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सुख-दुख

किसी संपादक ने नौकरी देने के लिए मेरी जाति नहीं पूछी

प्रदीप कुमार

हिंदी पत्रकारिता में आज ज्यादातर मामलों में हाल यह है कि अगर आप फलां-फलां जाति के हैं तो नौकरी आसानी से मिल सकती है,मुश्किल से मिलेगी या मिलेगी ही नहीं। कुछ मालिकों और अधिकतर संपादकों पर यह बात कमोबेश लागू होती है। जैसे,एक बड़े संस्थान में अनुसूचित जातियों और मुसलमानों को यथासंभव नौकरी न देने की अघोषित नीति है। एक संस्थान के लेखा विभाग में एक विशेष सवर्ण जाति के लोगों को ही रखने की नीति है;वे ऐसा मानते हैं कि ये लोग बहुत ईमानदार होते हैं। पचास-पचपन साल पहले ये प्रवृत्तियां नहीं थीं या कम दिखाई पड़ती थीं। इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय गैर-सवर्ण जातियों और मुसलमानों में साक्षरता दर कम थी,प्रेस इंडस्ट्री का विस्तार नहीं हुआ था और लेबर मार्केट की डिमांड एक खास वर्ग से ही पूरी हो जाती थी। इसके बावजूद सच यह है कि कोंच-कोंच कर जाति नहीं पूछी जाती थी। यह मेरे निजी जीवन के अनुभवों पर आधारित है।

कम उम्र में मुझे जाति और उस पर आधारित मनुष्य विरोधी व्यवहार से नफरत होने लगी थी। इसलिए परिवार से मिला सरनेम धीरे-धीरे मेरे नाम से गायब होने लगा। बिसवां के एसजेडी इंटर कॉलेज में कक्षा नौ में दाखिला लेने के बाद मैं कुछ स्थानीय कवियों की सोहबत में आने पर कविता लिखने लगा था। कविता क्या वीर रस की तुकबंदी कहिए। किसी वरिष्ठ का यह सुझाव भा गया कि प्रदीप मयंक के नाम से कविता लिखा करो। इस तरह मैं प्रदीप मयंक हो गया। दो-चार साल में मैंने महसूस किया कि मेरे जैसे कवियों का नाम बस स्थानीय स्तर तक रहता है और ऐसी कविताएं कूड़ेदान में जाती हैं। कविता वहीं छोड़ दी और कवि ह्रदय बना रहा। धीरे-धीरे मैं प्रदीप कुमार बनकर रह गया। अगर किसी ने जाति पूछने की कोशिश की तो एससी बता देता।

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बीए में कुछ नंबरों से प्रथम श्रेणी रह जाने पर तय हो गया कि लखनऊ विश्वविद्यालय से मिलने वाला वजीफा अब बंद हो जाएगा और इसके साथ ही आगे की पढ़ाई भी। प्रोफ़ेसर बनने का मेरा सपना चूर-चूर हो गया। हिम्मत हारना मेरे स्वभाव में नहीं है। अतः पार्ट टाइम जॉब के साथ एमए करने का निश्चय किया। जॉब की तलाश में ‘ द पायनियर ‘ के स्वनामधन्य संपादक एसएन घोष के सामने अचानक पहुंच गया। उन्होंने मेरी समस्या सुनी और राइटिंग पैड पकड़ाते हुए पाकिस्तान पर पांच सौ शब्द लिखने का टास्क दिया। देखकर कहा,” तुम्हारी अंग्रेजी सही है मगर उच्चारण दोषपूर्ण है। मैं तुम्हें जनरल मैनेजर के पास भेज रहा हूं क्योंकि मेरे पास पार्ट टाइम जॉब का प्रॉविजन नहीं है। उन्होंने दो वाक्य लिखकर ( Bhandari, I am sending this boy to you. Do the needful. ) जनरल मैनेजर के पास भेज दिया। घोष बाबू के दो वाक्य आदेश तुल्य थे। मैं एमए,राजनीति विज्ञान में प्रवेश ले चुका था। आखिरी पीरियड साढ़े तीन बजे ख़त्म होता था। भंडारी जी ने सौ रुपये महीने पर पांच से आठ तक की ड्यूटी लगा दी। काम था लेजर कीपिंग और छपे विज्ञापनों के बकाये के लिए रिमाइंडर भेजना। अठारह वर्ष की उम्र में यह मेरी पहली नौकरी थी। मेरी ‘ जाति ‘ न तो घोष बाबू ने पूछी और न भंडारी जी ने।

