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‘आज’ अखबार के ‘उत्तरोत्तर आगे बढ़ने’ की दिलचस्प असलियत

पिछले दिनों मैं गोरखपुर गया हुआ था। एक रोज सुबह चार बजे रेलवे स्टेशन स्थित उस ठीहे पर जाना हुआ, जहां से हॉकर यानी समाचार वितरक घरों में बांटने के लिए विभिन्न अखबार खरीदते हैं। उनकी भाषा में कहें उठाते हैं। अखबार वाले इसे सेंटर बोलते हैं। एक जमाने में हॉकर यूनियन के अध्यक्ष रहे अमरनाथ जी से कुलाकात हुई। सत्तर बरस के हो चले हैं, पर उनकी मेहनत और जिन्दादिली वैसी की वैसी ही है। तीस-पैंतीस साल से मेरी उनसे दोस्ती है। शहर के अखबारी जगत की हलचलों से वाकिफ रहते हैं अमरनाथ जी। एक से एक किस्से सुनने को मिलते हैं उनसे। जब भी अपने शहर जाना होता है, हॉकरों की इस तीर्थस्थली पर एक-दो बार जरूर जाता हूँ। अतीत-मोह मुझे वहां खींच ही ले जाता है।

पिछले दिनों मैं गोरखपुर गया हुआ था। एक रोज सुबह चार बजे रेलवे स्टेशन स्थित उस ठीहे पर जाना हुआ, जहां से हॉकर यानी समाचार वितरक घरों में बांटने के लिए विभिन्न अखबार खरीदते हैं। उनकी भाषा में कहें उठाते हैं। अखबार वाले इसे सेंटर बोलते हैं। एक जमाने में हॉकर यूनियन के अध्यक्ष रहे अमरनाथ जी से कुलाकात हुई। सत्तर बरस के हो चले हैं, पर उनकी मेहनत और जिन्दादिली वैसी की वैसी ही है। तीस-पैंतीस साल से मेरी उनसे दोस्ती है। शहर के अखबारी जगत की हलचलों से वाकिफ रहते हैं अमरनाथ जी। एक से एक किस्से सुनने को मिलते हैं उनसे। जब भी अपने शहर जाना होता है, हॉकरों की इस तीर्थस्थली पर एक-दो बार जरूर जाता हूँ। अतीत-मोह मुझे वहां खींच ही ले जाता है।

टहलते-घूमते मैं पत्र-पत्रिकाओं के एजेंट विनोद सिंह की दुकान पर गया। उन्होंने मुझे स्टूल ऑफर किया और चाय मँगवायी। विनोद ‘आज’ अखबार के भी एजेंट हैं। मेरे सामने ही हॉकरों को देने के लिए इस अखबार का बंडल आया। बंडल में मुश्किल से दो सौ अखबार होंगे। मैंने बनावटी आश्चर्य जताते हुए पूछा— यही है ‘आज’ का सर्कुलेशन? विनोद मुस्कुरा दिये, उत्तर देने की जरूरत नहीं समझी। मुझे उत्तर आप से आप मिल गया। बाद में मुझे एक हॉकर नेता ने बताया कि सच बात तो यह है कि गोरखपुर शहर में इस अखबार का एक भी ग्राहक नहीं है। मुझे वह जमाना याद आता है, जब पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘आज’ अखबार की तूती बोलती थी। उस जमाने में लोग ‘आज’ अखबार देश-दुनिया की खबर पढ़ने के लिए तो मंगाते ही थे, साथ-साथ यह भी मानते थे कि घर के बच्चे अखबार से सही हिन्दी लिखना सीखेंगे। हिन्दी जगत में इस अखबार की बहुत साख थी। ‘आज’ अखबार में काम करने के अपने अनुभव पर आगे विस्तार से बात करूंगा। पहले एक क्षेपक-प्रसंग शेयर करना चाहता हूं।

