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हिन्दी पत्रकारिता में लड़कियां : शानदार काम, पर नहीं मिलता मुकम्मल मुकाम

शैलेश अवस्थी-

हिन्दी पत्रकारिता, खास तौर पर प्रिंट मीडिया में लड़कियों की संख्या अभी भी कम ही है। दिल्ली, मुंबई और बड़े शहरों को छोड़ दें तो छोटे नगरों, कस्बों और तहसील स्तर पर इनकी संख्या न के बराबर है। डेस्क में तो फिर भी हैं, रिपोर्टर तो गिनीचुनी ही होंगी। सवाल उठता है कि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो प्रिंट मीडिया में कानपुर की कोई महिला संपादक की कुर्सी तक क्यूं नहीं पहुंचती ? क्या उनमें योग्यता नहीं ? क्या उन्हें वहां तक कोई पहुंचने में कोई बाधा डाली जाती है ? या फिर उन्हें कोई संपादक बनाना ही नहीं चाहता ?

यह बिल्कुल सच है कि इस क्षेत्र में उनके सामने हर पल चुनौतियां हैं, लेकिन वे डटीं हैं तो वह सुबह कभी तो आएगी। 35 साल पहले जब मैं पत्रकारिता में आया, तब प्रिंट मीडिया ही था। कानपुर में एक भी महिला पत्रकार का नाम नहीं सुना। कुछ दिन बाद रोमी अरोड़ा का नाम सुनने में आया। वह एक बड़े अखबार में शायद फीचर डेस्क पर थीं। 1997 में जब वीरेन डन्गवाल जी “अमर उजाला” के संपादक बने, तब उन्होने मीनाक्षी झा को बतौर ट्रेनी रिपोर्टर भर्ती किया। न्यूज़रूम का माहौल बदल सा गया। हंसी-मज़ाक कम हो गई, साथी सजग रहने लगे।

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मीनाक्षी एक पत्रकार की बेटी थी तो सभी उसका अदब करते। उसने बहुत ही शानदार रिपोर्टिंग कर मीडिया जगत का ध्यान खींचा। कुछ साल बाद वह दिल्ली “हिन्दुस्तान” चली गई। अपने काम के बूते वह वहां की संपादक मृणाल पांडे की प्रिय थी। अब किसी एनजीओ से जुड़ कर बड़े काम कर रही हैं।

इसके बाद पूनम मेहता “अमर उजाला” में रिपोर्टर बनीं और फिर “सहारा” होती हुई “अमर उजाला ” गाजियाबाद एडिशन की संपादक बनीं। अभी वह इसी अखबार के राष्ट्रीय ब्यूरो में हैं।

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Sarita Kshtriyaa Wahab , Shaily Bhalla ,Anita verma, Anjali pandey, Ira Awasthi, Kajal Sharma , Shikha Pandey, Rachna tripathi, Rashmi, Sheeba Parveen, Mina mishra सहित कुछ और को भी “अमर उजाला” ने कानपुर में मौका दिया। सरिता ने कुछ साल बाद यह रास्ता छोड़ दिया और समाजसेवा क्षेत्र से जुड़ गईं। रिपोर्टर के रूप में उन्होने श्रम बीट पर जमकर काम किया। उनकी कई रिपोर्ट खासी चर्चित हुईं। उनका एक्सिडेंट हो गया, पैर में फ्रेक्चर हो गया। वह कुछ दिन छुट्टी पर रहने के बाद उसी हालत (पैर में प्लास्टर) आफिस आईं और फिर डेस्क पर काम किया। हालात कुछ ऐसे बने कि उनका पत्रकारिता से मोह भंग हो गया।

शैली भल्ला 2006 में टाईम्स आफ इण्डिया से अमर उजाला आईं। शिक्षा, धर्म, संस्कृति और समाज बीट पर जमकर काम कर रही हैं। वह शांत और सहज रह कर काम करती हैं। लेकिन इतने सालों में उन्हें सीनियर रिपोर्टर का ही तमगा मिल सका है। उनके साथ काम करने वाले कई पुरुष न्यूज़ एडिटर और एडिटर बन चुके हैं। पता नहीं अभी तक उन्हें न्यूज़ एडिटर या एडिटर की कुर्सी क्यूं नहीं नसीब हुई।