परीक्षा का समय आने तक मैं हिसाब लगा चुका था कि प्रथम श्रेणी नहीं आने वाली। ड्राप कर दिया और बेहतर नौकरी की तलाश करने लगा। उस समय उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित दैनिक,पायनियर ग्रुप से निकलने वाले ‘ स्वतंत्र भारत ‘के संपादकीय विभाग में सब एडिटर सियाराम शरण त्रिपाठी ने सुझाव दिया,’ कानपुर चले जाओ।दैनिक जागरण के संपादक नरेंद्र मोहन से मिलो,यह संभव ही नहीं कि ट्रेनी सब एडिटर के रूप में तुम्हारा चयन न हो। जेब में तीन रुपये लिए हुए कानपुर जाने वाली ट्रेन पकड़ ली। दैनिक जागरण के मुख्यालय,सर्वोदय नगर पहुंचने पर टेलीफोन ऑपरेटर और रिसेप्शनिस्ट की डबल भूमिका निभाने वाली मैडम यह जानने पर अड़ गईं कि मोहन बाबू ( जागरण ग्रुप में नरेंद्र मोहन जी इसी नाम से संबोधित किए जाते थे ) से मिलने का उद्देश्य क्या है ? नौकरी के लिए आए हैं,यह बता देता तो उनसे मिलना मुश्किल हो जाता। मैंने उन्हें रोब में लेते हुए कहा, मत मिलने दीजिए ,मैं उनसे मिलने पर शिकायत करूंगा कि मेरे साथ आप ने दुर्व्यवहार किया था। उन्होंने तुरंत फोन लगाकर कहा,’ सर,एक लड़का आप से मिलने की जिद कर रहा है।’ मुझे तुरंत एक सहायक के साथ उनके चैंबर तक पहुंचा दिया गया। उन्होंने पूछा,’ किसलिए मिलने के लिए झगड़ रहे थे ? ‘ जवाब था,’ संपादकीय विभाग में नौकरी चाहता हूं। ‘ दो टूक उत्तर था- इस समय कोई वैकेंसी नहीं है। मैंने कहा,टेस्ट ले लीजिए। उन्होंने प्रति व्यक्ति औसत आय, मॉरीशस के प्रधानमंत्री सर अनिरुद्ध जगन्नाथ की भारत यात्रा और संयुक्त राष्ट्र महासभा की कार्यवाही के बारे में सवाल किए।जवाबों से खुश होकर उन्होंने कहा,तुम्हारा चयन हो गया। यह भी कहा- टेलीफोन ऑपरेटर से तुम्हारा झगड़ना काम आ गया।तुममें कांबैटिवनेस है,जो एक अच्छे पत्रकार में होना चाहिए। इस तरह प्रदीप मयंक जुलाई १९६९ में जागरण के संपादकीय विभाग में डेढ़ सौ रुपये महीने पर प्रशिक्षु उप संप्रादक हो गए। जाति न तो मोहन बाबू ने पूछी और न नौकरी का फ़ार्म भरवाने वाले मैनेजर ने।

