रंगनाथ सिंह-
अखिलेश यादव का नया तेवर, राज्यसभा और राजनीति –
यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान अखिलेश यादव ने जैसे सेंस ऑफ ह्यूमर और हाजिरजवाबी का परिचय दिया था उससे उनके चाहने वालों की संख्या बढ़ी थी। अखिलेश ऐसे नेता रहे हैं कि जो उन्हें वोट नहीं देते वो भी उन्हें नापसन्द नहीं करते। कल अखिलेश जी दो कारणों से सोशलमीडिया पर छाए रहे। कल कई सोशलमीडिया इन्फ्लुएंसर इस बात से नाराज थे कि सपा ने कपिल सिब्बल को राज्यसभा भेज दिया। यही वर्ग पहले इस बात से नाराज था कि तेजस्वी यादव ने मनोज कुमार झा को राज्यसभा भेज दिया था।
सोशलमीडिया इन्फ्लुएंसर यह कभी विचार नहीं करते कि उनकी कोर स्किल क्या है? पढ़ने के वक्त उन्होंने पढ़ाई तो की नहीं। टीवी में आदमी तमाशा लगाना सीखता है। टीवी पर तमाशा लगाने का हुनर सीखने वाले ज्यादातर महारथी सोशलमीडिया पर भी अच्छा तमाशा लगा लेते हैं लेकिन राज्यसभा में तमाशा तो लगाना नहीं होता! टीवी के वर्कएक्स से राज्यसभा जाने वालों में भी एंकर भारी पड़ेंगे क्योंकि उनको लुभावने ढंग से बोलना आता है। कोई बढ़िया वक्ता हो तो समझ में आए कि वह सदन में पार्टी हित में बढ़िया भाषण देगा। इन्फ्लुएंसर ट्वीट और फेसबुक पोस्ट करने के लिए उच्च सदन में क्यों जाना चाहते हैं! मनोज झा और कपिल सिब्बल की विद्या उन्हें वहाँ तक ले गयी है। जाति जनगणना तो नगरपालिका के साधारण कर्मचारी तक कर सकते हैं।
टीवी स्क्रीन पर किसी पैनल में कितने पाण्डेय हैं, कितने मिश्रा, कितने दुबे, चौबे, छब्बे या सिंह, श्रीवास्तव, अग्रवाल, यादव, पटेल, जाटव हैं यह गिनने के लिए बहुत ज्यादा आईक्यू की जरूरत नहीं होती। सोशलमीडिया के बच्चे-बच्चे इतना गिन ले रहे हैं। अब तो सावन में पैदा होने वाले भी भादो में महज अनुमान के आधार पर दूसरों की जात का अन्दाजा लगाकर सिद्धान्त बघार रहे हैं। इतने से काम के लिए राज्यसभा नहीं भेजा जा सकता। इसके लिए तो पार्टी के आईटी सेल में प्लेसमेंट देना काफी होता है।
भाजपा ने भी राकेश सिन्हा को राज्यसभा भेजा जो एंटी-बीजपी ईकोसिस्टम में दसियों साल से टीवी पर स्वेच्छा से आरएसएस-भाजपा को डिफेंड कर रहे थे। यह वर्ग पूरी तरह भूल चुका है कि भीड़ और हल्लागुल्ला करने की ताकत विद्या-ज्ञान-अध्ययन को सदैव के लिए विस्थापित नहीं कर सकती। वो लोग दया के पात्र हैं जो सोचते हैं कि उन्हें राजनेताओं से ज्यादा व्यावहारिक राजनीति आती है। मार्क्स बड़े सिद्धान्तकार थे लेकिन व्यावहारिक राजनीति में लेनिन उनसे बहुत आगे थे।
सिब्बल को राज्यसभा भेजने को लेकर एक वर्ग अखिलेश जी पर अटैक कर रहा था तो एक अन्य वर्ग उनके द्वारा विधानसभा में केशव प्रसाद मौर्य को तूतड़ाक, तुम, तुम्हारे पिता, चल हट, चल हट….किए जाने को डिफेंड कर रहा था।
यह वर्ग यह दिखाना चाह रहा है कि ‘सैफई की जमीन बेचकर सड़क बनवाए थे’ बयान इस लायक ही था कि ये सब कर दिया जाए! कई लोग खुश हैं कि अखिलेश भैया ने केशव प्रसाद मौर्य को तुम, तुम्हारे पिता, चल हट, चल हट… कर सकें करके ‘औकात’ दिखा दी। ऐसे लोग संसदीय और असंसदीय शब्दावली में फर्क भूल चुके हैं। भूल जाएँ, उनकी मर्जी है। लेकिन इस बयान को जो मैसेज गया है वह अखिलेश यादव को 2017 और 2022 के बाद भी भारी पड़ेगा।