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1982 के अंतिम महीनों की बात है। मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का होल टाइमर था और पार्टी मुख्यालय अजय भवन से निकलने वाले हिन्दी मुखपत्र ’मुक्ति संघर्ष’ का काम देखता था। एक दिन अचानक कवि-लेखक-पत्रकार और मेरे पुराने मित्र तडि़त कुमार चटर्जी मुझसे मिलने अजय भवन आ धमके। उन्होंने बताया— सहारा इंडिया के मालिक सुब्रत राय लखनऊ से ‘शाने-ए-सहारा’ नाम का साप्ताहिक अखबार निकालने जा रहे हैं। तडि़त जी अखबार के प्रबन्ध सम्पादक नियुक्त किये गये थे। तडि़त जी प्रेस के लिए कोई मशीन का सौदा करने के सिलसिले में सहारा इंडिया के किसी अधिकारी के साथ दिल्ली आये हुए थे। बहरहाल, मैं शाम को उन्हें अपने डेरे पर ले गया। उस समय मैं दिल्ली के विंडसर प्लेस स्थित सांसद आवास में नौकरों के लिए बने एक क्वार्टर में रहता था।

यह बंगला था भाकपा के राज्यसभा सदस्य कॉमरेड योगीन्द्र शर्मा का। शराब के साथ हम दोनों ने शाम के समय का लुत्फ देर रात तक उठाया। सोने से पहले तडि़त जी ने मुझे भी शान-ए-सहारा ज्वाइन करने का ऑफर दिया। इस तरह मैं लखनऊ चला गया। लेकिन शान-ए-सहारा की नौकरी मुझे कभी रास नहीं आयी। इसके दो कारण थे। पहला यह कि सहारा में कुछ-कुछ ऐसा महौल था जिसे सुब्रत राय का आतंक कहा जा सकता है। कर्मचारियों पर हर समय सहारा इंडिया के मालिकों एवं अधिकारियों की अदृश्य छाया मंडराती रहती थी। दफ्तर में हर किसी को सहमा-सहमा सा देखता था। वहां अपने सीनियर को नमस्कार की जगह ‘गुड सहारा सर’ का सम्बोधन करना जरूरी था। यह मुझे नागवार लगता था। वैसे, मैंने वहां रहते कभी किसी को यह सम्बोधन नहीं दिया। वहां मन न लगने की दूसरी वजह यह थी कि तडि़त जी ने मेरे साथ धोखा किया था।

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दरअसल, अतीत में मेरी किसी हरकत से वह बेहद आहत थे, और मुझसे बदला लेने के मौके की तलाश में थे। सहारा में मेरी नियुक्ति कराने के पीछे उनकी यही मंशा प्रेरक-तत्व थी। उन्होंने मेरी सीनियॉरिटी जानते हुए भी मुझे अपमानित कराने की योजना बना रखी थी। जब साप्ताहिक का पहला अंक निकला तो मैं हक्का-बक्का रह गया। मेरा नाम वरिष्ठ उपसंपादकों की सूची में सबसे नीचे छापा गया था। खैर, अपमानित होने के बावजूद मैंने धैर्य से काम लिया। कुछ महीने काटे। इसी बीच, मेरे मित्र उपेन्द्र मिश्र ने मुझे ‘आज’ के गोरखपुर एडीशन में काम करने के लिए बुलवा लिया। वहां मैं रम गया। लगभग एक साल तक काम किया।

‘आज’ में मुझे लम्प-सम्प सैलरी पर नौकरी मिली थी। वेतन उस समय के हिसाब से ठीक था और मैं भी सन्तुष्ट था। उसी दौरान अखबार के मालिक शार्दूल विक्रम गुप्त गोरखपुर यूनिट के दौरे पर आये हुए थे। सम्पादकीय विभाग के वरिष्ठ साथियों ने मुझसे कहा कि मैं शार्दूल से मिलूं और स्थाई नियुक्ति का आग्रह करूं ताकि पीएफ आदि की सुविधाएं मिलने लगें। मैं काफी आस लगाकर ‘भैया’ से मिला। ‘आज’ में शार्दूल को भैया कहने का चलन है। शार्दूल ने पहला सवाल जिस लहजे में मुझसे किया उससे साफ था कि यह मुलाकात ही उन्हें नागवार लगी। उन्होंने कहा— कहिए, किस बाबत मिलने आये हैं। मैंने अपना मंतव्य बताया— चाहता हूं कि परमानेंट हो जाऊं। मेरे कानों को दो वाक्य सुनाई पड़े– ‘परमानेंट क्यों होना चाहते हैं !’  ‘न परमानेंट करूं तो !’ मैं बिना कुछ बोले दो-तीन मिनट उनके कमरे में अवाक खड़ा रहा और लौट आया। मुझे शार्दूल कुल मिलाकर लम्पट और स्वेच्छारी व्यक्ति लगा। कुछ देर के बाद यूनिट प्रबंधक ने मुझे बुलवाया यह संदेश देने के लिए कि भैया जी मुझसे बेहद नाराज हैं। संकेत स्पष्ट थे। कुछ दिन बाद आनन्द स्वरूप वर्मा ने मुझे शान-ए-सहारा में वापस बुलवा लिया।    

