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सुख-दुख

खुद को पत्रकार बताने में अब ज़बान लड़खड़ाने लगती है!

यूं तो दोस्तों और हमउम्र के जानने वालों के ज़रिए जब यह सवाल पूछा जाता है कि ‘क्या करते हो’ तो मज़दूरी करते हैं जैसे तमाम हल्के जवाबों से उनके सवालों को टाल देता हूं। लेकिन यही सवाल कोई बड़ा (उम्र में), रिश्तेदार, घर में आए मेहमान करते हैं तो ज़बान लड़खड़ाने लगती है, यह बताने में कि मैं पत्रकार हूं या मीडिया में काम करता हूं। ऐसा पहले नहीं था, शुरू में। बहुत जोश के साथ पत्रकारिता की पढ़ाई की और ख़ुद को एक मआशरे के ख़ादिम के तौर देखता था और फख़्र करता था। तब कोई यह सवाल करता था कि क्या करते हो तो मैं उसी फख्र से कहता कि पत्रकार हूं लेकिन कुछ दिनों में ही मेरा यह ग़ुमान ज़मीन पर आ गिरा।

इसलिए नहीं कि मुझे काम नहीं मिला, हालांकि यह भी एक सच्चाई है कि काम वाकई नहीं मिला। लेकिन इससे मेरा हौसला पस्त नहीं हुआ था बल्कि जिस तरह मीडिया ने अपनी किरकिरी कराई है, उसका असर हम नए आने वाले पत्रकारों पर पड़ा। हालांकि ऐसा नहीं कि मीडिया का कभी सुनहरा काल रहा हो लेकिन हाल के दिनों में मीडिया के कारनामे और उनके इन कारमानों की लोगों तक पहुंच से इस पेशे को ऐसा बदनाम किया जो शायद कभी हुआ हो।

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कई बार मैंने जब ‘क्या करते हो’ के जवाब में कहा कि मीडिया में काम करता हूं तो लोगों ने ऐसा मूंह बनाया जैसे मैं कोई बहुत ग़लाज़त भरा काम करता हूं। कइयों ने मेरे जवाब पर बड़ी उत्सुक्ता से सीधे यह कहा कि कैसे मीडिया में तुम झूठ दिखाते हो। कइयों ने जिज्ञासावश यह पूछा कि जो तुम खबरें देते हो सारी झूठी होती हैं या कुछ सही भी होती हैं। कई लोगों ने तो सीधे तजकिरा कर दिया कि अरे मीडिया को सरकार ने ख़रीद रखा है। कइयों ने कहा कि अरे हां फलाना अपना खोल के बैठ गया है यू-ट्यूब चैनल, अब तो गली-गली पत्रकार मारे मारे घूम रहे हैं।

उनमें से कई लोग ऐसे थे जो कहते हैं तुम कौन-से वाले पत्रकार हो, टीवी में नज़र नहीं आते। पत्रकार होने की तमाम शर्तों को बताने के बाद भी उनकी नज़र में टीवी वाले एंकर तक तो ठीक बाकि तुम जैसे लोग कोई ऐरा गैरा ही होंगे। मेरा ताअल्लुक अल्पसंख्यक समुदाय से है तो ख़ासकर अल्पसंख्यक समाज में मीडिया को लेकर बहुत ग़ुस्सा है। हो भी क्यों न, जिस तरह मीडिया ने उनको एक खलनायक के तौर पर परोसा है उसका असर कहीं न कहीं मआसरे में नज़र आ रहा है।

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लगभग आधी उम्र तक शिक्षा हासिल करते हैं लेकिन हासिल क्या होता है। ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनके जवाब दिए जाने बहुत ज़रूरी हैं। गाहे बगाहे कुछ दानिशवर इन पर बात करते हैं लेकिन बड़े पैमाने पर कोई इन सवालों को नहीं उठाता। जब भी इन मुद्दों पर पेशे से जुड़े बड़े दानिशवर बात करते हैं तो एक बेहद आम जो वो कहते हैं कि पत्रकारिता को आप एक तरह से ‘सेवा’ के तौर पर लें, इसको जीविका का आधार नहीं बनाएं।

