Connect with us

Hi, what are you looking for?

वेब-सिनेमा

फ़िल्म ‘आदि पुरुष’ के ये संवाद बाल सुलभ लगते हैं!

देवमणि पांडेय-

फ़िल्म ‘आदि पुरुष’ के राम यानी राघव ने लंका पर आक्रमण करने से पहले अपने सैनिकों से कहा- “आज मेरे लिए नहीं लड़ना। आज अपने लिए लड़ना, अपनी मर्यादा के लिए लड़ना। गाड़ दो अहंकार की छाती पर विजय का भगवा ध्वज। हर हर महादेव।” इसके साथ ही निर्देशक ओम राउत और संवाद लेखक मनोज मुंतशिर शुक्ला दर्शकों तक अपना मंतव्य पहुंचा देते हैं। फ़िल्म के कई संवाद बाल सुलभ लगते हैं। यानी प्रौढ़ दर्शकों के लिए असुविधाजनक हैं।

मसलन-

Advertisement. Scroll to continue reading.

(1) कपड़ा तेरे बाप का! तेल तेरे बाप का! जलेगी भी तेरे बाप की।

(2) तेरी बुआ का बगीचा है क्या जो हवा खाने चला आया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

(3) जो हमारी बहनों को हाथ लगाएंगे उनकी लंका लगा देंगे।

(4) आप अपने काल के लिए कालीन बिछा रहे हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

(5) मेरे एक सपोले ने तुम्हारे शेषनाग को लंबा कर दिया अभी तो पूरा पिटारा भरा पड़ा है।

फ़िल्म का कोई भी दृश्य परिपक्व दर्शकों के न तो इमोशन को छू पाता है और न ही उनमें आस्था का कोई भाव पैदा करने में समर्थ होता है। पिछले साल मनोज बताया था- “आदि पुरुष ख़ासतौर से उस पीढ़ी के लिए बनाई गई है जो स्पाइडर-मैन जैसी एक्शन फ़िल्मों को पसंद करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा की नई तकनीक को पसंद करते हैं।” मनोज मुंतशिर के प्रशंसकों को यह फ़िल्म देखकर हैरत हो सकती है कि उन्होंने कैसे कैसे अटपटे संवाद लिख दिए हैं। मगर क्या इसके लिए सिर्फ़ मनोज मुंतशिर ही दोषी हैं? निर्माता निर्देशक क्यूँ नहीं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

गीतकार पं. प्रदीप ने कहा था- निर्माता और निर्देशक के लिए लेखक, गीतकार मज़दूर की तरह होते हैं। उनकी डिमांड पर उसे ऐसा फर्नीचर बनाना पड़ता है जो उनके ड्राइंग रूम में फिट हो जाए। मनोज मुंतशिर ने भी ऑन डिमांड कारीगरी का अद्भुत नमूना तो पेश किया है मगर दर्शकों को संतुष्ट नहीं कर पाए। इस मामले में उन्हें विवेकशीलता से काम लेना चाहिए था।

पांच-दस-पंद्रह साल वाली पीढ़ी, जिसने न तो रामानंद सागर की रामायण देखी है और न ही तुलसीदास रचित रामचरितमानस पढ़ा है उसके लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम नहीं मूंछ दाढ़ी वाले आदि पुरुष राघव और मूंछ दाढ़ी वाले शेष (लक्ष्मण) और चमगादड़ पर सवारी करने वाले क्रूर लंकेश की नई छवि को साकार किया गया है। लंकेश के पांच सिर ऊपर और पांच सिर नीचे यानी दो क़तार में हैं। सभी सिर एक दूसरे से बात करते हैं। बारी बारी डायलॉग बोलते हैं। दशानन गिटार की तरह वीणा बजाता है और अजगरों से बॉडी मसाज कराता है। हनुमानजी का नाम बजरंग है। उनकी छवि भी दर्शकों की अपेक्षा के अनुकूल नहीं है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

राघव, शेष, बजरंग और लंकेश के किरदार अपनी भूमिका में आक्रामक हैं। अपने ऐक्शन में एक हद तक वे बच्चों को अच्छे भी लग सकते हैं मगर जानकी को देखकर लगता है जैसे रैंप पर वॉक करने वाली कोई सुंदरी डिज़ाइनर कपड़े पहनकर फ़िल्म के परदे पर अवतरित हो गई है। एक प्रेम गीत में जानकी की रंगीन साड़ी कई फुट तक लहराती हुई दिखाई पड़ती है। एक और गीत में हरे बांस को बांधकर बनाई गई चटाई जैसी नौका पर बैठकर जानकी रोमांटिक गीत गाती हैं और राम के हाथ में बांस है यानी वे नाविक की भूमिका में हैं। यहां भी जानकी का परिधान काफ़ी आकर्षक और आधुनिक है। मगर ऐसे दृश्य जानकी के साथ दर्शकों के भावनात्मक जुड़ाव को बाधित करते हैं।

सिनेमा को निर्देशक का माध्यम माना जाता है। इसलिए मनोज मुंतशिर को कठघरे में खड़ा करने के साथ ही निर्देशक ओम राउत से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि रामायण के उदात्त चरित्रों की पारंपरिक छवि को ध्वस्त करके उन्हें नया स्वरूप देने से क्या हासिल हुआ। मुझे नहीं लगता कि ये नए पात्र बच्चों को कोई संस्कार दे पाएंगे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

आदि पुरुष फ़िल्म देख कर ऐसा लगता है जैसे राघव को 40 साल की उम्र में बनवास मिला था। जानकी भी 30 से कम तो नहीं लगतीं। हो सकता है कि सिनेमा हॉल में पांच दस साल के बच्चे आदि पुरुष फ़िल्म के इस नए वर्सन का भरपूर लुत्फ़ उठाएं मगर उनके मां-बाप फ़िल्म देखते समय फ़िल्म मेकर द्वारा ली गई आज़ादी से ज़रूर मायूस होंगे। मनोज मुन्तशिर भारतीय संस्कृति के पक्ष में काफ़ी कुछ अच्छा बोलते हैं। यह फ़िल्म उनकी उनकी प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुंचा सकती है। उनके प्रशंसकों को निराश कर सकती है।

विदेशी ऐक्शन फ़िल्मों की तरह फ़िल्म में विजुअल इफेक्ट ज़बरदस्त है। ख़ासतौर से क्लाइमेक्स यानी लंका युद्ध को साकार करने में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल बख़ूबी किया गया है। मगर अधिकांश दृश्य अंधकारमय हैं। बैकग्राउंड साफ़ नहीं दिखता। ऐसा लगता है जैसे लंका युद्ध सूरज डूबने के बाद हुआ था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

फ़िल्म ज़रूरत से ज़्यादा यानी तीन घंटे लम्बी है। क्लाइमेक्स में युद्ध के एक जैसे धुंधले दृश्य देखकर मेरे साथ यह फ़िल्म देखने वाला चौदह साल का बालक बोर होकर सो गया था। कुम्भकर्ण के मरने के बाद वह जागा। कल शुक्रवार को अपराहन 2.40 के शो में जब मैंने गोरेगांव पूर्व के एक थिएटर में यह फ़िल्म देखी तो हाल में 50% भी दर्शक नहीं थे। कुल मिलाकर यह एक संकेत है कि भविष्य में आदि पुरुष फ़िल्म का क्या हश्र होने वाला है।

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement