सुशोभित-
ख़बरनवीसी की दुनिया में हेडलाइन देने के हुनर का बड़ा महत्त्व है। जिसने एक जानलेवा हेडिंग देना सीख लिया, उसने मानों जर्नलिज़्म में आधी बाज़ी मार ली। पत्रकारिता के क्षेत्र के मेरे गुरुओं- श्रवण गर्ग, कल्पेश याग्निक, कीर्ति राणा, अनूप शाह, डॉ. विवेक चौरसिया, धीरेन्द्र राय, केवल कृष्ण तिवारी- आदि ने मुझे सिखाया था कि जितना समय ख़बर लिखने में लगाओ, उतना ही समय एक अच्छी हेडिंग सोचने में भी ख़र्च करो। और यह कि तथ्य, सूचनाएँ, ब्योरे तो सभी के पास समान होते हैं, ख़ास बात यह है कि आप ख़बर को किस एंगल से उठाते हो। और आपकी हेडलाइन में उस विशेष कोण का सार पूरी तरह से झलक जाना चाहिए।
यही कारण था कि मैंने अपनी रचनात्मकता का बहुत सारा निवेश अपने द्वारा दी जाने वाली हेडिंग्स में किया था। एक बार की बात है। राज एक्सप्रेस, उज्जैन में एक रिपोर्टर ने ख़बर दी कि निगम का अमला बुलडोज़र लेकर अवैध निर्माण तोड़ने पहुँचा, लेकिन कॉलोनी के रहवासियों ने अपने वैध होने के काग़ज़ात पेश कर दिए। अमला अपना-सा मुँह लिए लौट आया। हेडिंग लगाई गई- बैरंग लौट आया नगर निगम का बुलडोज़र। लेकिन बात बन नहीं रही थी, हेडिंग में इम्पैक्ट नहीं आ रहा था। मुझे बुलाया गया कि इस पर कोई धाँसू हेडलाइन बताओ। मैं तब वहाँ नया-नया आया था और दैनिक जागरण से एक बेहतरीन आदमी को तोड़कर राज एक्सप्रेस लाए हैं, ऐसी चर्चाएँ थीं। सबकी नज़रें मुझ पर टिक गईं। मैंने कुछ देर सोचकर कहा, ये हेडिंग लिखो :
“दस्ते को दिखा दिए दस्तावेज़!”
वाहवाही के साथ हेडलाइन मंज़ूर हुई। अगले दिन वह सिटी पेज की लीड के रूप में छपी। ब्यूरो चीफ़ अनूप दुबौलिया से कहा गया कि आप बढ़िया आदमी छाँटकर लाए। वो गर्व से फूल गए।
लेकिन कई बार धाँसू हेडिंग देने के चक्कर में बात बिगड़ भी जाती है। ऐसा ही एक बार हुआ, जब अखिल भारतीय कालिदास समारोह के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई और उसमें बड़ी प्रसन्नता से बताया गया कि इस बार का विशेष आकर्षण हेमा मालिनी की नृत्य-प्रस्तुति रहेगी। लेकिन यह ख़बर तो सबके पास थी, उसमें हम नया क्या जोड़ें? मैंने बहुत सोचकर हेडलाइन दी :
“बसंती बोली- मैं नाचूंगी!”
हेडिंग को पाठकों ने तो बहुत सराहा, लेकिन कालिदास अकादेमी वाले नाराज़ हो गए। बोले, आपने पत्रकार की गरिमा का निर्वाह नहीं किया। मैंने उनकी आपत्ति को इस कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया। कालिदास समारोह में हेमा मालिनी नृत्य-प्रस्तुति देंगी वाली सरकारी हेडलाइन मैं देने से रहा था।
एक बार एक गाँव से मार्मिक समाचार आया कि एक प्रेमी जोड़े ने जान दे दी। दोनों विवाह करना चाहते थे, लेकिन परिवार वालों को उनका रिश्ता मंज़ूर नहीं था। तब दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर कुएँ में कूद गए। इस पर हेडिंग देना चुनौती थी। मैंने शीर्षक दिया :
“मौत से कहा- क़बूल है!”
हेडिंग सर्वसम्मति से स्वीकृत हुई।
उज्जैन में तब एक चित्रकार सचिदा नागदेव हुआ करते थे और उनकी बेटी स्मिता नागदेव सितार-वादिका थीं। मैं पिता-पुत्री का इंटरव्यू करके आया। इंटरव्यू छपा, लेकिन हेडिंग क्या दें, इस पर बात अटक गई। बहुत मगज-पच्ची करने के बाद आखिरकार एक हेडलाइन सामने आई :
“बाबा ने रंग चुना, बिटिया ने राग!”
