बाद वैंप, कुरूप, पापिन और कमजोर दिखाई जाती है और न वह जिसे 16वीं सदी में इटैलियन मूर्तिकार सेलिनी आकार देते हैं और जिसका सांप के बालों वाला कटा हुआ सिर नग्न पर्सियस के हाथ में है और न सन 2008 में अर्जेंटीना के मूर्तिकार लुशानो गरबाती की कल्पना, जिसमें पर्सियस से इंतकाम लेती मेडुसा दिखती है, जिसमें नग्न और खूबसूरत मेडुसा के हाथ में पर्सियस का सिर है। अन्वी अगले जमानों की मेडुसा है, जो न इस्तेमाल होती है और न रिवेंज लेती है। जिसे कहीं भी, किसी भी जगह पुरुषों से बात करना और उसका सलीका आता है, जिसे प्रेम करना आता है, प्रणय की बात कहना आता है और सबसे बड़ी बात रिक्त हो चुके संबंधों से बाहर आना आता है। जो भाषा में ‘स्त्रियोचित’ बर्ताव जैसे शब्दों की मक्कारी को समझती है और उस जाल में नहीं फंसती, जिसे कभी धर्मों, कभी संस्कृतियों और कभी रिवाजों के धागों से पुरुषों ने बुना है। वह प्रेम करती है, लेकिन अपने निजत्व को अक्षुण्य बनाए रखते हुए।

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दुनिया की कोई भी जमीन हो, मेडुसा के सिर काटे जाते रहे हैं। इस ग्रीक मिथक की बात करें तो संक्षिप्त में कथा ये है कि समंदर के देवता पोर्कीज और उसकी बहन सीटो की तीन बेटियों में से एक थी मेडुसा। खूबसूरत बालों वाली मेडुसा एक दिन ग्रीक देवी एथेना के मंदिर में थी कि जल के देवता पोसिडन ने उसका बलात्कार कर दिया। पोसिडन इतना ताकतवर था कि जमीन पर पांव पटक दे तो भूकंप आ जाए। शायद एथेना की हिम्मत नहीं हुई होगी कि पोसिडन के इस गुनाह की सजा उसे दें, सो वे मेडुसा से नाराज हो गईं और उसे शाप दे दिया कि उसके बाल जहरीले सांप बन जाएं और वह जिसे देखे, वह पत्थर का बन जाए। इस कथा में दो नाम और हैं। एक है पर्सियस का और दूसरा है ग्रीक राजा पॉलीडेक्टस का। पॉलीडेक्टस पर्सियस की मां से शादी करना चाहता था। पर्सियस ने अपनी मां को बचाने और पॉलीडेक्टस को खुश करने के लिए मेडुसा का सिर काट कर उसे भेंट किया। जिसका बलात्कार हुआ, सजा भी उसी को मिली। बिल्कुल वैसे ही, जैसे हिंदू मिथकों में जल के देवता इंद्र ने जब अपने गुरु ब्रहृम ज्ञानी की हत्या कर दी और असुरों के डर से भागना पड़ा तो ब्रह्मा ने इंद्र से ब्रह्म हत्या का पाप किसी को दान करने को कहा। इंद्र ने अपना पाप औरतों को दान कर दिया और इस पाप के बदले में औरतों को माहवारी मिली।

वनमाली कथा नवलेखन विशेषांक – दो

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वनमाली के इस नवलेखन अंक का हासिल है बेजी जैसन की कहानी ‘धूप में कुम्हलाती नहीं लिली।’ इस अंक में अब तक की पढ़ी कहानियों में ही नहीं, बल्कि पिछले कुछ समय में पढ़ी गई तमाम कहानियों में जो दो कहानियां बहुत हॉन्ट करती हैं, उनमें एक बेजी Beji Jaison की यह कहानी है और दूसरी मिथिलेश प्रियदर्शी Mithilesh Priyadarshy की कहानी ‘लोहे का बक्सा और बंदूक’ है।

मिथिलेश कहानी के पुराने आदमी हैं और वरिष्ठ हैं, जबकि बेजी की कहीं भी प्रकाशित यह पहली कहानी है। यह विशेषांक बेजी की इस कहानी के अलावा पल्लवी पुंडीर Pallavi Pundir की कहानी ‘अनादृता’, सबाहत आफ़रीन की कहानी ‘मुझे मंजूर नहीं’ और अनुराग अनंत Anurag Anant की कहानी ‘द ग्रांट इवेंट’ की वजह से विशेष होने का दर्जा पाता है। इस कड़ी में कुछ और कहानियां जुड़ भी सकती हैं, क्योंकि अभी मैंने इस अंक की कुछ और कहानियां नहीं पढ़ी हैं। हालांकि इस अंक पर पहला हिस्सा पल्लवी की बहुत तगड़ी कहानी की वजह से लिखा था और तीसरा हिस्सा तभी लिखूंगा जब कोई कहानी ‘धूप में कुम्हलाती नहीं लिली’ की तरह मेरी रात खराब कर दे, मेरा दिन मुझसे छीन ले, बेचैन कर दे, मुझे मार डाले, मेरी जान ले ले।

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‘धूप में कुम्हलाती नहीं लिली’ एक भारतीय ईसाई परिवार की कहानी है। या कहूं कि उस परिवार की चार बहनों में से दो की कहानी है। एक वह जो नैरेटर (लिनी) है और एक वह जिसे नैरेट (शीना) किया जा रहा है, जिसकी कहानी सुनाई जा रही है। हालांकि इस कहानी का सबसे खूबसूरत किरदार शीना का प्रेमी सैमुअल है, लेकिन तमाम किरदारों के बीच अंत में यह कहानी शीना की रह जाती है। इस कहानी का भौगोलिक सर्किल पता नहीं चलता, लेकिन यह केरल की कहानी होनी चाहिए।