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शीबा ने “अमर उजाला” और ‘कांपेक्ट’ में बतौर रिपोर्टर शानदार काम किया। उनकी कई रिपोर्ट बेहद चर्चा में रहीं। वह हंसमुख और कभी न थकने वाली संवाददाता रहीं। फिर अपने साथ काम कर रहे धाँसू रिपोर्टर सुहैल अहमद खान के साथ निकाह कर पत्रकारिता से अलग हो गईं। सुहैल “अमर उजाला” कानपुर में तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए मुख्य उपसंपादक बन गए हैं। अब सवाल है कि क्या शीबा इस पद तक पहुंच पातीं।

बहरहाल सुहैल और शीबा की केमेस्ट्री ज़ोरदार है। एक गृहस्थी संभाल रहा तो दूसरा पत्रकारिता के कीर्तिमान गढ़ रहा है। 2002-03 में “अमर उजाला” में मीना मिश्रा को “सिटी इंचार्ज” की कुर्सी मिली। वह इस शहर में सिटी इंचार्ज का ओहदा संभालने वाली पहली लड़की थीं। संपादक थे शंभू नाथ शुक्ला।

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मीना ने उस वक्त चम्बलों के बीहड़ में जाकर जोखिमभरी रिपोर्टिंग की, जब वहां डकैतों का बोलबाला था। इस दौरान मैं उनका सहयोगी था। संपादक Shambhunath Shukla जी हौसला बढ़ाने के लिए हमारे साथ थे। दो साल बाद मीना दिल्ली “हिन्दुस्तान” चली गई। अब खुद अपना यू-टियूब चैनल चला रही हैं।

अनिता वर्मा ने कानपुर में लगातार शानदार रिपोर्टिंग कर नाम और मुकाम बनाया। इसके बाद आगरा और फिर अब झांसी में सिटी डेस्क इंचार्ज हैं। उनका जज्बा ऐसा कि वह देर रात तक काम करतीं हैं। वह निडर और साहसी हैं।

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कविता सक्सेना ने कोई डेढ़ साल रिपोर्टिंग की फिर न्यूज़ पोर्टल में काम करने के बाद पत्रकारिता को अलविदा कह दिया। रुचिता कानपुर विश्वविधालय से पत्रकारिता में गोल्ड मैडल पाकर “अमर उजाला” आईं पर दो साल बाद ही पत्रकारिता को प्रणाम कर लिया।

अंजलि पांडे ने कई साल डेस्क पर काम किया फिर पत्रकारिता से अलग हो गईं। काजल शर्मा एक छोटे से कस्बे पुखरायां से आती हैं। उन्होने अपनी पत्रकारीय पारी “दैनिक जागरण” से शुरु की और फिर “अमर उजाला” कानपुर में ज्वाइन किया। वह खबरों की एडिटिँग और डेस्क पर काम करने में माहिर हैं।

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बेहद गम्भीर और अन्तर्मुखी काजल चुपचाप एकाग्र होकर काम में तल्लीन रहती हैं। “अमर उजाला” के बाद वह “टाईम्स इंटरनेट” से जुडीं और तरक्की की छलांग लगाते हुए अब दिल्ली में “हिन्दुस्तान” डिजिटल में जमकर काम कर रही हैं। उन्होने पत्रकारीय ज़रूरत के मुताबिक अपने को अपडेट किया है। क्या उन्हें संपादक की कुर्सी पर बैठने का मौका नहीं देना चाहिये ? अभी कानपुर “अमर उजाला” में शिखा पांडे सफलतापूर्वक डिजिटल पर काम कर रही हैं। वह काम में बेहद दृढ़ और पारंगत हैं।

इरा अवस्थी अर्से तक “अमर उजाला” कानपुर में अपकंट्री डेस्क पर बेहतरीन काम करती रहीं। अब तीन साल से “अमृत विचार” कन्नौज में ब्यूरो इंचार्ज हैं। इसके अलावा कानपुर के अन्य अखबारों में भी महिला पत्रकारों ने अपने काम से हिन्दी पत्रकारिता में जगह बनाई है। इसमें शशि पांडे, शिखा और शुभांगी भी हैं। कानपुर के हिन्दुस्तान, आज और दैनिक जागरण ने भी लड़कियों को मौका दिया पर इस शहर में कोई संपादक के ओहदे तक नहीं पहुंचा।