वक़्त के साथ कलाई-घड़ियों का बाज़ार मंदा पड़ा, दैनिक भास्कर, भोपाल में इस ख़बर की हेडलाइन मैंने दी :
“समय से हारी घड़ियाँ!”
एक बार नईदुनिया, इन्दौर में प्रधान सम्पादक श्री श्रवण गर्ग ने विशेष लेख लिखा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातों को कैसे संघ प्रमुख मोहन भागवत इन दिनों काट रहे हैं। कॉलम लिख लिया गया, पर शीर्षक नहीं सूझ रहा था। गर्ग साहब ने मुझसे कहा कि पाँच शीर्षक सोचकर लाऊं, सर्वश्रेष्ठ चुन लिया जायेगा। मैंने पाँच शीर्षक प्रस्तुत किए। उन्हें जो पसंद आया, और जिसे प्रकाशन के लिए चुना गया, वो यह शीर्षक था :
“नमो-नमो पर भागवत-कथा!”
मुझे अपनी ही नहीं, दूसरे सहकर्मियों की बेहतरीन हेडलाइंस भी अच्छी तरह याद रहती हैं। जैसे सिंहस्थ 2004 में युवा संन्यासियों का जमघट देखकर डॉ. विवेक चौरसिया ने दैनिक भास्कर के फ्रंट-पेज पर बायलाइन दी थी, इस हेडिंग से :
“भरी जवानी में भगवा, धर्म-प्रचार के अगवा!”
दोपहिया वाहन चलाने वाले ही नहीं, पीछे की सीट पर बैठने वालों के लिए भी हेलमेट पहनना ज़रूरी- उज्जैन में एक बार कुछ समय के लिए लागू किए गए इस अफ़लातूनी नियम पर साथी पत्रकार हेमंत सेन ने स्थानीय मालवी बोली में धाँसू हेडिंग दी थी :
“बदरी की बई के भी पेननो पड़ेगो हेलमेट!”
खण्डवा में एक बार एक बच्चे की हादसे में मौत के बाद प्रशासन के विरोध में भीड़ सड़कों पर उमड़ आई थी। तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख गुरुदेव बिल्लौरे ने सिटी एडिशन के लिए देर रात इस घटना की स्पेशल रिपोर्ट भेजी और हेडिंग दी :
“एक मासूम को छोड़कर पूरा शहर जाग रहा था!”
उज्जैन के कचनारिया झाला के पंचायत भवन के मुख्यद्वार पर साथी पत्रकार ईश्वर शर्मा को एक बार बकरी बंधी दिखी तो उन्होंने तुरंत ख़बर बना दी और शीर्षक दिया :
“सरपंच की तूती नहीं, बकरी की मैं मैं!”
इसका तुरंत इंपैक्ट हुआ और अगले दिन से पंचायत भवन में बकरी बंधना बंद हो गई। सफाई हुई और पंचायत भवन अंतत: पंचायत भवन जैसा हुआ।
एनआईएन, इन्दौर (डीबी कॉर्प) में एक बार बजट का स्पेशल-कवरेज कई पन्नों में पेश किया गया, लेकिन इस पूरे पसारे को समेटने वाली हेडिंग कहाँ से लाएँ? बजट लोकलुभावन था और मध्यवर्ग पर टैक्स लगाए गए थे। तब सम्पादक कल्पेश याग्निक ने एक बेहतरीन हेडिंग दी :
“ग़रीबों से कहा- जीते रहो, मध्यवर्ग से कहा- जीवित रहो!”
2009 के लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी ने लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतारा, तो डेस्क के किसी साथी ने यह यादगार हेडिंग दी :
“आडवाणी ही अटल!”
इन्हीं आडवाणीजी द्वारा जिन्ना की प्रशंसा करने पर तब भाजपा-संघ सम्बंधों में खटास आ गई थी, तब कार्टूनिस्ट लहरी ने चुटकी लेने वाला शीर्षक दिया :
“इस विभाजन के जिम्मेदार भी जिन्ना!”
पत्रकारिता के अनेक रोमांचों में एक बेहतरीन हेडिंग देने का रोमांच शीर्ष पर रहता है!