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दूसरी बार मुझे ‘आज’ में काम करने का अवसर मिला 1986 में। यह अवसर दिया कानपुर यूनिट के तत्कालीन महाप्रबंधकदिनेशचन्द्र श्रीवास्तव ने। उस समय ‘आज’ की प्रसार संख्या तेजी से घटती जा रही थी। इससे शार्दूल तिलमिलाए हुए थे। दिनेश जी के सुझाव पर ‘आज’ के मालिक ने दैनिक जागरण के खिलाफ प्राइस वार छेड़ते हुए अखबार का दाम एक रुपया कर दिया। यह नुस्खा भी बहुत काम न आया। ‘आज’ की तुलना में दैनिक जागरण का सर्कुलशन कई गुना था और दाम दोगुना होने के बावजूद किसी भी सूरत घटने का नाम न ले रहा था। सर्कुलेशन सीमित होते जाने के चलते ‘आज’ को विज्ञापन मिलना भी धीरे-धीरे कम होता गया। अखबार का दाम एक रुपया कर देने से प्रसार की आय भी आधी हो गयी। इस अखबार के बुरे दिन यहीं से शुरू हो गये। मेरी समझ से इस अखबार की बरबादी शार्दूल की नीतियों के कारण शुरू हुई।

जहां एक ओर दैनिक जागरण ने अपनी आय को अखबार की साज-सज्जा बेहतर करने, नई-नई तकनीक को अपनाने, पेजों की संख्या बढ़ाने, समाचारपत्र के कागज की क्वालिटी अच्छे से अच्छा करने में लगाने पर ध्यान दिया, वहीं ‘आज’ ने अपनी आय को दूसरे धन्धों में लगाना आरम्भ कर दिया। अखबार प्रसार और विज्ञापन दोनों क्षेत्रों में तेजी से पिटने लगा। देखेते-देखते यह अखबार एक नामी ब्रांड से एक चिरकुट अखबार में तब्दील हो गया। शार्दूल को निकट से जानने वाले बताते हैं कि उन्हें अपने समाचारपत्र को आगे बढ़ाने में कभी खास दिलचस्पी नहीं रही। वह ऐसा धन्धा अपनाना चाहते थे जिसमें अन्धाधुन्ध पैसों की बरसात हो। शार्दूल का एक सपना देश का बड़ा बिल्डर बनने का भी था। वह भी नहीं बन पाये और अखबार भी चौपट हो गया। कहने को अखबार के देश में 15 शहरों से संस्करण निकलते हैं। लेकिन उनका क्या हाल है, इस बारे में कुछ बातें।

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‘आज’ कानपुर के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत एक सज्जन ने पिछले दिनों मुझे बताया कि इस समय हमारी यूनिट में अधिकतम वेतन 7,000 रुपये है और केवल पांच लोग स्थाई कर्मचारी हैं। सालों से वेतन में कोई बढ़ोतरी नहीं की गयी है। कई-कई महीनों का वेतन रुका रहता है। ऐसे में हारकर कर्मचारी भी नौकरी की औपचारिकता निभाने के लिए दफ्तर आते हैं। न उनमें काम करने की कोई लगन है, न किसी तरह की रुचि। आज हालत यह है कि इस अखबार में बस ऐसे ही लोग कार्यरत हैं, जिन्हें दूसरा कोई अखबार रखने को तैयार नहीं है या वे जो इस योग्य नहीं हैं कि किसी अन्य जगह नौकरी खोज लें। आज का प्रबन्धन कर्मचारियों से ऐलानिया तौर पर कहता है कि अपने परिवार के गुजारे के लिए वे अखबार के नाम पर कहीं कुछ उल्टा-सीधा कमा सकते हों तो आराम से कमायें। अखबार की तरफ से कोई एतराज नहीं है। जो लोग ऐसा कर पा रहे हैं वे कर भी रहे हैं।