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कानपुर में अखबार में नौकरी तो मिल गई पर आत्मा लखनऊ में थी।वीरेंद्र, शोएब, नदीम सभी लखनऊ में थे। दो बड़ी बहनें भी लखनऊ में थीं। हज़रतगंज, चेतना बुक डिपो, नरेंद्र देव पुस्तकालय, ब्रिटिश लाइब्रेरी, मैगज़ीन की दुकानें -कानपुर में इन सभी सुखों से वंचित था।दैनिक जागरण में मुश्किल से सात महीने बीते होंगे कि’ स्वतंत्र भारत’ में एक रिक्त स्थान की खबर मिली। अगले दिन सुबह पहली ट्रेन से लखनऊ चल पड़ा। सीधे कैसरबाग पहुंचा,जहां कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय के ऊपरी हिस्से में स्वतंत्र भारत के संपादक योगेंद्रपति त्रिपाठी रहते थे। एक बच्चे ने दरवाजा खोला और भोलेपन में उस स्थान तक पहुंचा दिया,जहां त्रिपाठी जी पटली पर बैठे भोजन कर रहे थे। उन्होंने बैठके में ले जाने और पानी पिलाने को कहा। सादगी की मूर्ति, त्रिपाठी जी का बैठका टिन शेड के नीचे एक बंसखट्टी थी। इस पीढ़ी के लोगों को छोड़िए, उस समय भी बिना देखे कोई यकीन न करता कि प्रदेश के सबसे इज्जतदार अखबार के संपादक का घर यही है। त्रिपाठी जी भोजन के बाद आकर चारपाई पर बैठ गए। मैं कुछ सेकेंड खड़ा रहा। उन्होंने आग्रहपूर्वक उसी चारपाई पर बैठा लिया और आने का मंतव्य पूछा। मेरी बात सुनने के बाद कहा- ऑफिस चले जाइए।मैं समाचार संपादक रजनीकांत जी को फ़ोन कर देता हूं,वह आप की लिखित परीक्षा लेंगे।आप पास हो जाएंगे तो चयन हो जाएगा।

सहायक ने रजनीकांत मिश्र के चैंबर तक पहुंचा दिया। मुझे देखते ही वह बोले,त्रिपाठी जी से आप ही मिले थे ? उन्होंने पीटीआई का एक तार और जीके
के दस सवाल मेरे लिए तैयार रखे थे। मेरा कार्य देखने के बाद उन्होंने चयन की घोषणा कर दी। फिर हंसते हुए कहा,मैंने आप का नाम पूछा ही नहीं। प्रदीप मयंक सुनने के बाद उन्होंने ‘ आगे ‘ जानने की जिज्ञासा नहीं दिखाई। त्रिपाठी जी और रजनीकांत जी,दोनों मेरी ‘ जाति ‘ से लंबे समय तक अनभिज्ञ रहे।

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मैं तीन साल स्वतंत्र भारत में रहा। तभी कृष्ण कुमार मिश्र नेशनल हेरल्ड ग्रुप के हिंदी दैनिक नवजीवन के संपादक बन कर आ गए।वह कई वर्ष इंडियन एक्सप्रेस, दिल्ली के विशेष संवाददाता रहने के बाद बांग्लादेश कवर करने के लिए ढाका भेजे गए थे। एक्सप्रेस में उनके डिस्पैच पढ़ने के बाद मैं उनसे काफी प्रभावित था। उसी दिन स्वतंत्र भारत में उन पर काफी चर्चा सुनने के बाद मैंने तय कर लिया कि अब तो नवजीवन जाना है। हनक और सर्कुलेशन,दोनों में नवजीवन स्वतंत्र भारत से हल्का था। मैंने तीन कारणों से जाने का निश्चय किया- नवजीवन में वेतन अधिक मिलता था,कृष्ण कुमार जी के साथ काम करने में आकर्षण था और स्वतंत्र भारत के संपादक को मेरा चेहरा पसंद नहीं था व यूनियन के कवच से लैस होने के कारण मैं उनके प्रति कोई सम्मान नहीं दिखाता था। मिश्र जी के जॉइन करने के एक सप्ताह पश्चात सुबह दस बजे मैं उनसे मिलने चला गया,क्योंकि उस समय संपादकीय विभाग में सन्नाटा रहता था। उन्होंने अपने सामने बांग्लादेश की स्थापना पर लेख लिखने को कहा। लेख देखने के बाद शाबाशी देते हुए उन्होंने बताया, सुबह-सुबह तुम्हारा डेढ़ सौ रुपये हर महीने का फायदा हो गया। कई महीने बाद उन्हें मेरी ‘ जाति ‘ का पता चला। नवजीवन की नौकरी के दौरान मैं प्रदीप मयंक से प्रदीप कुमार हो गया।

नवजीवन के बाद मैंने कई नौकरियां कीं। कभी मेरी ‘ जाति ‘ नहीं पूछी गई।

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