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“आज” में अंजू त्रिवेदी और सैन्की ने भी रिपोर्टिंग की लेकिन कुछ सालों बाद पत्रकारिता से अलग हो गईं। अंजू के पति पत्रकार सुरेश ने खुद का अखबार निकाला, जिसमें वह सहयोग करती रहीं। सुरेश त्रिवेदी के निधन के बाद अब वैसी गति नहीं है। शिखा सिंह पहले हिन्दुस्तान और अब दैनिक जागरण में शानदार मुकाम पर हैं। कानपुर के धनकुटटी में रहने वाले अरुण द्विवेदी की पुत्री रावी दिल्ली “हिन्दुस्तान” में न्यूज़ एडिटर के ओहदे तक पहुंची। कानपुर की प्रमिला दीक्षित ने कई न्यूज़ चैनलों में काम किया। वह नामी न्यूज़ एंकर स्व•रोहित सरदाना की पत्नी हैं। यहीं की अपराजिता एक बिजनेस न्यूज़ पेपर में बड़ी भूमिका निभा रही हैं। वह वरिष्ठ अधिवक्ता कौशल शर्मा की पुत्री हैं।

समाचार चैनलों, यू-टियूब चैनलों और डिजिटल मीडिया ने महिलाओं को बहुत मौके दिए हैं। जीएमडी चैनल की एंकर Vaishnavi Laxakar अर्से से सफलतापूर्वक काम कर रही हैं। उनका उच्चारण, बोलने का स्वाभविक अन्दाज़, सौम्य्ता और गम्भीरता उन्हें आगे बढ़ा रही है। उनकी योग्यता उन्हें किसी भी राष्ट्रीय चैनल में स्थान दे सकती है पर शायद वह निजी कारणों से इस पर विचार नहीं कर रहीं। Saumya Mishra एबीसी चैनल की स्टार एंकर और तेजतर्रार रिपोर्टर हैं। अपनी काबिलियत से वह कई साल से इस फील्ड में डटी हैं।

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इसी तरह कानपुर की गरिमा, हुमा आलम, आंचल, अंजलि झा सहित कुछ और टीवी एंकर और रिपोर्टर हैं जो मीडिया जगत में कामयाबी का झन्डा बुलंद कर रही हैं।

अब देखना है कि इनमें से कौन कानपुरिया पत्रकार प्रिंट मिडिया में संपादक की कुर्सी तक पहुंचता है। आप में लगन, मेहनत और योग्यता है, एक दिन आएगा, जब कानपुर में भी कोई महिला किसी अखबार के संपादक की कुर्सी पर बैठ कर इतिहास रचेगी। बस, अपने को इसके लिए तैयार कीजिये। तय कर लिजिये कि आपको इस मंजिल तक पहुंचना है। यह विचार कर उसमें अपनी पूरी आत्मा डाल दीजिये। लक्ष्य ज़रूर हासिल होगा।

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इस नेटयुग में वह दिन भी आएगा, जब अंग्रेजी अखबारों की तरह कानपुर की भी लड़कियां हिन्दी अखबारों में भी ऊंची कुर्सी पर बैठेंगी। एडिटर बनेगी। यह भी इंतज़ार है कि कौन मिडिया घराना कब किसी कानपुर की महिला को संपादक की कुर्सी आफर करता है। क्या प्रतिभाओं की कमी है ? तो फिर संकोच किस बात का ? मौका तो दीजिये, प्रयोग तो कीजिये फिर नतीजे देखिये। सभी महिला पत्रकारों को मेरी शुभकामनायें।

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3 Comments

3 Comments

  1. Rashmi Singh

    June 16, 2023 at 3:21 pm

    Mai Rashmi singh lucknow me anaadi tv me video jounalist hu aur mujhe field par kam karte hue 6 shal ho gye h .. mujhe kabhi kisi ka support nahi mila hai kyuki jab bhi mai kisi tv channel me jaati hu to mujhe rakha nahi jata kyuki sab bolte h ladki h iski security kon karega to koi kahta h ki hm khane peene wale hai to isko kaise rakhenge.. bus yahi sab kai shalo se sunte aa rhi hu . mujhe hmesa ladna padta hai chahe salry leni hi kyu na ho ya apni baaat rakhni kyu na ho ..
    sampadak ki baat to chor digiye media line me ladkiyo ke liye aj bhi mauhol nhi thik h up me…