इतना सब होने के बाद अब देखिए कि ‘आज’ अखबार का वेबसाइट शार्दूल का क्या बखान करता है– वर्तमान में शार्दूल विक्रम गुप्त ‘आज’ के प्रधान सम्पादक हैं। उनके कुशल नेतृत्व और निर्देशन में यह समाचारपत्र निरन्तर उन्नति के पथ पर अग्रसर है। उन्होंने 1984 में प्रधान सम्पादक का कार्यभार सम्भाला। वैसे, 1979 से ही वह पत्रकारिता के क्षेत्र में हैं, जब उनके नेतृत्व में अत्यन्त लोकप्रिय पत्रिका ‘अवकाश’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ। इस पत्रिका ने अल्पकाल में ही हिन्दी जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। उन्होंने ‘आज’ के सम्पादक का कार्यभार सम्भालते ही पूरे मनोयोग और अपार उत्साह से अखबार के विस्तार की योजना बनायी और उसे मूर्तिमान करने के लिए अथक प्रयास किया।

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यह उनकी दूरदर्शिता और शिव संकल्प का ही परिणाम है कि आज यह समाचारपत्र देश के विभिन्न राज्यों के पन्द्रह नगरों से एक साथ प्रकाशित हो रहा है और इसकी प्रसार संख्या लाखों में पहुंच गयी है। आज पत्रकारिता पेशा बन गयी है। व्यावसायिक स्पर्धा ने पत्रों को आकर्षक अवश्य बनाया है लेकिन निरन्तर महंगे हो रहे पत्र आम आदमी की पहुंचसे बाहर होते जा रहे हैं। इसके विपरीत श्री गुप्त ने ‘आज’ को सर्वसुलभ बनाये रखा है। वस्तुत: वह उन आदर्शों और सिद्धान्तों के लिए प्रतिबद्ध हैं जिनको लेकर ‘आज’ की स्थापना की गयी थी। श्री गुप्त ने पत्र को जनसेवा का माध्यम बनाये रखा है। उनके नेतृत्व, उदार प्रोत्साहन, उदात्त प्रेरणा और सक्रिय सहयोग से ‘आज’ निरन्तर आगे बढ़ रहा है। वेबसाइट पर दी गयी यह प्रशस्ति ‘आज’ के वास्तविक हालात पर गजब की व्यंग्य-रचना लगती है।

लेखक विनय श्रीकर वरिष्ठ पत्रकार हैं और ढेर सारे बड़े हिंदी अखबारों में उच्च पदों पर कार्य कर चुके हैं. उनसे संपर्क उनकी मेल आईडी [email protected] के जरिए या फिर उनके मोबाइल नंबर 9580117092 के माध्यम से किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. कुमार कल्पित

    August 25, 2016 at 7:59 am

    श्रीकर जी को पढ़ा अच्छा लगा। सालों पहले उन्हे देखा था । राष्ट्रीय सहारा लखनऊ में किसी से शायद अशोक रजनीकर या अनिल पांडेय से। बाहर पान की पर उन्हे बतियाते सुना। नाम सुना था लेकिन परिचित नहीं। तब यह भी नहीं मालूम था कि वे कामरेड हैं। बहरहाल, अखबारों की दुर्दशा पर लिखा। आज क्या कमोबेश हर अखबार की हालत खस्ता है। जो भी अखबार निकालता है या निकालना चाहता है वो अपना हित साधने के लिए । मसलन करोडों में खेलने वाले सुब्रत राय को क्यख जरूरत थी अखबार निकालने की। जिस समूह के और भी धंधे हों वो भी अखबार निकिलना चाहता है या न्यूज चैनल शुरू करना चाहता है क्यों ? विनय जी ने आज के गिरती प्रसार संख्या की बात की तो आज हर दूसरा अखबार ” आज ” होकर रह गया है। सहारा के जिस वातावरण का उल्लेख उन्होंने किया वही वातावरण आज भी है। यह समझिये कि हिंदी दैनिक आज के पदचिह्नों पर चल रहा है राष्ट्रीय सहारा। आज अखबार भी नीचे से नम्बर वन है और सहारा भी।

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