भारतीय समाज में बड़ी बहन मां की भूमिका में आ जाती है। गरीबी और बदहाली से गुजर रहे इस परिवार में शीना भी यही करती है और किशोर वय में पहुंचते ही अपनी बहनों के लिए खुद को न्यौछावर करना शुरू कर देती है। लेकिन जब उसे प्रेम होता है तो घर से भाग जाना चाहती है, लेकिन हिंदुस्तानी समाज में प्रेम एक वाहियात चीज है और इसके खिलाफ जो-जो किया जा सकता है, यह समाज करता है। शीना की एक बेमेल आदमी से शादी कर दी जाती है। वह घर में बर्दाश्त करती है, फिर ससुराल में बर्दाश्त करती है, अपने जीवन को चुपचाप होम करती जाती है। अपना खुद का जीवन खो बैठती है। अपने प्रेमी सैमुअल का कभी नाम तक नहीं लेती। एक भागने के इरादे के सिवा अपने लिए कभी कोई फैसला नहीं लेती, लेकिन जब उसकी बेटी प्रेम करती है और यह समाज जब उसके साथ वही करना चाहता है, जो उसके साथ किया था तो वह सबसे भिड़ जाती है और अपनी बेटी का प्रेम बचा लेती है। यह सिर्फ शीना की कहानी नहीं है, हिंदुस्तान की तमाम औरतों की कहानी है। यह दम घोंट देने वाली चुप्पियों की कहानी है। उन चुप्पियों की जिन्हें कोई पागलखाना ही बचा सकता है। पागलखाने से लौटी शीना का लिनी से कहा यह संवाद उन औरतों के नाम है, जो खुद में कैद हैं-

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‘‘दो-तीन शॉक लेने पर डॉक्टर को पता चला कि मेरी बीमारी पागलपन नहीं, गहरा अवसाद है। सैमुअल से बिछड़ने का, एक पूरे जीवन के व्यर्थ होने का, कुछ भी आज तक अपनी मर्जी से न कर पाने का। ख़ुद को खो देने से बड़ा कोई दुःख नहीं लिनी। अच्छा लगा पागलखाने में। पहली बार अपने मन का कहा, सुना, नया सीखा। बहुत किताबें पढ़ीं, बहुत पागलों को देखा, उनकी कहानियां सुनीं, फिर धीरे-धीरे सबको माफ कर दिया।’’

पल्लवी पुंडीर की कहानी ‘अनादृता’ में रोमन मिथक से एक सिंबल ‘मेडुसा’ आता है, वैसे ही बेजी जैसन की इस कहानी में बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट से एक प्रतीक ‘तबीता’ आता है। शीना तबीता को ही विस्तारित करती लगती है। तबीता एक विधवा औरत थी, जो सभी की मदद के लिए तत्पर रहती थी। एक दिन वह मर जाती है और एक फरिश्ता आकर उसे जिंदा कर देता है। शीना जब मर रही होती है, तब क्या सैमुअल आकर उसे बचा लेता है? यह मैं क्यों बताऊं, आप खुद पढ़ लीजिए। अंत में एक यह बात भी कि 22 पेज की इस कहानी का फलक बड़ा है और इसमें एक उपन्यास सांस लेता है। अगर इसे उपन्यास की तरह बुना जाता तो ज्यादा बेहतर होता।

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सबाहत आफरीन की कहानी ‘मुझे मंजूर नहीं’ एक खूबसूरत (ट्रैजिक), निर्दयी और यथार्थपरक कहानी है। कुलीन परिवारों की लड़कियों का जीवन कुलीनता की कुंद छांव में धूप के एक अदद टुकड़े के लिए किस तरह दम तोड़ता है, यह ‘मुझे मंजूर नहीं’ की महरू की शक्ल में देखा जा सकता है। शादी के बाद ‘इज्जत’ के नाम पर जाने कितनी लड़कियों के मायके में वापसी का कोई ठौर नहीं बचता। इस कहानी के किरदार का जो साउंड है, उससे लगता रहता है कि महरू कहीं समझौता न कर ले। लेकिन कहानी जहां पहुंचती है, वहां एक उम्मीद पैदा होती है और पीछे के पन्नों पर पढ़ते हुए जो गुस्सा, चिढ़ पैदा होती है, वह बुझ जाती है। शरतचंद्र की कहानियों में बर्दाश्त करने वाले किरदारों को पढ़ते हुए जो खीझ पैदा होती है, वही खीझ इस कहानी में भी महसूस हुई। इस कहानी का कथ्य बहुत खास नहीं है, लेकिन कहने का ढंग कमाल है।

कुणाल सिंह को इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने जिन ग्यारह लेखकों की पहली कहानी छापी है, उनमें सात फीमेल राइटर्स हैं। इसके अलावा जो अन्य चौदह कहानियां हैं, उनमें भी सात फीमेल राइटर्स हैं। मेरी जानकारी में नहीं है कि किसी भी पत्रिका के नवलेखन या सामान्य अंक में महिला लेखक को इतनी तरजीह दी गई है। मैं इस बात को लेकर मुतमईन हूं कि अन्वी, शीना या महरू जैसे किरदार कोई पुरुष लेखक नहीं रच सकता।

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