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अमर उजाला के संपादकीय से मैं अक्सर सहमत नहीं होता हूँ, पर आज के मामले में हूँ!

संजय कुमार सिंह-

लती कोई भी कर सकता है, समझदारी उसे छिपा लेने में है। अमर उजाला के संपादकीय निर्णय से मैं अक्सर सहमत नहीं होता हूं पर आज इस मामले में तो हूं। हिन्दुस्तान टाइम्स भी ऐसा कर सकता था। करना चाहिये था। मुझे लगता है कि लाल कृष्ण आडवाणी को भारत रत्न दिये जाने में कोई खबर नहीं है। उन्हें 2014 से लेकर अब तक नहीं दिया गया यह खबर हो सकती है। इस बार जब तीन से ज्यादा लोगों को दिया जा चुका था और चार को मरणोपरांत दिया गया है तो कोई जरूरी नहीं है कि इसी साल दिया जाता। कर्पूरी ठाकुर को तो मृत्यु के 25 साल बाद दिया गया है।

आडवाणी जी को इस साल दिये जाने से इसका चुनावी उपयोग किया जाना लग रहा है। फिर पुरस्कार लेने नहीं जाने का निर्णय अगर आडवाणी जी और उनके परिवार का था तो घर जाकर देने का निर्णय चुनावी उपयोग की शंका को और मजबूत करता है। फिर हिन्दुस्तान टाइम्स की फोटो से तो लगता है कि इस पूरी प्रक्रिया में राष्ट्रपति का अपमान हुआ। भारत रत्न भाजपा रत्न हो गया हो। सम्मान तो अपनी जगह है ही।

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अमर उजाला और हिंदुस्तान टाइम्स की ख़बर का एंगल

अमर उजाला की खबर से लगता है कि भारत रत्न देने के समय भाजपा कार्यालय अपने गुरू के घर पर था वह कोई सरकारी आयोजन नहीं था। हो भी नहीं सकता था क्योंकि मुख्य आयोजन तो पहले हो चुका था। ऐसे में खबर बहुत महत्वपूर्ण नहीं थी। फोटो ठीक नहीं थी तो छोड़ी जा सकती थी। लेकिन जो हुआ वह और बुरा हुआ। भले राष्ट्रपति ने घर जाकर भारत रत्न दिया, सरकारी पार्टी के लोग ही थे और जो थे वो सब पार्टी में उनके कनिष्ठ रहे हैं तो खबर भले हो उससे संबंधित संपादकीय निर्णय़ पत्रकारिता के नियमों के अनुसार नहीं हैं। कायदे से इस अप्रिय वारदात के बारे में मुझे भी नहीं लिखना चाहिये पर मैं लिख रहा हूं तो इसलिए कि सम्मान को सम्मान की ही तरह दिया, लिया और रहने दिया जाये। उसकी खबर को भी।

मुझे याद आता है कि एक नेताजी के अखबार के दफ्तर में काम करने वाले मित्र से मिलने जाने के लिए रिसेप्शन में बैठा था तभी नेताजी वहां आने वाले थे। उनसे पहले एक आदमी आया और सबको खड़ा करवाया गया तब नेताजी का प्रवेश हुआ। उस दफ्तर में उसके बाद मैं नहीं गया। अखबार बंद हो गया। नेताजी अब दिवंगत हैं और मैं नहीं चाहता कि लोगों को बताया जाये कि कब खड़े हो जाना चाहिये। व्यक्ति अपने विवेक से करता ही है।

मुझे बचपन में बहुत सिखाया गया कि पेशाब बैठ कर करना चाहिये। फिर इलस्ट्रेड वीकली के कवर पर फोटो छपी थी – एक चुनाव प्रचार में देवी लाल खड़े होकर पेशाब कर रहे थे। अब शायद ही कोई बैठ कर पेशाब करता हो। फोटो से आदमी सीखता है। सबूत के तौर पर इस्तेमाल होता है इसलिए मामला संवेदनशील है। चुनाव जीतने-हारने से ज्यादा।

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