इस बात ग़ौर किया जाना चाहिए कि देश के तमाम बड़े विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों के अलावा निजी संस्थानों में पत्रकारिता की पढ़ाई करवाई जाती है जिनमें बहुत बड़ी तादाद में युवा तालीम हासिल करने के लिए दाख़िला लेते हैं और ताअलीम हासिल करते भी हैं। ज़ाहिर सी बात है उनके अपने भविष्य को लेकर कुछ उम्मीदें भी होंगी। अब सवाल यह भी है कि जब इतने बड़े-बड़े संस्थानों में इस तरह की पाठ्यक्रम की पढ़ाई होती है तो आगे उनके लिए रोजगार की दिशा में किस तरह के क़दम उठाए जा रहे हैं और अगर इस बारे में बिल्कुल नहीं सोचा जाता तो ज़ाहिर है कि आप उन्हें अधर में छोड़ रहे हैं।

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अगर सिर्फ सरकारी संस्थानों द्वारा निकलने वाले युवाओं की ही बात की जाए तो क्या जितने लोग वहां से निकलते हैं उनमें से 50 प्रतिशत की भी कहीं रोजगार की व्यवस्था होती है? बिल्कुल नहीं होती और अगर नहीं होती तो इस तरह के कोर्सों को बंद नहीं कर देना चाहिए? वहीं बात की जाए मीडिया संस्थानों की तो उन्होंने ख़ुद की अपनी दुकानें खोल रखी हैं जिस के ज़रिए लाखों रुपयों की लूट कर रहे हैं। बदले में उनको मिलता क्या है? सिर्फ ख़्वाब।

इन दिक्कतों और दुश्वारियों के बाद भी कोई संघर्ष करके अपने लिए जगह तलाश कर भी ले तो मीडिया संस्थानों के अंदर का माहौल उसे पूरी तरह तोड़ देता है। ले-दे के उसके पास बचा था समाज में सम्मान वो भी सरकारी पिट्ठुओं और कोई भी मूंह उठाकर मीडिया के नाम पर कुछ भी करने से, ख़त्म हो गया। मतलब अब तो बाढ़ सी आ गई है। हर कोई प्रेस का स्टिकर चस्पा कर घूम रहा है। अगर पत्रकार होने का कोई ख़ास प्रशिक्षण या पढ़ाई की ज़रूरत नहीं है तो फिर तमाम विश्वविद्यालयों में कराए जाने वाले कोर्सों को बंद कर देना चाहिए। निजी संस्थानों पर बैन लगा देना चाहिए जो इस तरह की पड़ाई के लिए लाखों रुपयों की वसूली करते हैं।

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अगर वाकई इस तरह की प्रशिक्षण की ज़रूरत है तो कोई भी मूंह उठाकर मीडिया के नाम पर कुछ भी करने के लिए न आ जाए, इस दिशा में क़दम उठाना चाहिए। हालांकि यह बहुत मुश्किल भी है क्योंकि कई ऐसे दूसरे लोग हैं जो प्रशिक्षण प्राप्त लोगों से काफी बेहतर काम कर रहे हैं लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है कि बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो न सिर्फ इस पेशे को बदनाम कर रहे हैं बल्कि फेक न्यूज के ज़रिए समाज में एक ख़तरनाक तरह की सूचना फैला रहे हैं। इन पर रोक लगाना वाकई बहुत कठिन कार्य है क्योंकि एक तरह से यह अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़ा हुआ है। लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी निजी तौर पर तो दी जा सकती है लेकिन उन्हें प्रेस या मीडिया के नाम के इस्तेमाल की छूट नहीं दी जा सकती।

कोई स्वतंत्र होकर काम करना चाहे तो जैसे अख़बार या न्यूज वेबसाइट बनाना चाहे तो पत्रकारिता की डिग्री को अनिवार्य कर देना चाहिए बाकि सब पर रोक लगनी चाहिए। नहीं तो आने वाले दिनों में वो दिन दूर नहीं जब पत्रकार बोलने पर लोग आपसे चार क़दम दूर हट जाएंगे।

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लेखक मुक़ीम अल्वी युवा पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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