यूपी बिहार में यादव बनाम कुर्मी-कोइरी की पॉवर पॉलिटिक्स में इस बयान का असर न हो, मुश्किल है। अभी कुछ समय पहले एक यादव जी ने न जाने किस आधार पर लिख दिया कि पिछड़ा वर्ग कोटे से नौकरी पाने में यादव नहीं दूसरी जाति ज्यादा है तो उस दूसरी जाति का अन्दाजा तब हुआ जब एक खास जाति के इन्फ्लुएंसर ने उनका जवाब देना शुरू कर दिया। लोग दबी जबान में पूछ रहे हैं कि अखिलेश यादव ने जिस तरह केशव प्रसाद मौर्य को तुम, तुम्हारे पिता, चल हट, चल हट….कर गए क्या वही तेवर और जबान कभी योगी आदित्यनाथ के खिलाफ ट्राई करेंगे। आदित्यनाथ नहीं सही, ब्रजेश पाठक पर ही ट्राई करेंगे? मैं मानता हूँ कि माहौल की गर्मी में अखिलेश के मुँह से वैसा निकल गया होगा। हमसे भी हो जाता है लेकिन सोशलमीडिया में ऐसे लोगों की भीड़ बढ़ चुकी है जो अवांछित या असावधान पलों में मुँह से निकली बात को भी डिफेंड करने के लिए सारा हठयोग कर डालते हैं।
अखिलेश जी बिल्कुल भूल चुके हैं कि यूपी विधानसभा चुनाव का एक ग्राउण्ड नरेटिव यह भी था कि सपा सत्ता में आई तो ‘गुण्डई’ बढ़ जाएगी। सपा-विरोधियों की इस नरेटिव का सबसे बड़ा एंटीडोट अखिलेश यादव की सौम्य सभ्य प्रसन्नचित्त छवि थी जिसे कल तगड़ा धक्का लगा। इस धक्के से वो सारे संवाद याद आ गए जिनमें कहा गया था कि अगर ‘अहीर सत्ता में आ गए तो….।’ आज खुद अखिलेश उस तेवर को अपनाते नजर आ गए। देखना यह है कि अखिलेश भैया अपना नया तेवर बरकरार रखते हैं या यह केवल क्षणिक उत्तेजना का प्रतिफल था। जो भी हो, उन्हें बस इतना याद रखना चाहिए कि चुनाव का दौरान भाजपा का एक नरेटिव यह भी था कि – ….इसीलिए योगी जी की जरूरत है!
2014, 2017, 2019 और 2022 के बाद भाजपा ने निर्णायक रूप से साबित कर दिया है कि यूपी की सत्ता MY को पूरी तरह दरकिनार करके भी हासिल की जा सकती है। 2022 में तो MY की अभूतपूर्व लामबन्दी थी फिर भी भाजपा दो-तिहाई सीट लाने में कामयाब रही। सपा समर्थक इधर राज्यसभा और तूतड़ाक में उलझे हुए हैं दूसरी तरफ भाजपा ने चुनावी अखाड़े में नया जुमला उतार दिया है। कांग्रेस शासित राजस्थान के जयपुर में भाजपा ने MYY (महिला, युवा और योजना) को चार राज्यों के हालिया चुनावों में अपनी जीत का श्रेय दिया।
अब यह सब मान चुके हैं कि चुनावी राजनीति में भाजपा कच्ची गोटियाँ नहीं खेलती। राजनीतिक चिन्तकों को सोचना चाहिए कि यह महिला और युवा कौन हैं जिनके वोट के बल पर भाजपा जीतने का दम भर रही है! उनकी जाति और धर्म क्या है? योजना का नरेटिव तो साफ है। यूपी विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ और अमित शाह जैसे नेताओं ने दावा किया कि जिन पाँच करोड़ लोगों को मुफ्त राशन मिला है उनमें करीब दो करोड़ मुसलमान हैं। योगी जी ने दावा किया कि जिन लोगों को सरकारी आवास मिला है उसमें 30 प्रतिशत से ज्यादा मुसलमान हैं जबकि उनकी जनसंख्या करीब 19 प्रतिशत है। सन्देश साफ है कि योजना में भाजपा भेदभाव नहीं करती।
योजना के नरेटिव का सफेद-स्याह क्या है, देश को यह अब शायद नीतिश कुमार बताएँ क्योंकि जो माहौल बन रहा है उससे यही लग रहा है कि राहुल गांधी या अखिलेश यादव की जगह नीतीश कुमार पर कुछ लोग ज्यादा भरोसा कर रहे हैं। जाति जनगणना की तरफ तो नीतीश जी पहले ही कदम बढ़ा चुके हैं। गिनती गिन-गिन थक चुके इन्फ्लुएंसरों की बात उन्होंने सुन ली। हालाँकि राज्यसभा भेजने के मामले में वो अखिलेश और तेजस्वी से थोड़े ही अलग हैं। उन्होंने लम्बे समय तक निस्वार्थ भाव से पार्टी की सेवा करने वाले अनिल हेगड़े को उच्च सदन में भेजा है। पता नहीं अनिल हेगड़े सोशलमीडिया पर एक्टिव हैं भी नहीं!
खैर, मुद्दा यह है कि यदि नीतीश कुमार के पीछे लामबन्दी होनी है तो भी, अखिलेश यादव को याद रखना होगा कि फिर केशव प्रसाद मौर्य को तुम, तुम्हारे पिता, चल हट, चल हट….करना भूलना होगा।