  2. अशोक कुमार शर्मा

    June 16, 2023 at 3:25 pm

    अतुलनीय, असाधारण, भावपूर्ण, विजुअल और इमोशनल अपील से भरा आलेख है इसकी जितनी सराहना की जाए उतना कम है।

    1976 में राष्ट्रीय हिंदी पत्रकारिता में देश की सबसे प्रख्यात व पत्रिकाओं में मैंने ट्रेन से लेकर सेट संपादक के पदों पर कार्य किया।

    इस दौरान मैंने यही देखा कि पुरुष पत्रकारों में तो घनघोर टाइप के ऐब पनप जाते हैं, लेकिन पत्रकारिता की महिलाएं उन दोनों से अधिकतर आजाद रही हैं और अपने काम से काम रखने की शैली अपनाते हुए आगे बढ़ती रहीं।

    अपवाद स्वरूप जिन महिलाओं ने पुरुषों के दुर्गुणों को अपनी कार्यशैली में शामिल करने की कोशिश की वह बेतहाशा आगे बढ़ीं। आंधी तूफान की तरह से उन्होंने उन्नति भी की। उनका पतन भी उसी गति से हुआ, क्योंकि ऐसी महिलाओं के पास प्रतिभा शक्ति के रूप में केवल रूप शक्ति ही हुआ करती थी।

    इस सब के बावजूद महिला पत्रकारों को मैं पुरुषों से हमेशा बेहतर मानता रहा हूं क्योंकि जिस विषय पर भी वह मेहनत करती हैं वह उसमें डूब कर काम करती हैं।

    आपके आलेख से यह भी पता चलता है कि आप कितने महान चरित्र के व्यक्ति हैं क्योंकि आपने इसे सधे हुए संतुलित और शालीन तरीके से लिखा है। मैं आपके लिए जवाबी टिप्पणी लिखने के दौरान न जाने कितनी बार उसे संपादित संशोधित करता रहा हूं।

    इससे पता चलता है कि ऐसे विषय पर लिखना कितना कठिन है और उसे सात कर आगे बढ़ना कितना दुष्कर।

    आपको बार-बार बधाई और शुभकामना।

  3. Vijaya Tiwari

    June 16, 2023 at 11:00 pm

    पत्रकारिता की इस फील्ड में लड़कियाँ चाहें कितना भी अच्छा काम क्यों ना कर लें उन्हें ना तो अच्छी सैलरी ऑफर की जाती है ना ही उनके काम की तारीफ ही उन्हें मिलती है क्योंकि इस फील्ड में मौजूद पुरुष कभी खुद से आगे बढती हुई लड़कियों को देख ही नहीं पाते जैसे ही उन्हें पता चलता है कि किसी लड़की की उसके अच्छे काम के कारण ज्यादा तारीफ हो रही है वैसे ही पुरुष वर्ग मिलकर उस लड़की के लिए मुश्किलें पैदा करनी शुरु कर देंगे उसके आने-जाने के समय, उसके काम के तरीके को लेकर और भी कई तरीकों से उसे गिराने की कवायद शुरु कर देते हैं साथ ही उस लड़की के खिलाफ सम्पादक के कान भी भरे जाते हैं शायद ही कोई सम्पादक हो इस फील्ड में जो लड़की और लडके को एक नज़र से देखे, उनमें भेदभाव ना करे वरना यदि कोई लड़की काम पर देर से आये या उससे कोई गलती हो जाये तो पूरे ऑफ़िस में जैसे प्रलय आ जाती है वहीं कोई लड़का कुछ गलत करे तो ऐसा कुछ नहीं होता और सम्पादक तो इस तरह के पुरुषों के हाथ की कठपुतली होता है बस लड़के चार बार भरे स्टाफ में सम्पादक की तारीफ कर दें बस सब कुछ माफ और पुरुषों को तो सम्पादक के तलवे चाटने की आदत होती है जबकि लड़कियों को उनके parents कभी किसी के आगे झुकना नहीं सिखाते इसलिए लड़कियाँ सब कुछ सुन के भी बस संघर्ष करती रहती हैं । मैने भी इस फील्ड में 2016 से एक इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ चैनल से काम शुरु किया था लेकिन मै भी ऐसे ही पुरुषों की राजनीति का शिकार हुई ।

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